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संपत्ति, संयंत्र और उपकरण (पीपीई) के लेखा से जुड़े कुछ ज्वलंत मसले

Last Updated- December 07, 2022 | 7:07 PM IST

प्रॉपर्टी, संयंत्र और उपकरण (पीपीई) ऐसी परिसंपत्तियां हैं जिनका इस्तेमाल कोई कंपनी उत्पादन या प्रशासन के लिए करती है। ये ऐसी संपत्तियां हैं जिन्हें कोई कंपनी अपने कारोबार के दौरान आसानी से बेचने को तैयार नहीं होती।


अगर पीपीई का नाम लें तो इसमें जमीन, बिल्डिंग, मशीनरी, फर्नीचर, गाड़ियां और कंप्यूटर शामिल हैं। पीपीई की एकाउंटिंग के लिए भारतीय जीएएपी (एएस-10) में जिन मौलिक सिद्धांतों का जिक्र है वे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग मानकों (आईएएस-16) के सिद्धांतों से अलग नहीं हैं। पर एएस-10 में जिन सिद्धांतों का उल्लेख है और सूचीबद्ध भारतीय कंपनियां जिस हिसाब से काम करती हैं उनमें काफी अंतर पाया जाता है।

इस वजह से जीएएपी से आईएफआरएस में जाने का दर्द विभिन्न कंपनियों को अलग अलग होता है। हालांकि एएस-10 और आईएएस-16 में कुछ ठोस अंतर है पर उसके बावजूद आईएफआरएस में ट्रांजेक्शन पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है।

आईएफआरएस को लागू करने में सबसे बड़ी समस्या कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग सिद्धांत को लागू करने में होती है। कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग का कहना है कि अगर किसी परिसंपत्ति के विभिन्न पहलू हैं और उनको मूल संपत्ति से अलग किया जा सकता है तो उन्हें उनकी उपयोगिता के आधार पर अलग किया जाना चाहिए।

कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग का उद्देश्य परिचालन को और उम्दा बनाने का है। वापसी के संदर्भ में भी यह एकाउंटिंग के लिए सहूलियत पैदा कराती है। जब किसी कॉम्पोनेंट को वापस किया जाता है तो आय के खाते से बदले गए कॉम्पोनेंट का मूल्य हटा कर वहां उस मूल्य को शामिल कर देना चाहिए जो नए कॉम्पोनेंट का है। यानी कि उस नई संपत्ति को पीपीई के तौर पर शामिल कर लिया जाना चाहिए।

कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग के लिए जरूरी है कि जिस तारीख को किसी संपत्ति को खरीदा गया है उस दिन उस संपत्ति का क्या मूल्य है, उसे शामिल किया जाए। आईएफआरएस के अनुसार कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग को पिछले प्रभाव से ही लागू किया जाना चाहिए।

अलग पहचान देने के लिए किसी संपत्ति को किस हद तक अलग अलग भागों में बांटा जाए ये अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इस बात का निर्धारण करते वक्त पदार्थ की अवधारणा को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। इसे समझने के लिए सबसे आसान तरीका है कि कुल संपत्ति की तुलना में संपत्ति के उस भाग का मूल्य क्या है इसे समझा जाए।

उदाहरण के लिए किसी गाड़ी के इंजन को उस गाड़ी से अलग कर देखा जाना चाहिए क्योंकि गाड़ी की कीमत में एक अच्छा खासा हिस्सा उसकी इंजन का भी होता है। अगर हम अलग भाग के रूप में देखने की इस प्रक्रिया को अपनाएंगे तो ऐसी कई सारी संपत्तियां निकलेंगी जिन्हें मूल संपत्ति से अलग कर देखा जा सकता है।

ऐसा इसलिए क्योंकि उद्योगों में कई सारे ऐसे अवयवों (पीपीई का हिस्सा) का इस्तेमाल किया जाता है जो आपस में मिलकर पीपीई के उत्पादों की एक लंबी सूची तैयार करते हैं। पर अगर कीमत के लिहाज से देखें तो हो सकता है कि ये सारे उत्पाद मिलकर पीपीई के कुल खर्चे का एक खासा हिस्सा न बनते हों।

