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जलवायु परिवर्तन के बीच दुधारू पशु की तैयार होगी नई नस्ल, NDRI ने जीन में फेरबदल कर विकसित किया भ्रूण

‘इस प्रकार जीन में फेरबदल के जरिये नए नस्ल के पशुओं से दुग्ध उत्पादन शुरू होने में 4 से 5 साल लगते हैं। उसके बाद हमें पता चल पाएगा कि वह नस्ल जलवायु के प्रति कितना अनुकूल है।

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संजीब मुखर्जी   
Last Updated- September 04, 2024 | 11:10 PM IST

Gene-edited cattle: जलवायु के अनुकूल पशुधन विकसित करने की दिशा में भारत एक कदम और आगे बढ़ गया है। करनाल के राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) ने जीन में फेरबल (जीन-एडिटिंग) के जरिये ऐसा भ्रूण विकसित किया है जिससे तैयार पशुधन प्रतिकूल मौसम में भी पर्याप्त दुग्ध उत्पादन सुनिश्चित कर सकता है।

इसके लिए प्रतिष्ठित संस्थान एनडीआरआई जारी शोध अब अगले चरण में पहुंच जाएगा जहां भ्रूण को कटड़ी (पड़िया) के रूप में विकसित करने के लिए किसी भैंस में डाला जाएगा। शोधकर्ताओं ने क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट्स (सीआरआईएसपीआर) तकनीक के जरिये जीन में फेरबदल किया है। यह तकनीक जीन में लक्षित बदलाव के लिए किसी भी डीएनए अनुक्रम में सटीक फेरबदल करने में समर्थ बनाती है।

एनडीआरआई के निदेशक धीर सिंह ने संवाददाताओं से कहा, ‘भ्रूण के विकसित होकर कटड़ी पैदा होने और उसके बाद उसे दूध देने की अवस्था तक पहुंचने के बाद ही हमें पता चल पाएगा कि उसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता जलवायु परिवर्तन के अनुकूल है या नहीं।’

सिंह ने बताया कि कोई पशु सामान्य परिस्थितियों में भ्रूण से दूध देने की अवस्था तक पांच साल में पहुंच सकता है। अब भ्रूण विकसित हो चुका है और उसे किसी भैंस के गर्भाशय में प्रतिरोपित जाएगा। उसके बाद भ्रूण को कटड़ी के रूप में विकसित होने में करीब एक साल का समय लगेगा। कटड़ी के जन्म के बाद उसे परिपक्व होने में 2 से 3 साल और लगेंगे। उसके बाद गर्भधारण और दुग्ध उत्पादन में एक साल और लगेगा।

सिंह ने बताया, ‘इस प्रकार जीन में फेरबदल के जरिये नए नस्ल के पशुओं से दुग्ध उत्पादन शुरू होने में 4 से 5 साल लगते हैं। उसके बाद ही हमें पता चल पाएगा कि वह नस्ल जलवायु के प्रति कितना अनुकूल है।’

सिंह ने कहा कि ‘थारपारकर’ जैसी गाय की कुछ नस्लें प्राकृतिक रूप से गर्मी के प्रति सहनशील होती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण उनके दुग्ध उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ता है। अगर उनके इस गुण के लिए जिम्मेदार जीन की मैपिंग की जाए तो उसका उपयोग उन मवेशियों में किया जा सकता है जो जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते हैं।

थारपारकर नस्ल की गाय आम तौर पर राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है। दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश भारत लगातार जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। इससे दुधारू पशुओं की उत्पादकता में कमी आ रही है।

इस बीच, एनडीआरआई ने सीआरआईएसपीआर तकनीक के जरिये बीटा लैक्टोग्लोबुलिन (बीएलजी) जीन को लक्षित करने वाले जीन के साथ भ्रूण भी विकसित किए हैं। इस शोध का उल्लेख नेचर समूह की एक प्रतिष्ठित पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में किया गया है। बीएलजी जीन दूध के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह जीन विशेष रूप से अन्य दुग्ध प्रोटीन के साथ अंतःक्रिया को प्रभावित करता है और मनुष्यों में एलर्जी का कारण बनता है। यह प्रोटीन मानव दूध में नहीं होता है। दुनिया भर में करीब 3 फीसदी नवजात बच्चे दूध में बीएलजी के कारण एलर्जी से पीड़ित हैं।

First Published : September 4, 2024 | 10:56 PM IST