दुनिया भर में युद्ध से जुड़े रक्षा हथियारों के आयात-निर्यात में वर्ष 2000-10 के दशक की तुलना में 2011 से 2024 के दशक के बीच अच्छी खासी बढ़ोतरी देखी गई है। वैश्विक सुरक्षा से जुड़े आंकड़ों पर शोध करने वाली संस्था स्टॉकहोम इंटरनैशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में हथियारों की खरीद फरोख्त में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
बिज़नेस स्टैंडर्ड ने सिपरी के आंकड़ों का विश्लेषण किया जिसके मुताबिक, वैश्विक हथियार बाजार में अमेरिका का दबदबा अब भी बरकरार है और उसने हथियारों के बलबूते वर्ष 2023 में 316.75 अरब डॉलर की कमाई की है। अमेरिका की हथियारों से हुई कमाई दूसरे स्थान पर रहे चीन को हथियारों से मिले कुल राजस्व के तीन गुना से भी अधिक है। इन आंकड़ों के एक दिलचस्प रुझान के मुताबिक प्रमुख सैन्य शक्ति होने के बावजूद, चीन के हथियार आयात में 47 प्रतिशत कमी आई है जो रक्षा क्षेत्र में उसकी बढ़ती घरेलू क्षमता और आत्मनिर्भरता के संकेत देती है।
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल विनोद जी. खंडारे ने वर्ष 2000 से ही वैश्विक हथियारों के आयात-निर्यात में वृद्धि का श्रेय चीन के रक्षा से जुड़े विनिर्माण क्षेत्र में आई तेजी को दिया है जिसके कारण उन देशों को एक विकल्प मिला है जो पहले अमेरिका पर निर्भर थे।
उन्होंने कहा, ‘इसके कारण दक्षिण पूर्व एशिया में चीन के हथियारों की बिक्री बढ़ी और यूरोप के रक्षा हथियार उत्पादकों की बाजार हिस्सेदारी कम हो गई। दरअसल चीन उन देशों में बिक्री पर जोर दे रहा है जहां हथियारों का आयात करने की होड़ है और यह अमेरिका के रक्षा हथियारों की बिक्री के मॉडल से अलग है।’
सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल वी.के. चतुर्वेदी अमेरिका और चीन के बीच हो रही इस प्रतिस्पर्द्धा को एक वैचारिक टकराव के रूप में देखते हैं जिसके मुताबिक अमेरिका एकध्रुवीय विश्व के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाना चाहता है जबकि चीन का जोर बहुध्रुवीयता पर है।
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भारत दुनिया का प्रमुख हथियार आयातक देश है जिसके आयात में एक दशक के दौरान 104 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। एशिया क्षेत्र में होने वाले कुल हथियार आयात में भारत की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत है। लेफ्टिनेंट जनरल खंडारे ने चीन की बढ़ती नौसैनिक क्षमता को अमेरिका के समुद्री रक्षा क्षेत्र के प्रभुत्व के लिए एक चुनौती बताया है। वह कहते हैं, ‘चीन के रक्षा क्षेत्र की संरचना में एक रणनीतिक बदलाव देखा जा रहा है जिसमें सेना के कर्मियों को नौसेना में स्थानांतरित करना और नौसेना का अनुभव एवं परिचालन दक्षता बढ़ाने के लिए वैश्विक समुद्री डकैती विरोधी अभियानों का इस्तेमाल करना शामिल है।’
भारत ने इस बीच अपने पारंपरिक साझेदार रूस के अलावा अन्य हथियार आपूर्तिकर्ता देशों से जुड़कर भागीदारी में विविधता लाने की कोशिश की है। भारत की प्रमुख रक्षा खरीद में रूस की एस-400 मिसाइल प्रणाली, फ्रांस के राफेल जेट और अमेरिका के चिनूक हेलीकॉप्टर शामिल हैं। इसके अलावा एयरबस-टाटा जैसे घरेलू उत्पादन के लिए भी समझौते हुए हैं।
लेफ्टिनेंट जनरल चतुर्वेदी जहां मिसाइलें, तोप, गोला-बारूद, टैंक, विमान और नौसैनिक जहाजों के बढ़ते उत्पादन के साथ भारत के आत्मनिर्भर होने की बात पर जोर देते हैं वहीं लेफ्टिनेंट जनरल खंडारे कहते हैं कि ‘मेक इन इंडिया’ के प्रयास दिखने के बावजूद तकनीकी जानकारी और कच्चे माल तक की उपलब्धता में कई बाधाओं के कारण भारत का पूरी तरह आत्मनिर्भर होना अब भी मुश्किल है।’
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वैश्विक रुझानों के अनुरूप, दक्षिण एशिया में हथियारों के आयात में तेज वृद्धि देखी गई है। भारत और पाकिस्तान दो सबसे प्रमुख खरीदार बने हुए हैं, जिसमें पाकिस्तान के हथियार आयात में 74 प्रतिशत की महत्त्वपूर्ण वृद्धि देखी गई है। लेफ्टिनेंट जनरल खंडारे पाकिस्तान के रक्षा क्षेत्र की प्रगति की बात स्वीकारते हुए कहते हैं, ‘पाकिस्तान के पास आजादी के बाद के दौर में कोई आयुध कारखाने नहीं हुआ करते थे लेकिन अब वहां 14 ऐसे कारखाने हैं।’
वैश्विक हथियार उद्योग में लगातार बदलाव आ रहे हैं, जो भू-राजनीतिक तनावों और संघर्षों के कारण बने हैं। अमेरिका अब भी इस दौड़ में सबसे आगे है और इसकी प्रमुख कंपनियां लॉकहीड मार्टिन और आरटीएक्स बाधाओं के बावजूद शीर्ष पायदान पर जमी हुई हैं। यूरोप में हथियारों से मिलने वाले राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जिसमें ब्रिटेन (47.68 अरब डॉलर), फ्रांस (25.53 अरब डॉलर), इटली (15.21 अरब डॉलर) और जर्मनी (10.67 अरब डॉलर) जैसे देश सबसे आगे रहे।
भारत की रक्षा कंपनियों हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स ने वैश्विक रैंकिंग में अपनी स्थिति सुधारी है, जो ‘मेक इन इंडिया’ पहल और निर्यात के लिए बढ़े उत्साह को दर्शाता है।