वित्त्तीय वर्ष 2008 के ज्यादातर हिस्से में निर्यातक भयग्रस्त दिखे जिसकी वजह थी कि रुपए का डॉलर की तुलना में ज्यादा से ज्यादा मजबूत होता जाना।
जब इसने 40 रुपए के स्तर को छुआ और पूंजी का प्रवाह जारी रहा तो विशेषज्ञों ने घोषणा की यह रुपया डॉलर की तुलना में 35 रुपए तक पहुंच जाएगा। लेकिन अमेरिका के सब-प्राइम संकट ने इस परिदृश्य को बदलकर रख दिया।
अब डॉलर की तुलना में 46.05 रुपये पर रुपया पिछले एक महीने के दौरान 8.5 फीसदी से भी ज्यादा गिरा है। जुलाई से इसमें 5.5 फीसदी गिरावट आई है जबकि जुलाई में यह डॉलर की तुलना में 43.33 रुपए के स्तर पर था।
सूचना-प्रौद्योगिकी, फार्मा, और टेक्सटाइल्स क्षेत्र के निर्यातक खुश होंगे। इसके बाद इन कंपनियों के राजस्व में बढ़त होने की संभावना है। हालांकि इस खुशी के कुछ ही समय तक टिकने की संभावना है विशेषकर उन कंपनियों को जिनका विदेशी मुद्रा और एफसीसीबी पर एक्सपोजर है।
कंपनियां जिसमें रेनबैक्सी, हिंडाल्को, टाटा मोटर्स और भारत फोर्ज को सितंबर 2008 की तिमाही में ऊंचा मार्क-टू-मार्केट नुकसान हो सकता है। कंपनियां जैसे इंफोसिस जो हर तिमाही के अंत में अपनी मार्क-टू-मार्केट हालातों को बदलती है उन्हें ज्यादा फायदा होने की संभावना है।
टीसीएस जैसी कंपनियों का ज्यादातर हेजिंग नगदी के रुप में किया है इसलिए कंपनी को कम लाभ होने की संभावना है। जून 2008 की तिमाही में कंपनियों के ज्यादा मार्क-टू-मार्केट नुकसान देखे गए। इन कंपनियों में से ज्यादातर ने इन नुकसान को लाभ और लॉस स्टेटमेंट के जरिए जाहिर नहीं किया।
वित्त्तीय वर्ष 2008 में भारत के मुख्य निर्यातकों में टीसीएस, इंफोसिस, सेसा गोवा, एलएंडटी,रेनबैक्सी, डॉ रेड्डीज, अरविंद, हिंदुस्तान जिंक, नाल्को और अदानी रहे। रुपए में आने वाली गिरावट का सबसे ज्यादा फायदा सूचना-प्रोद्योगिकी कंपनियों को होगा। रुपए में आने वाली एक फीसदी की गिरावट से इन कंपनियों का ऑपरेटिंग मार्जिन 0.25 से 0.30 फीसदी सुधरता है।
हालांकि वॉल्यूम ग्रोथ के अमेरिका में चल रहे वित्त्तीय संकट की वजह से धीमी रहने की संभावना है। दूसरे अन्य सेक्टर के लिए भी कुछ अलग कहानी नहीं है। टेक्सटाइल्स कंपनियों जैसे वेलस्पन, गोकलदास को अमेरिका और इंग्लैंड में खुदरा मांग के अनुमान से कम रहने की वजह से मांग में कमी देखनी पड़ सकती है।
हालांकि फार्मा कंपनियों के लिए स्थितियां इतनी मुश्किल नहीं होंगी क्योंकि जेनेरिक दवा कंपनियां तेजी से विदेशी बाजारों में अपनी पहुंच बढ़ा रही हैं। हालांकि रुपए में गिरावट से होने वाला उनका लाभ मार्क-टू-मार्केट लॉस से कम हो सकता है।
दूसरी कंपनियां जैसे सिपला, डॉ रेड्डीज ने अपनी विदेशी विनिमय आय को 42 से 43 रुपए के निचले स्तर के करीब हेज कर रखा है और रुपया इस स्तर पर बना रहता है तो उन्हें नुकसान झेलना पड़ सकता है। इंजीनियरिंग कंपनियां जैसे भेल, एलएंडटी और सुजलॉन हालांकि शुध्द लाभ कमाने वाली कंपनियां हो सकती है। हालांकि आयातित कच्चे माल के लिए ऊंचा मूल्य चुकाया है।
ऑयल रिफायनिंग और तेल का विपणन करने वाली कंपनियां को दबाव का सामना करना पड़ सकता है । विश्लेषकों के अनुसार रुपए में आने वाली प्रति पांच फीसदी की गिरावट से सब्सिडी में 13,100 करोड़ का इजाफा होगा। यदि सरकार और ऑयल बाँड जारी करती है। ऑटो कंपनियों के लिए कच्चे माल के बिल में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी हो सकती है क्योंकि उनमें से ज्यादातर एल्युमिनियम का आयात करती हैं।