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आखिर कैसे आए देश में 10 गुना FDI

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बड़ी बढ़त देश में वृद्धि की प्रक्रिया के लिहाज से आवश्यक है। बता रहे हैं अजय शाह

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अजय शाह   
Last Updated- September 25, 2024 | 9:15 PM IST

शी चिनफिंग ने 2013 में चीन की सत्ता संभाली और राष्ट्रवाद तथा राज्य की शक्ति के मनमाने प्रयोग पर नए सिरे से जोर दिया। इससे ज्यादा समृद्धि और अधिक स्वतंत्रता की दिशा में बढ़ने के ‘चीन मॉडल’ में बाधा उत्पन्न हुई। कई आर्थिक संकेतक बताते हैं कि चीन मॉडल 2017 के बाद से किस तरह बेपटरी हो गया। 2013 में चीन में 291 अरब डॉलर का शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया था मगर हाल में आए आंकड़ों के मुताबिक 2023 में केवल 43 अरब डॉलर का शुद्ध एफडीआई आया।

12 सितंबर को एलीनॉर ऑलकॉट और वांग शुएछाओ ने फाइनैंशियल टाइम्स में एक आलेख लिखकर बताया कि कैसे चीन ने अपने निजी क्षेत्र का दम घोंट दिया। यह दिखाने के लिए उन्होंने वेंचर कैपिटल की रकम से कंपनियां बनने की रफ्तार का उदाहरण दिया। 2018 में ऐसी कंपनियां बनने की रफ्तार चरम पर थी और उस साल वेंचर कैपिटल की मदद से 51,032 कंपनियां बनीं मगर 2023 में ऐसी केवल 1,202 कंपनियां बन पाईं। यह 97.6 फीसदी की हैरतअंगेज गिरावट थी। इस प्रकार एक जीवंत क्षेत्र का अंत हो गया।

अगर कोई वैश्विक कंपनी अपना ज्यादातर उत्पादन चीन से करना शुरू कर देती है तो सामान्य परिस्थितियों में बदलाव बहुत धीमी गति से ही हो पाता है क्योंकि किसी भी कंपनी का नेतृत्व बनी-बनाई उत्पादन व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहता। जब चीन में वेतन बढ़े तब भी इसी सोच के कारण कंपनियों की बहुत कम उत्पादन गतिविधियां उस देश से बाहर गईं।

कंपनियों ने इस पर पुनर्विचार तब शुरू किया, जब चीन की सत्ता ताकत के मनमाने इस्तेमाल और राष्ट्रवाद मे डूब गई। तब ज्यादातर वैश्विक कंपनियों को अहसास हुआ कि विविधता के मोर्चे पर वे बहुत पिछड़ी हैं। उसके बाद अनूठा मौका आया, जब कई वैश्विक कंपनियों ने अपनी गतिविधियां चीन से बाहर ले जाना शुरू कर दिया। अपनी उत्पादन व्यवस्था को नया रूप देने का वैश्विक कंपनियों का विचार 2018 से 2028 के बीच की अवधि का सबसे बड़ा रुझान रहा।

राष्ट्र के विकास के लिए एफडीआई क्यों आवश्यक है? विकसित देशों की कंपनियों के पास उन्नत ज्ञान होता है। जब वे भारत में काम करती हैं तो उनके साथ बेहतरीन प्रबंधन तकनीक और प्रौद्योगिकी आती है तथा भारतीय श्रम एवं पूंजी का इस्तेमाल कर वे उत्पादन में प्रत्यक्ष वृद्धि हासिल करती हैं। वे जिस बाजार में जाती हैं, वहां पहले से काम कर रही कंपनियों को चुनौती देती हैं और पूरे उद्योग की सूरत सुधार देती हैं। भारतीय कर्मचारी उनसे ज्ञान पा लेते हैं और दूसरी कंपनियों के लिए काम करने चले जाते हैं। इससे बेहतरीन ज्ञान पूरी अर्थव्यवस्था में फैलता रहता है। एफडीआई कंपनियों के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए जरूरी है, जिससे कंपनियों की उत्पादकता बढ़ती है।

वियतनाम और थाईलैंड जैसे देशों में आर्थिक नीति निर्माता वैश्विक एफडीआई माहौल में बदलाव लाने का सक्रिय प्रयास कर रहे हैं। भारत की आर्थिक नीति बनाने वालों के लिए यही बेहतर होगा कि वे देश में विशुद्ध एफडीआई आवक को मौजूदा 26 अरब डॉलर का 10 गुना यानी 260 अरब डॉलर करने का लक्ष्य तय करें।

जिस समय वैश्विक कंपनियां चीन से उत्पादन बाहर ले जा रही हैं तब भारत को क्या फायदा हो रहा है? भारत से वस्तु निर्यात और देश में एफडीआई आवक के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। एफडीआई पर चर्चा करते समय सतर्कता बरतते हुए भारत में एफडीआई और भारत द्वारा एफडीआई में अंतर करना होगा। जब भारत में एफडीआई की बात आती है तो उस पूंजी को घटा दें, जो वैश्विक कंपनियां यहां से अपने देश वापस ले गईं। इस तरह देश में शुद्ध एफडीआई प्राप्त होता है।

