मीडिया आर्थिक सुधारों से संबंधित अहम पलों को सनसनीखेज तरीके से पेश करता है। मसलन, मुद्र्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण की व्यवस्था लागू करने वाली 20 फरवरी, 2015 या ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) विधेयक पारित होने की 11 मई, 2016 की तारीख। प्रतीकात्मक मील के पत्थरों की तरह ये तारीखें भले ही अहम हैं लेकिन गहराई से देखें तो बड़े सुधार फर्राटा दौड़ न होकर रिले दौड़ होते हैं। उनमें लंबे समय के भीतर विभिन्न संस्थानों एवं व्यक्तियों के सम्मिलित प्रयास शामिल होते हैं। विचारों के विकास एवं संवद्र्धन और समिति प्रक्रिया जैसे अहम घटकों के जरिये यह काम करता है।
समाचारपत्रों ने एक साधारण कहानी के साथ मुद्रास्फीति लक्ष्य-निर्धारण की व्यवस्था लागू होने की खबर दी थी। भारत में मुद्रास्फीति की समस्या अनवरत रही है। 20 फरवरी, 2015 को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के लिए मुद्रास्फीति को निर्धारित दायरे में रखने का लक्ष्य दे दिया गया। लेकिन यह कहानी असल में नब्बे के दशक से ही शुरू हो गई थी और संभवत: 2025 तक जाएगी। प्रचुर पूंजी प्रवाह होने पर आरबीआई ने लंबे समय तक अमेरिकी डॉलर एवं रुपये की विनिमय दर को 31.37 डॉलर प्रति रुपये पर निश्चित किया हुआ था। इसके लिए आरबीआई ने बड़े पैमाने पर डॉलर खरीदे जिससे बाजार में रुपये की भरमार हो गई और मुद्रास्फीति के हालात पैदा हुए।
उस समय आरबीआई के मुखिया रहे सी रंगनाथन और एस एस तारापोर को इन मुश्किलों का बखूबी अहसास था। वे ‘असंभव तिकड़ी’ के अवरोधों को समझते थे: कोई भी देश न तो मौद्रिक नीति स्वायत्तता कायम रख सकता है, न ही अपनी विनिमय दर को संभाल सकता है और न ही उसके पूंजी खाते में खुलापन हो सकता है। उनकी यह रणनीतिक अंतर्दृष्टि थी कि आगे का रास्ता एक खुले पूंजीगत खाते और एक लचीली विनिमय दर से होकर जाता है जिसके साथ मुद्रास्फीति को लक्ष्य के भीतर रख पाने में सफल मौद्रिक नीति भी जरूरी होगी। इन विचारों को फिर आरबीआई के भीतर आत्मसात कर लिया गया।
वर्ष 2007 में पर्सी मिस्त्री समिति ने मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने का सुझाव दिया था। रघुराम राजन समिति ने भी वर्ष 2009 में इसे दोहराया। जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति फरवरी 2006 में 5 फीसदी से ऊपर हो गई तो पिछले वर्षों की समझ ने भविष्य की दृष्टि दी और भारत में मुद्रास्फीति लगातार बना रहने वाला संकट बन गया।
वित्तीय कानूनों में सुधार के लिए न्यायमूर्ति बी एन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में गठित आयोग ने वर्ष 2013 में मौद्रिक नीति समिति के कामकाज से संबंधित प्रक्रिया के बारे में सुझाव दिए थे। इसके अलावा मुद्रास्फीति को कम एवं स्थिर बनाए रखने के लिए आरबीआई को उत्तरदायी बनाने की बात भी कही गई थी। उसके बाद मौद्रिक नीति सुधारों पर गठित ऊर्जित पटेल समिति ने भी इस आमराय की वकालत की।
वित्त मंत्रालय के भीतर दो स्तर वाली रणनीति बनाई गई। नब्बे के दशक के आखिर में लागू अर्थोपाय समझौते के माध्यम से राजकोषीय घाटे का पैसा आरबीआई द्वारा मुहैया कराए जाने पर रोक लगाई गई थी। यह पहले वित्त मंत्रालय एवं आरबीआई के बीच हुआ करार था और बाद में इसने राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम का रूप ले लिया। इसी तरह, मुद्रास्फीति के लक्ष्य निर्धारण की शुरुआत भी पहले आरबीआई एवं वित्त मंत्रालय के बीच मौद्रिक नीति प्रारूप समझौते के जरिये हुई थी। बाद में आरबीआई अधिनियम में संशोधन कर इसे शामिल किया गया।
