दवा उद्योग में ‘मुफ्त में उपहार’ देने का रिवाज अपनी जड़ें गहरी जमा चुका है। कारोबार बढ़ाने के लिए मुफ्त में डिनर से लेकर दवाएं तक दी जाती हैं। बरसों से फल फूल रहे इस गोरखधंधे में दवा निर्माता कंपनियां डॉक्टरों को ‘उपहार’ देती हैं और इसके बदले में डॉक्टर संबंधित दवा कंपनी के ब्रांड को बढ़ावा देता है।
क्या इस खराब गठजोड़ को खत्म करने का कोई रास्ता दिख रहा है?
यह मामला हाल में लोकप्रिय दवा ‘डोलो’ के निर्माता माइक्रो लैब्स के बेंगलूरु स्थित परिसर में आयकर छापे के बाद फिर तूल पकड़ने लगा है। इससे यह मांग फिर जोर पकड़ने लगी है कि दवाई निर्माण क्षेत्र पर यूनिफार्म कोड ऑफ फार्मेस्युटिक्ल मार्केटिंग प्रैक्टिस (यूसीपीएमपी) आचार संहिता को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाया जाए। इस आचार संहिता को औषधि कंपनियों की विपणन के तरीकों पर अभी लागू किया जाना बाकी है।
सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका में अनुरोध किया गया है कि सरकार यूसीपीएमपी को सांविधिक आधार पर लागू करने का निर्देश जारी करे। इस प्रस्तावित निर्देश से यूसीपीएमपी को प्रभावी, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। फेडरेशन ऑफ मेडिकल ऐंड सेल्स रिप्रजेंटेटिव्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रमेश सुंदर ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि सरकार बीते कई सालों से यूसीपीएमपी को लागू करने से अपने कदम पीछे खींच रही है। यूसीपीएमपी में दवा बनाने वाली कंपनियों को दवा के प्रचार-प्रसार के लिए क्या किया जाना है या नहीं, मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स की भूमिका आदि की आचार संहिता तय की गई है। सुदंर ने कहा ‘यह कंपनियों के लिए स्वैच्छिक आचार संहिता है और कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।
यदि दवाई के ब्रांड का अनैतिक रूप से प्रचार करने के मामले में डॉक्टर, कंपनियां दोषी पाए जाते हैं तो उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत रिश्वत या अन्य अनैतिक कार्रवाइयों आदि के लिए निर्धारित जैसी कार्रवाइयां की जाएं।’ इस मामले में न्यायालय केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए समय दे चुका है। इस क्षेत्र पर करीब नजर रखने वाले लोग इस मामले पर कई सालों से नजर रख रहे हैं। यूसीपीएमपी के मुद्दे पर रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के तहत आने वाले औषधि विभाग और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में खींचतान जारी है।
ऑल इंडिया ड्रग्स एक्शन नेटवर्क (एआईडीएएन) की सह-समन्वयक मालिनी ऐसोला ने आरोप लगाया कि औषधि विभाग की उद्योगों से मिलीभगत है। इसलिए कंपनियों के लिए यूसीपीएमपी अनिवार्य रूप से बाध्यकारी नहीं हो पा रहा है। फार्मास्यूटिकल एसोसिएशनों से इस स्वैच्छिक आचार संहिता लागू को लागू करने के लिए कहा गया है। इन एसोसिएशनों के पास कोई शक्ति नहीं है और न कंपनियों को दंडित करने की प्रक्रिया में पहल करने का अधिकार है।’ ऐसोला ने कहा कि पिछले प्रयास के दौरान कानून मंत्रालय ने औषधि विभाग को आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कार्रवाई करने की कानूनी संस्था बनने के प्रयास को व्यावहारिक नहीं करार दिया था। इसके बाद से औषधि विभाग ने वैकल्पिक संहिता के तर्क को आगे बढ़ाकर कंपनियों की है।
हालांकि इसके प्रमाण हैं कि वैकल्पिक आचार संहिता पूरी तरह विफल है। उन्होंने कहा, ‘न्यू ड्रग्स, मेडिकल डिवाइसेज एक्ट एंड कास्मेटिक एक्ट के तहत नैतिक मार्केटिंग और संवर्द्धन के दायरे लाया जाना चाहिए। इसके लिए हम निरंतर रूप से सिफारिशें कर चुके हैं। इससे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय नोडल मंत्रालय बन जाएगा और उसके पास प्रशासन से संबंधित वैधानिक उपबंधों की शक्तियां हस्तांतरित हो जाएंगी। यह बदलाव औषधि मंत्रालय नहीं चाहता है। औषधि मंत्रालय इस मामले में अपनी लाइसेंस और परमिट की शक्ति को नहीं छोड़ना चाहता है।’
यूसीपीएमपी को लागू करना क्यों मुश्किल?
