राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग ने अपने रहवासियों द्वारा नि:शुल्क वितरित खाद्यान्न के इस्तेमाल को लेकर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े पेश किए हैं। ये आंकड़े कुछ समय पहले के एक सर्वेक्षण से लिए गए हैं और ये दिखाते हैं कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत दिल्ली के कुल लाभार्थियों में से करीब 9 फीसदी अपात्र हैं। 6.5 लाख अपात्र लाभार्थियों में से करीब 96,000 कार मालिक हैं, 89,000 से अधिक को अन्य राज्यों से भी ऐसी ही योजनाओं का लाभ मिल रहा है और करीब 2.8 लाख के पास या तो जमीन है, आयकर चुकाते हैं या फिर वे पंजीकृत कंपनियों के निदेशकों के रूप में काम करते हैं।
पीएमजीकेएवाई के तहत अपात्र लाभार्थियों का अनुपात राष्ट्रीय स्तर पर थोड़ा कम है। देश में 19.2 करोड़ राशनकार्ड जारी हैं। यानी कुल लाभार्थियों की संख्या 76 करोड़ है। जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने हाल ही में प्रकाशित किया, इनमें से करीब 6 फीसदी राशन कार्डधारक अपात्र पाए गए। यह देश की राजधानी की तुलना में बेहतर है लेकिन यह भी किसी उत्सव का विषय तो नहीं ही है। करीब 94.7 लाख राशनकार्ड धारक आयकर चुकाते हैं, इनके अलावा करीब 17.5 लाख के पास अपने चारपहिया वाहन हैं और 5.3 लाख लोग कंपनियों के बोर्ड में निदेशक हैं।
पीएमजीकेएवाई के अंतर्गत पात्रता के नियमों में कहा गया है कि सरकारी कर्मचारियों, सालाना एक लाख रुपये या उससे अधिक आय वाले, चारपहिया वाहनों के मालिकों और आयकरदाताओं के परिवारों को योजना का लाभ नहीं दिया जाए। अंत्योदय अन्न योजना यानी एएवाई के तहत प्रति परिवार प्रति माह 35 किलो अनाज या प्राथमिकता वाले परिवारों को प्रति माह प्रति सदस्य पांच किलो अनाज नि:शुल्क अनाज देने का सिलसिला कोविड के दौर में शुरू किया गया लेकिन 2023 के अंत तक नरेंद्र मोदी सरकार ने इस योजना को दिसंबर 2028 तक बढ़ाने की घोषणा की।
इन पांच सालों के दौरान इसके चलते कुल 11.8 लाख करोड़ रुपये का वित्तीय बोझ पड़ने की बात कही गई यानी सालाना करीब 2.36 लाख करोड़ रुपये। केंद्रीय खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग अब विभिन्न राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम कर रहा है। वह उनसे अनुरोध कर रहा है कि वे अपात्र दावेदारों को चिह्नित करें और उनको अगले महीने के अंत तक बाहर निकालें। परंतु इसके राजनीतिक असर को देखते हुए इस बात की संभावना बहुत कम है कि सितंबर 2025 तक यह काम पूरा किया जा सकेगा।
भारत के आर्थिक सुधारों के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि बहुत कम सरकारों ने अपनी राजनीतिक पूंजी का उपयोग इस उद्देश्य के लिए किया है कि किसी कल्याणकारी योजना के नियमों को सख्ती से लागू किया जाए ताकि उसका लाभ केवल लक्षित समूह को ही मिले। वैसे भी, जनवरी 2024 से शुरू होकर पांच वर्षों तक लगभग 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त खाद्यान्न देने की योजना मूल रूप से एक गलत विचार था। एक ऐसे देश में जहां खुद सरकार के बहुआयामी गरीबी के अनुमान के अनुसार गरीबों की संख्या केवल 21 करोड़ है। अब जबकि यह योजना पहले ही लागू हो चुकी है, लाभार्थियों की सूची को सीमित करने का कोई भी प्रयास अत्यंत कठिन कार्य होगा।
