शिकागो में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रघुराम राजन को योजना आयोग ने भारत के वित्तीय क्षेत्र में सुधार पर रिपोर्ट पेश करने को कहा था।
उनकी यह रिपोर्ट काफी पठनीय है और इसकी कई बातों पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। राजन इससे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शोध इकाई के प्रमुख भी रह चुके हैं।
बहरहाल, रिपोर्ट में मैक्रो-इकोनॉमिक नीति से संबंधित हिस्से में गंभीर खामी नजर आती है। इस नीति में तार्किकता का अभाव दिखता है। मैक्रो सिध्दांत में खामी की एक बानगी देखिए। देश अभी करंट अकाउंट घाटे के दौर से गुजर रहा है और इसके बावजूद करंसी में और बढ़ोतरी करने की सिफारिश की गई है। या फिर इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि रिपोर्ट सिर्फ वित्तीय क्षेत्र की बात करती है और बाकी क्षेत्रों की उसे कोई परवाह नहीं है।
1960 और 70 के दशक में अर्थशास्त्र को सांख्यिकीय आंकड़ों के बजाय तार्किक सिध्दांतों के नजरिये से ज्यादा देखा जाता था। उस दौरान दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अमर्त्य सेन एम. ए. प्रथम वर्ष के छात्रों को अर्थशास्त्र का गणितीय सिध्दांत पढ़ाया करते थे और इसे बहुत ज्यादा तवाो नहीं दी जाती थी। उन दिनों अर्थशास्त्र में तार्किक सिध्दांत के ज्ञान का वही महत्व था, जो आज के दौर में सांख्यिकीय विश्लेषण की योग्यता का है।
लेकिन 70 के दशक में ही विकसित देशों के राजनेताओं ने विश्व बैंक पर इन देशों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले कर्ज और सहायता राशि के बेहतर आकलन के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। नतीजतन 70 के दशक के अंत तक अर्थशास्त्र में तार्किकता का सिध्दांत कमजोर पड़ने लगा।
1980 के दशक के उत्तरार्ध में अर्थशास्त्र में आंकड़ों की भूमिका हावी होने लगी। यह ट्रेंड अब भी मौजूद है और इसे गलत नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि धन के महत्व को पहचानते हुए अर्थशास्त्रियों ने इस तरफ अपना रुख किया।
इस बदलाव का एक परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्रियों में इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के अंडरग्रैजुएट छात्रों की तादाद काफी बढ़ गई। इंजीनियरिंग में सामाजिक विज्ञान से जुड़े विषयों को तवज्जो नहीं दिए जाने की वजह से ये छात्र सामाजिक विज्ञान की उलझनों और दुविधाओं, बहस के तौर-तरीकों और सबसे अहम तार्किकता के सिध्दांत से बिल्कुल अनजान थे।
राजन रिपोर्ट के संदर्भ में मैं सिर्फ तार्किकता के सिध्दांत से जुड़े पहलू पर चर्चा करना चाहूंगा। इसकी दो तकनीक है। पहला डिडक्शन और दूसरा इंडक्शन। दोनों तकनीकों के अपने-अपने आलोचक और प्रशंसक हैं। जैसा कि अक्सर हर बहस का नतीजा होता है, दोनों तकनीकों में से कोई भी पूरी तरह सही या गलत नहीं है। इसका मतलब यह है कि कभी-कभी संदर्भ बहुत अहम होता है। मैक्रो-इकोनॉमिक्स में भी यही बात लागू होती है।
तार्किकता के डिडक्शन सिध्दांत के तहत, नतीजा पहले से तय अवधारणा पर निर्भर करता है। अगर अवधारणा गलत है, तो नतीजा भी गलत होगा। डिडक्शन तकनीक का रास्ता आम से खास की ओर जाता है।
मसलन, अगर आपकी सामान्य अवधारणा (बिना किसी संदर्भ को ध्यान में रखे) यह है कि निजी क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में एक खास तरह की भूमिका अदा करनी चाहिए, तो निश्चित तौर पर आपकी एक अवधारणा यह भी होगी कि सभी तरह के राजकोषीय घाटे बेकार हैं, क्योंकि इससे निजी निवेश के लिए गुंजाइश कम होती है। इसके बाद चूंकि सभी तरह के राजकोषीय घाटे को बुरा माना जाता है, इसलिए खास संदर्भों में भी राजकोषीय घाटे को भी उचित नहीं माना जाएगा।
जहां तक इंडक्शन सिध्दांत की बात है, इसमें भी परिकल्पनाएं होती हैं, लेकिन इसका प्रत्यक्ष तौर पर नतीजों से जुड़ाव नहीं होता है। मिसाल के तौर पर अगर आप कह रहे हैं कि आपने जितने भी हंस देखे हैं, वे सभी सफेद रंग के हैं। इसका नतीजा यह निकाला नहीं जा सकता है कि सभी हंस सफेद रंग के ही होते हैं। कुछ हंस काले रंग के भी हो सकते हैं।
मशहूर दार्शनिक कार्ल पॉपर तार्किकता और नतीजों तक पहुंचने में इंडक्शन प्रणाली को उचित नहीं मानते हैं। वह कहते हैं कि अगर आपने सिर्फ सफेद हंसों को देखा है तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि सिर्फ सफेद हंसों का ही अस्तित्व है? हो सकता है कि आपने ऐसा हंस नहीं देखा हो, जो काला हो।
राजन रिपोर्ट के साथ मुख्य समस्या यही है। उसने इंडक्शन प्रणाली का इस्तेमाल किया है। इसकी एक मिसाल देखिए। रिपोर्ट में परोक्ष रूप से यह कहा गया है कि कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि जब केंद्रीय बैंकों के पास एकमात्र लक्ष्य – महंगाई दर – की समस्या को हल करना होता है, तो वे इसमें सफल हो जाते हैं। इसके मद्देनजर यह मान लिया गया है कि जब उनके पास एकमात्र लक्ष्य (महंगाई दर को काबू में रखना) होगा, तो वे हमेशा इस काम में सफल होंगे।
दुर्भाग्य से अर्थशास्त्र की दुनिया में इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के डेटा एक्सपर्ट छात्रों के आने की वजह से मैक्रो-इकोनॉमिक विश्लेषण और नीतियां बनाने में तार्किकता की समस्या आम हो गई है। ‘डेटा’ अर्थशास्त्री अक्सर इंडक्शन और डिडक्शन तकनीक का घालमेल कर देते हैं।
इसके अलावा, मैक्रो-इकोनॉमिक्स का सिध्दांत बुनियादी रूप से तर्क पर आधारित है और इस वजह से समस्या और जटिल हो जाती है। यह कुछ-कुछ यूसिलिडियन ज्यामिति की तरह है, जिसमें एक बात को बार-बार अलग-अलग तरीके से दोहराया गया है।
इस सिध्दांत में ऐसी बातों का जिक्र बार-बार किया गया है, जिसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। साथ ही, इन बातों का शुरू में कही गई बातों से तारतम्यता का अभाव भी दिखता है। राजन रिपोर्ट में भी तारतम्यता का अभाव नजर आता है।दरअसल, रिपोर्ट की बुनियाद कमजोर होने की वजह से कुछ लोग इसे पूर्वाग्रह से ग्रस्त मान सकते हैं। हमें इससे बेहतर रिपोर्ट की उम्मीद थी।