माइक्रो लैब्स के मामले ने डॉक्टरों को अपने पर्चे में उनकी दवाओं को लिखने के लिए धन और मुफ्त में उपहार देने के असहज सच को उजागर किया है। फार्मा कंपनी के एक सेल्स एक्जीक्यूटिव ने कहा ‘ज्यादातर औषधि निर्माता कंपनियां ब्रांड को याद रखने वाली उपहार देती हैं। जैसे पेन स्टैंड, कलैंडर, डायरी या सेनेटाइजर आदि। इसका ध्येय यह होता है कि डॉक्टरों को ब्रांड का नाम याद रहे। भारत के बाजार में मूल्यों पर नियंत्रण है। इसलिए यहां पर अंतर केवल ब्रांड का है और इसलिए ऐसे उपहार देना सामान्य प्रचलन में है।’ उन्होंने कहा कि मुफ्त में उपहार देना यह तय नहीं करता है कि डॉक्टर अपने पर्चे पर उनके ब्रांड की दवाई को ही लिखेगा। यह मार्केटिंग का एक तरीका है। इसे अन्य क्षेत्रों ने भी अपना रखा है। इसे लागू किया जाना कठोर कदम होगा। एक्जीक्यूटिव ने दलील यह भी दी ‘आमतौर पर 95 प्रतिशत से अधिक उपहारों की कीमत 500 रुपये से कम रहती है। इसलिए इसे ‘रिश्वत’ नहीं कहा जा सकता है। इसका मकसद केवल यह होता है कि डॉक्टर एक जैसे दाम वाली 100 दवाओं में उनके ब्रांड का नाम याद रखे।’
एक अन्य एक्जीक्यूटिव ने कहा ‘डाक्टर भी अपना नाम लोकप्रिय करने की कवायद में लगे हुए हैं। जैसे वे जर्नल में अपने लेख छपवाने या नामचीन कॉन्फ्रेंस में संबोधित करने के लिए के लिए मदद मांगते हैं। यदि डॉक्टर समय निकाल कर कॉन्फ्रेंस को संबोधित करने के लिए आता है तो उसे सलाह देने की फीस मिलती है। आमतौर पर वरिष्ठ डॉक्टर या जो बहुत अच्छे वक्ता होते हैं, उन्हें बतौर स्पीकर चुना जाता है। लेकिन कंपनियां ऐसे कॉन्फ्रेंस के लिए कई डॉक्टरों के समूह को रखती हैं। उद्योग ने अपने पक्ष में यह तर्क दिया कि यह ज्ञान को बढ़ावा देने और ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए किया जाता है। लेकिन डॉक्टरों को बहुत महंगे उपहार जैसे लैपटॉप आदि दिए जाने के मामले सुनाई नहीं देते हैं। ऐसोला ने कहा कि आमतौर पर डॉक्टर क्लीनिकल परीक्षणों में जांच का नेतृत्व करते हैं या समिति के सदस्य होते हैं। इसके लिए उन्हें फीस दी जाती है।
ऐसोला ने कहा ‘अब यूसीपीएमपी का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। हमने सरकार को सुझाव दिया है कि कंपनियां को डॉक्टरों और पेशेवर संगठनों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष या अन्य तरीकों से किए जाने वाले भुगतान का खास अवधि में खुलासा किए जाना अनिवार्य किया जाए। इसके तहत यह भी खुलासा शामिल किया जाए कि इसका मूल्य क्या है, इस खर्च का ध्येय क्या है और इसका भुगतान किस पक्ष ने किया है।’
1 हजार करोड़ देने का आरोप खारिज किया
दवा कंपनी माइक्रो लैब्स ने बुखार और शरीर के दर्द की रोकथाम में इस्तेमाल होने वाली अपनी दवा ‘डोलो 650’ को बढ़ावा देने के लिए चिकित्सकों को 1,000 करोड़ रुपये के उपहार देने संबंधी आरोपों को निराधार बताया है।
एक गैर सरकारी संगठन ने गुरुवार (18 अगस्त) को उच्चतम न्यायालय को बताया कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने बेंगलूरु की दवा कंपनी पर चिकित्सकों को 1,000 करोड़ रुपये के उपहार देने के आरोप लगाए हैं जिससे कि वे मरीजों को परामर्श में यह दवा लिखें। माइक्रो लैब्स के प्रवक्ता ने एक बयान में कहा कि मीडिया में आई कुछ खबरों में ऐसा निराधार आरोप लगाया गया है कि ‘डोलो 650’ को बढ़ावा देने के लिए कंपनी ने एक साल में 1,000 करोड़ रुपये के मुफ्त उपहार वितरित किए हैं। प्रवक्ता ने कहा कि यह दावा पूरी तरह से भ्रामक है और इससे माइक्रो लैब्स, दवा उद्योग और चिकित्सकों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंच रही है।