देश में एफडीआई दो तरह से आता है: विनिर्माण या बुनियादी ढांचे के लिए भौतिक संपत्तियां और देश में होने वाला सेवा उत्पादन जैसे ग्लोबल कैपेसिटी सेंटर (जीसीसी)। पिछले एक दशक के दौरान सेवा निर्यात में अपेक्षाकृत बेहतर वृद्धि रही है। नॉमिनल डॉलर में इसने 8.45 फीसदी की चक्रवृद्धि दर से बढ़ोतरी की है। ऐसे में सेवा क्षेत्र में एफडीआई का प्रदर्शन बेहतर रहने की उम्मीद है और विनिर्माण तथा बुनियादी ढांचे में एफडीआई नॉमिनल डॉलर में -1.5 फीसदी (अर्थात् ऋणात्मक) चक्रवृद्धि दर से बढ़ा।

जब देश के वस्तु निर्यात में हुई 3.3 फीसदी की वृद्धि और शुद्ध एफडीआई में 1.5 फीसदी की ऋणात्मक वृद्धि को उस दौरान अमेरिका में तकरीबन 3 फीसदी की मुद्रास्फीति दर के साथ देखा जाता है तो प्रदर्शन और भी कमजोर लगता है। इस प्रकार हमें पता लगता है कि चीन मॉडल में बिखराव के समय जब बड़ी तादाद में वैश्विक कंपनियां वहां से हट रही थीं तब भारत में विनिर्माण तथा बुनियादी ढांचे में एफडीआई कमजोर रहा। इससे साबित होता है कि पहले से चली आ रही नीति (यानी बुनियादी ढांचे और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन पर जोर) से सकारात्मक वृद्धि नहीं हो रही।

यह बड़ी समस्या है, जिस पर ध्यान देने और समाधान करने की जरूरत है। क्या देश में आने वाले एफडीआई में 10 गुना बढ़ोतरी के लिए करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल किया जा सकता है? भारत के राजकोषीय संसाधन बहुत सीमित हैं और उनसे बड़ा अंतर नहीं आने वाला। अगर हमें लगता है कि भारत में काम करने में आने वाली दिक्कतों से निर्यात में 10 फीसदी की कमी आ जाती है और हम 1 लाख करोड़ डॉलर का निर्यात करना चाहते हैं तो यह सब्सिडी करीब 100 अरब डॉलर या 8.5 लाख करोड़ रुपये सालाना हो जाती है। यह एकदम अव्यावहारिक है।

एफडीआई 10 गुना करने के लिए हमें गहरी दिक्कतों से निपटना होगा। हमारे देश में वही दिक्कते हैं जो चीन में देखी गई थीं मगर छोटे पैमाने पर हैं। वर्क वीजा, पूंजी पर नियंत्रण, संरक्षणवाद, कर नीति और कर प्रशासन की दिक्कतें हैं। नियामक सरकार का अहम हिस्सा बन गए हैं और विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिलाकर उनके पास मनमानी ताकत आ गई हैं। सबसे बड़ी चुनौती है आर्थिक राष्ट्रवाद (विदेशी फर्मों के साथ बराबरी का बरताव नहीं करना), केंद्र द्वारा नियोजन और विधि के शासन की कमी की।

अलग किस्म के तकनीकी मानक और एकाधिकार तैयार करने की चीन और भारत सरकार की कोशिशें वैश्वीकरण की राह में बाधा पैदा करती हैं। जब कार्यपालिका किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाती है तो अदालत से राहत मिलना मुश्किल होता है क्योंकि देर भी होती है और गलत फैसला आने का अंदेशा भी रहता है। भारत में बौद्धिक संपदा की चोरी चीन की तुलना में बहुत छोटे स्तर पर होती है। नीति निर्माताओं को विदेशी तकनीक और प्रक्रिया के ज्ञान को सम्मान देते हुए इस पर सख्ती करनी चाहिए।

इन सभी समस्याओं को आर्थिक सुधारों की बेहतर प्रक्रिया के जरिये सुलझाया जा सकता है। सरकारी विभागों में क्रियान्वन करने वाली टीमों को उपाय सुझाने के लिए सक्षम अनुसंधान संगठनों की सेवा की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसके लिए ऊपर बताई गई समस्याओं का समाधान सुझाने वाले माहिर लोग पाना संभव है। जनता के धन का इस्तेमाल राजनीतिक अर्थव्यवस्था की दिक्कतें दूर करने के लिए भी किया जाना चाहिए। इन दोनों पर खर्च काफी कम होगा।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : September 25, 2024 | 9:15 PM IST