ध्यान रहे कि अपात्र लाभार्थियों को बाहर करने का काम राज्यों को सौंपा गया। राज्य यह शिकायत कर सकते हैं कि योजना की घोषणा और उसे पांच साल के लिए बढ़ाते समय केंद्र सरकार आगे थी। उसने इसका श्रेय लिया लेकिन अब राज्यों को लोगों की नाराजगी झेलनी होगी क्योंकि उनमें से अनेक अक्टूबर 2025 से योजना के तहत लाभ पाने से वंचित हो जाएंगे। अगर राज्य नि:शुल्क खाद्यान्न योजना जारी रखते हैं तो उन्हें इसकी लागत वहन करनी होगी। यह भी एक वजह हो सकती है जिसके चलते शायद राज्य अपात्र लोगों को बाहर करने में उतनी रुचि न लें। एक दिक्कत और हो सकती है। अप्रैल 2025 से बड़ी तादाद में आयकर दाता कर दायरे से बाहर हो गए हैं क्योंकि 12 लाख रुपये तक की सालाना आय वालों को अब कर चुकाने की जरूरत नहीं है। ज्यादा संभावना है कि 94 लाख राशनकार्ड धारकों में से अधिकांश जिन्होंने गत वर्ष आय कर चुकाया हो, वे इस वर्ष कर दायरे से बाहर हो जाएंगे और एक बार फिर खाद्यान्न योजना के पात्र हो जाएंगे।
खाद्य सब्सिडी में कटौती की प्रक्रिया के धीमे क्रियान्वयन का एक और कारण यह है कि इससे खर्च में जो कमी आएगी, वह अपेक्षाकृत बहुत कम होगी। सालाना लगभग 14,000 करोड़ रुपये की बचत, कुल खाद्य सब्सिडी बिल जो कि लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपये है, में कोई बड़ा अंतर नहीं लाएगी। इस स्थिति में, जहां एक ओर मुफ्त खाद्यान्न से वंचित होने वाले लोगों की ओर से राजनीतिक विरोध का खतरा है और दूसरी ओर सरकार को मिलने वाला वित्तीय लाभ बहुत सीमित है, वहां लाभार्थियों की सूची को छोटा करने की दिशा में कोई कार्रवाई न करना एक स्वाभाविक विकल्प बन जाता है।
सरकार को क्या करना चाहिए? अपात्र लाभार्थियों को हटाकर मामूली लाभ हासिल करने के बजाय उसे यह चिह्नित करना चाहिए कि देश कोविड के संकट से उबरा और 80 करोड़ भारतीयों को नि:शुल्क खाद्यान्न मुहैया कराया गया। किसी भी स्थिति में, देश में बहुआयामी गरीबी को घटाकर लगभग 21 करोड़ भारतीयों तक सीमित कर देना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इस उपलब्धि का उपयोग इस बात के लिए किया जाना चाहिए कि मुफ्त खाद्यान्न योजना को केवल उन्हीं लोगों तक सीमित रखा जाए जो वास्तव में इस श्रेणी में आते हैं।
ध्यान रहे, पीएमजीकेएवाई को बंद नहीं करेगी। केवल इसके दायरे को मौजूदा के 25 फीसदी लाभार्थियों तक सीमित किया जाएगा। मौजूदा 75.9 करोड़ लाभर्थियों में से 8.1 करोड़ एएवाई श्रेणी से आते हैं यानी वे सर्वाधिक गरीबों में से हैं। ऐसे में इस योजना को केवल इन लाभार्थियों तक सीमित कर दिया जाना चाहिए। लेकिन अगर सरकार पीएमजीकेएवाई को समय से पहले बंद करने के राजनीतिक विरोध से डर रही है तो उसे हर पात्र परिवार को दिए जाने वाले अनाज की मात्रा काफी कम कर देनी चाहिए।
पहले से ही, पात्रता राशि के संदर्भ में सरकार अंत्योदय अन्न योजना और प्राथमिकता श्रेणी के तहत आने वाले लाभार्थियों के बीच अंतर करती है। एक पुनर्गठित प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना में लाभों को और कम किया जा सकता है या फिर खाद्यान्न आवंटन की जगह उस अनाज की खरीद लागत के बराबर नकद हस्तांतरण किया जा सकता है। ऐसे में यह योजना दिसंबर 2028 तक जारी रखी जा सकती है।
सरकार ने आने वाले दिनों में जिन सुधारों का वादा किया है, पीएमजीकेएवाई में सुधार भी उसी कड़ी में होगा। इससे नि:शुल्क खाद्यान्न योजना अधिक उपयुक्त बन सकेगी और गरीबी में कमी इसमें बेहतर परिलक्षित होगी। इससे सरकार को भी अपने संसाधन बचाने में मदद मिलेगी। इससे खाद्यान्न सब्सिडी में व्यय होने वाली राशि को उन परियोजनाओं में लगाया जाएगा जो देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को मजबूत बनाने में मददगार साबित होंगी।