कोविड-19 के कारण गत छह माह के दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और रक्षा मंत्रालय के चुनिंदा अधिकारी उद्योग जगत के लोगों से वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के जरिये ही रूबरू हुए हैं। अधिकारियों ने 2014 के बाद किए गए रक्षा नीति सुधारों के बारे में बात की। उनका कहना है कि ये सुधार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के नारे के अनुरूप रक्षा उत्पादन को बढ़ावा देने वाले हैं। अधिकारी रक्षा क्षेत्र की 101 वस्तुओं की ‘नकारात्मक आयात सूची’, नई रक्षा अधिग्रहण नीति 2020 (डीएपी 2020) का जिक्र करते हुए स्वदेशीकरण पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि नई रक्षा उत्पादन एवं निर्यात संवद्र्धन नीति (डीपीईपीपी 2020) की मदद से सालाना रक्षा उत्पादन को बढ़ाकर 26 अरब डॉलर पहुंचाया जाएगा और हर वर्ष 5 अरब डॉलर के हथियार निर्यात किए जाएंगे। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में दो रक्षा उद्योग कॉरिडोर दो स्थापित किए जाएंगे। वे देश के रक्षा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के उदारीकरण का भी जिक्र करते हैं।
गत 17 सितंबर को उद्योग संवद्र्धन एवं आंतरिक व्यापार विभाग ने रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा को उन कंपनियों के लिए 49 फीसदी से बढ़ाकर 74 फीसदी (स्वचालित रास्ते के जरिये) कर दिया जो नए लाइसेंस चाहती हैं। महज 13 दिन बाद 30 सितंबर को रक्षा मंत्रालय ने नई रक्षा खरीद नीति 2020 (डीएपी 2020) जारी कर दी जिसमें संशोधित एफडीआई सीमा का जिक्र नहीं था। नई नीति में कहा गया कि किसी कंपनी को भारतीय नागरिक के स्वामित्व वाला माना जाएगा जब उसमें 50 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी भारतीय नागरिक या भारतीय कंपनी के पास होगी। यानी एफडीआई की अधिकतम सीमा 49 फीसदी होगी। डीएपी 2020 में कंपनी अधिनियम 2013 में परिभाषित उपायों का भी हवाला दिया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विभिन्न श्रेणियों में रक्षा निविदाओं में भाग लेने वाली कंपनियों का नियंत्रण भारतीय नागरिकों के हाथ में ही रहे। नीति में कहा गया है, ‘नियंत्रण में अधिकांश निदेशकों की नियुक्ति का अधिकार या प्रबंधन पर नियंत्रण या नीतिगत निर्णयों पर नियंत्रण जिसमें उनकी अंशधारिता या प्रबंधन अधिकार अथवा अंशधारक समझौते या वोटिंग समझौते शामिल होंगे।’
इस विरोधाभास से कुछ सवाल उठते हैं: एफडीआई की सीमा को बढ़ाकर 74 फीसदी करने के पीछे इरादा क्या था? क्या 49 फीसदी विदेशी हिस्सेदारी वाली भारतीय कंपनियों के साथ अलग व्यवहार होगा और 74 फीसदी विदेशी हिस्सेदारी वाली कंपनियों के साथ अलग? अंतरराष्ट्रीय रक्षा कंपनियां भारतीय रक्षा क्षेत्र में 74 फीसदी निवेश क्यों करेंगी जबकि कंपनी को भारतीय माना भी नहीं जाएगा और वे भारतीय कंपनियों के लिए आरक्षित श्रेणी में बोली भी नहीं लगा सकेंगी।
