RBI के गवर्नर संजय मल्होत्रा | फाइल फोटो
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई सरकारी नीति निर्धारक सार्वजनिक रूप से पढ़ाई के जमाने के अपने कैम्पस अनुभव और पेशेवर जीवन के बारे में खुलकर बात करे और इस दौरान मिले तजुर्बे, सफलता और नाकामियों को विस्तार से साझा करे। लेकिन, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर संजय मल्होत्रा ने छात्र जीवन से लेकर देश का शीर्ष अफसरशाह बनने तक की अपनी अब तक की यात्रा पर खुल कर बात है। पुरानी यादें और मौजूदा पेशेवराना सफर के अनुभव साझा करने के लिए उस प्रतिष्ठित संस्थान यानी आईआईटी कानपुर से बेहतर जगह और कोई नहीं हो सकती थी, जहां से उन्होंने 36 साल पहले कंप्यूटर साइंस ऐंड इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया था।
आईआईटी-कानपुर के 58वें दीक्षांत समारोह में बोलते हुए बीते वक्त की यादों में खोए मल्होत्रा ने कहा, ‘मुझे आईआईटी में अपना पहला दिन अब भी अच्छी तरह याद है जब मेरी मां मुझे एक अन्य बैचमेट के साथ कैंपस छोड़ने आई थीं। मुझे हॉल नंबर III और फिर हॉल नंबर I के अपने दिन, हॉल II और हॉल III के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा, फट्टा क्रिकेट, बल्ला, कैम्पस में रेड रोज़ रेस्टोरेंट और शहर में चुंग फा रेस्टोरेंट में आयोजित हुए विभिन्न सेलिब्रेशन, एल7 में फिल्में और वह डीईसी 10 लाइब्रेरी जिस पर हमें बहुत गर्व था… सब कुछ बहुत अच्छी तरह याद है।’
उन्होंने कहा, ‘स्टील का वह बक्सा, जिसमें मेरा सामान आईआईटी आया था और जिसे मेरी पत्नी ने आज तक संभाल कर रखा है, वह अब भी मेरे पास है।’ मल्होत्रा ने पिछले साल 11 दिसंबर को भारतीय रिजर्व बैंक के 26वें गवर्नर के रूप में पदभार संभाला था। अपनी मौजूदा भूमिका से पहले वे वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग में सचिव (डीओआर) थे। राजस्थान कैडर के 1990-बैच के भारतीय सिविल सेवा (आईएएस) अधिकारी मल्होत्रा ने एक अफसरशाह के रूप में भी अपने अनुभव साझा किए।
साल 2007-08 में राजस्थान सरकार में कार्मिक विभाग के सचिव के रूप में अपने शुरुआती कार्यकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि स्टेट सिविल सर्विस से आईएएस में प्रमोशन विवादों और अदालती मुकदमों से भरी थी और लगभग 20 सालों तक किसी को भी आईएएस में प्रोन्नत नहीं किया गया था।
उन्होंने कहा, ‘इस दिशा में काम शुरू किया और जैसे ही हम पदोन्नति के लिए बैठक बुलाने वाले थे, एक अधिकारी दोबारा अदालत चला गया और उसे स्टे भी मिल गया। उस स्थिति में मेरी महीनों की मेहनत बेकार चल गई और मैं निराश हो गया।’
कुछ सालों के बाद अदालत ने स्टे हटा दिया और उनसे पूछा गया कि क्या वह अपने शुरू किए गए काम को अंतिम रूप देने में रुचि रखते हैं।
उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, ‘दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है। मैंने इस बार यह चुनौती स्वीकार नहीं की। इस पर मुझे एहसास हुआ कि मैंने अपने कर्म का पालन इसलिए नहीं किया, क्योंकि मुझे असफलता का डर था। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मुझे परिणामों की परवाह किए बिना पूरी मजबूती और निर्णायक ढंग से अपने कर्म का पालन करना चाहिए था।’
उन्होंने कहा कि यह काम दूसरे अधिकारी ने पूरा किया और इन प्रयासों के लिए उन्हें स्टेट अवार्ड से सम्मानित किया गया। ब्यूरोक्रेट से सेंट्रल बैंकर बने इस शख्स ने भरोसे के महत्त्व का भी जिक्र किया और बताया कि कैसे कैंटीन उन्हें पूरी उदारता के साथ उधार दे देती थी।
उन्होंने कहा, ‘सत्यनिष्ठा और उसूल दो ही चीजें, जिन पर चलकर किसी में भरोसा जगाया जा सकता है। किसी का भरोसा हासिल करना कोई आसान बात नहीं है। इसके लिए एक नेतृत्वकर्ता में कड़े फैसले लेने का साहस होना चाहिए।’