आईएफआरएस में लेन देन को आसान बनाने के लिए हम एक दूसरा तरीका भी अपना सकते हैं। पदार्थ के मूल्यांकन को दो चरणों में भी पूरा किया जा सकता है। कुल मुनाफा या ईबीआईटी पर उस पदार्थ का क्या असर पड़ता है इसका निर्धारण करना भी एक तरीका हो सकता है, पर यह ध्यान में रखना जरूरी है कि अगर किसी पदार्थ का मूल्य पीपीई के कुल मूल्य से काफी कम है तो उसे शामिल नहीं किया जाए।

ऐसे अवयव जिन पर कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग लागू होता है उन्हें पहचानने के लिए दूसरे चरण में रिलेटिव कॉस्ट तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है। ताकि एकाउंटिंग में पारदर्शिता बनी रहे इसके लिए ऑडिटर्स चाहेंगे कि वे कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग का इस्तेमाल करें। जिन संपत्तियों का अधिग्रहण हाल ही में किया गया हो उनके एकाउंटिंग में भी कोई खास समस्या नहीं होनी चाहिए।

पर अगर शुरुआत से ही पूरी संपत्ति पर कॉम्पोनेंट एकाउंटिंग का इस्तेमाल करने संपत्ति के अलग अलग हिस्सों का मूल्य पता करना थोड़ा मुश्किल जरूर हो जाएगा। हां अगर दो चरणों वाले तरीके को अपनाया जाता है तो मूल्यांकन का समय कुछ कम जरूर हो जाएगा। इस संबंद्ध में इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट ऑफ इंडिया (आईसीएआई) को जरूरी दिशा निर्देश जारी करने चाहिए।

कोई संपत्ति पीपीई में शामिल है या नहीं इसके लिए कोई कंपनी आईएएस-16 के तहत कॉस्ट मॉडल या फिर पुनर्मूल्यांकन मॉडल का इस्तेमाल कर सकती है। अगर कंपनी पुनर्मूल्यांकन मॉडल का इस्तेमाल करती है तो उसे यह ध्यान में रखना जरूरी है कि बैलेंस शीट में उस संपत्ति के मौजूदा भाव का जिक्र किया गया हो। पुनर्मूल्यांकन कितनी बार किया जाए इसका उल्लेख आईएएस-16 में नहीं किया गया है।

एएस-10 इस बात की इजाजत तो देता है कि पीपीई का पुनर्मूल्यांकन किया जाए पर यह नहीं मानता कि कॉस्ट मॉडल का यह कोई वैकल्पिक रास्ता है। इस तरह भारतीय जीएएपी के अनुसार कोई कंपनी थोड़े थोड़े समय पर संपत्ति का पुनर्मूल्यांकन कर सकती है और साथ ही कॉस्ट मॉडल को भी अपनाए रख सकती है।

आईएफआरएस-1 भी इस बात की अनुमति देता है कि जिन कंपनियों ने पहले अपनी संपत्तियों का पुनर्मूल्यांकन किया है वे भी कॉस्ट मॉडल का इस्तेमाल कर सकें। ऐसे में फिर से आंके गए मूल्य को ही कंपनी का अधिग्रहित मूल्य माना जाएगा। पर अगर कंपनी पुनर्मूल्यांकन मॉडल को अपनाती है तो उसे बैलेंस शीट तारीख पर भी संपत्ति के मूल्य का मूल्यांकन करना पड़ेगा।

ऐसे में जिन कंपनियों ने पहले पीपीई का मूल्यांकन किया है उनके लिए भी आईएफआरएस के तहत लेन देन मुश्किल नहीं होगा। कंपनी ऐक्ट के अनुच्छेद 15 में अवमूल्यांकन के निर्धारण की दर और तकनीक का जिक्र किया गया है और इसके जरिए बांटने योग्य मुनाफे या फिर मुनाफे का आकलन किया जा सकता है।

आईसीएआई और सरकार का भी यह मानना है कि कंपनी जब अवमूल्यन का आकलन करती है तो वह उस रकम के बराबर या उससे अधिक होनी चाहिए जो अनुच्छेद 15 के तकनीक से आकलन करने से प्राप्त होती। अगर सरकार अनुच्छेद 15 को जारी रखने का निर्णय लेती है तो वित्तीय स्टेटमेंट बनाने में इसका महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि तब आईएफआरएस को लागू किया जा चुका होगा।

First Published - September 1, 2008 | 1:26 AM IST

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