रक्षा एफडीआई नीति सन 2001 में निजी क्षेत्र को मंजूरी के समय से ही उद्देेश्य विहीन नजर आती है। रक्षा और विमानन क्षेत्र में 2001 से अब तक कुल एफडीआई बमुश्किल 3,454 करोड़ रुपये है। इसमें से 2,133 करोड़ रुपये की राशि वित्त वर्ष 2014-15 के बाद आई।
रक्षा मंत्रालय ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि रक्षा क्षेत्र में एफडीआई को उदार बनाकर क्या हासिल किया जाना है। सन 2001 में 26 फीसदी से बढा़कर 2016 में इसे 49 फीसदी किया गया और फिर यह 74 फीसदी तक पहुंचा। एक ओर इसे आधुनिक सैन्य तकनीक को भारत लाने के तरीके के रूप में देखा गया (मंत्रालय ने कहा भी है कि उच्च तकनीक वाली परियोजनाओं में 100 फीसदी एफडीआई की इजाजत होगी) तो दूसरी ओर एफडीआई को उदार बनाने को रक्षा उत्पादन बढ़ाने के तरीके के रूप में भी देखा जा रहा है। भले ही यहां सस्ते और मझोले तकनीकी उपकरण बनें जिन्हें वैश्विक उपकरण निर्माता भारत में श्रम सस्ता होने के कारण बनाएं।
रक्षा एफडीआई को 100 फीसदी तक बढ़ाने को लेकर दी गई दलील इस गलत धारणा पर आधारित है कि रक्षा उद्योग बाजार संचालित है। बल्कि सरकार उच्च गुणवत्ता वाले सैन्य उपकरणों के निर्माण पर कड़ा नियंत्रण रखती है। बल्कि जब कोई रक्षा कंपनी विनिर्माण को भारत स्थानांतरित करने में बेहतरी देखती है तो यह निर्णय भी उसका बोर्ड नहीं भारत सरकार की मंजूरी पर निर्भर है। उन्नत रक्षा क्षमताओं वाले देशों में विधायी ढांचा मसलन अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय शस्त्र व्यापार नियमन आदि रक्षा तकनीक से जुड़े मसले देखते हैं।
रक्षा एफडीआई की सीमा बढ़ाने और उसे 100 फीसदी करने के पीछे दलील यह है कि इससे विनिर्माण को बढ़ाया जा सकता है, रोजगार उत्पन्न किए जा सकते हैं और उत्पादन कौशल में सुधार किया जा सकता है। यह कौशल मध्यम तकनीक वाले उत्पाद मसलन इलेक्ट्रॉनिक सर्किटरी, फ्यूज बॉक्स या विमानों का लैंडिंग गियर बनाने के काम आता है। हम अपनी रक्षा जरूरत का 55-60 फीसदी आयात करते हैं जिसमें अधिकांश रूस, अमेरिका, फ्रांस और इजरायल से खरीदा जाता है। यदि इन देशों की कंपनियों को भारत में पूर्ण क्षमता वाली उत्पादन इकाइयां स्थापित करने दिया जाए तो बड़े ऑर्डर का अहम हिस्सा यहीं बन सकता है। इससे देश में उच्च गुणवत्ता वाली विनिर्माण इकाइयां तैयार होंगी, भले ही स्वामित्व विदेशियों का हो।
ऑफसेट करारों के माध्यम से इस विकल्प को टटोला गया है लेकिन भविष्य की सभी प्रत्यक्ष विदेशी खरीद में यह शर्त जोड़ी जा सकती है कि वे भारत में पूर्ण स्वामित्व वाली इकाई स्थापित करेंगे। देश के रक्षा बाजार में पहुंच को सशर्त बनाया जा सकता है। यानी केवल उनके लिए जो देश में लंबी अवधि तक टिक सकें।
वैश्विक कंपनियों को पूर्ण स्वामित्व वाली या 74 फीसदी स्वामित्व वाली विनिर्माण इकाइयां भारत में स्थापित करने से उच्च प्रतिस्पर्धा का माहौल बनेगा और भारतीय निजी और सरकारी कंपनियां अंतरराष्ट्रीय स्तर के उत्पाद बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगी। शायद इससे देश के रक्षा उद्योग में तेजी आए और सामान्य से अलग उत्कृष्ट उत्पाद तैयार हों।