इसके लिए तकनीकी कार्य 2013 और 2014 में ही कर लिया गया था। फिर 20 फरवरी, 2015 को वित्त सचिव राजीव महर्षि और आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने इस पर हस्ताक्षर किए। उसके बाद आरबीआई अधिनियम 1934 में संशोधन किया गया। इस अधिनियम की प्रस्तावना में आरबीआई के गठन को एक ‘अस्थायी कदम’ बताया गया था। लेकिन फरवरी 2016 में इस बिंदु को हटा दिया गया और आरबीआई को आखिरकार एक मकसद एवं संकल्पनात्मक आधार मिल गया।
मौद्रिक नीति के नए प्रारूप ने तेजी से नतीजे भी दिए। पिछले दशकों में मुद्रास्फीति के मोर्चे पर लगातार मिली नाकामी की जगह कुल मुद्रास्फीति 2-6 फीसदी के दायरे में ही सीमित हो गई। देश के हालिया इतिहास में पहली बार मौद्रिक स्थायित्व पहुंच के भीतर है।
लेकिन इसी समय इसके लिए अभी काफी कुछ करना बाकी है ताकि नीतिगत दर में होने वाले छोटे बदलाव भी अर्थव्यवस्था पर असर डाल पाएं जिससे मुद्रास्फीति पर अधिक नियंत्रण पाया जा सके। इसके लिए बैंकिंग नियमन एवं बॉन्ड बाजार नियमन के सुधारों के लिए सुस्थापित एजेंडे को लागू करने की जरूरत होगी। इस काम में फिर पांच साल लग जाएंगे। अगर यह कारगर होता है तो भारत की मौद्रिक नीति व्यवस्था की गाथा 1934 में आरबीआई को अस्थायी बताने, नब्बे के दशक में इसे मिली स्पष्ट सोच और 2015 में दूसरे दौर के सुधार होने के बाद मुद्रास्फीति निर्धारण प्रारूप को वर्ष 2025 तक पूरी तरह कारगर बनाने तक चलती रहेगी। यह एक लंबा सफर है और सुधारकों की हरेक पीढ़ी आगामी सुधारक को मशाल सौंपती है।
दिवालिया प्रक्रिया संबंधी सुधार में भी यही कहानी है। नब्बे के दशक में भारत के पहली बार बैंकिंग संकट से जूझते समय ऋण वसूली की समस्या उभरकर सामने आई थी। इस दिशा में पहला बड़ा कदम सरफेसी अधिनियम 2002 था जिसने सुरक्षित कर्ज न लौटाए जाने पर कर्जदाताओं को यह अधिकार दिया कि वे गिरवी रखी परिसंपत्ति को बेचकर वसूली कर सकते हैं। रघुराजन समिति ने 2009 में पहली बार एक व्यापक दिवालिया संहिता बनाने की जरूरत पर बल दिया था।
वर्ष 2015 के बजट भाषण में छोटी एवं मझोली इकाइयों के लिए नया दिवालिया प्रारूप लाने का उल्लेख किया गया था। वित्त मंत्रालय ने इसका इस्तेमाल करते हुए एक दिवालिया संहिता के निर्माण की परियोजना शुरू कर दी।
वित्तीय कानूनों में सुधार के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग ने भी ऐसे जटिल नीतिगत मुद्दे को मूर्तरूप देने के लिए नए तरह का भरोसा एवं प्रक्रियागत समझ दी थी। इसने टी के विश्वनाथन की अध्यक्षता में दिवालिया कानून सुधार आयोग की नियुक्ति की बुनियाद तैयार की। विश्वनाथन आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कंपनी अधिनियम में छोटे-छोटे बदलावों की सिफारिश की और अंतिम रिपोर्ट में दिवालिया संहिता का मसौदा पेश किया। कानूनी फर्म विधि और आईजीआईडीआर-एफआरजी के शोधकर्ताओं ने इस कानून का मसौदा तैयार करने में मदद की थी। मई 2016 में यह कानून बन गया।
इसी तरह के कुछ उदाहरण जीएसटी, काला धन निरोधक कानून भी हैं। ये सभी लंबे समय के भीतर महज विचारों से शुरू होकर समितियों की अनुशंसाओं के रास्ते कानून की शक्ल तक पहुंचे हैं। सुधारों की मशाल हमेशा ही एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सौंपी जाती रही है। भारत को आज सभी क्षेत्रों में ऐसे कानूनों की जरूरत है। वित्त और अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में तो खास तौर पर ऐसे विकसित कानून चाहिए।
(लेखक केंद्र सरकार के पूर्व सचिव और फिलहाल एनसीएईआर में प्रोफेसर हैं)