आज से पांच साल पहले 25 मार्च, 2020 को भारत में कोविड-19 वैश्विक महामारी के प्रकोप को रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन लगाने की घोषणा की गई थी। लॉकडाउन के कारण पूरा देश थम सा गया था। मगर कोविड वैश्विक महामारी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के लिए एक परीक्षा भी थी। उसने स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की खामियों को उजागर किया और तमाम देशों को तैयारियों पर नए सिरे से विचार करने पर मजबूर किया।
मगर लॉकडाउन के पांच साल बीत चुके हैं और अब यह आकलन करने का बिल्कुल उपयुक्त समय है कि भारत भविष्य में ऐसे किसी अन्य स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए कितना तैयार है। कोविड-19 के प्रकोप ने शुरुआत में ही स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया था। उस दौरान यहां के अस्पतालों में काफी अफरा-तफरी मची थी, ऑक्सीजन की किल्लत के कारण कई मरीजों की जान चली गई और अत्यधिक बोझ तले दबे कर्मचारियों को अपने कामकाज में तालमेल बिठाने में काफी संघर्ष करना पड़ा। मगर बाद में सरकार खास तौर पर अपने टीकाकरण अभियान के साथ इन चुनौतियों से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार दिखी।
लेकिन बाद के वर्षों में स्वास्थ्य सेवा पर सरकार के खर्च में काफी कमी दर्ज की गई। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत में सार्वजनिक स्वास्थ्य मद में सरकारी व्यय 2019-20 के 1.2 फीसदी से बढ़कर 2021-22 में 1.5 फीसदी हो गया था, लेकिन 2022-23 में यह घटकर 1.3 फीसदी रह गया। यह मामूली वृद्धि मुख्य तौर पर राज्य सरकारों द्वारा संचालित थी। स्वास्थ्य सेवा मद में राज्य सरकारों का व्यय 2019-20 में जीडीपी के 0.9 फीसदी से बढ़कर 2020-21 में जीडीपी का 1.1 फीसदी हो गया।
वही स्तर 2024-25 तक बना हुआ है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए केंद्र सरकार के आवंटन में लगातार कमी दर्ज की गई और वह जीडीपी के 0.32 फीसदी से घटकर महज 0.28 फीसदी रह गया है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो स्वास्थ्य सेवा मद में अधिकतर विकसित देशों का आवंटन उनके जीडीपी के 6-10 फीसदी के दायरे में है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में 2025 तक स्वास्थ्य सेवा मद में व्यय को कम से कम जीडीपी के 2.5 फीसदी तक बढ़ाने की परिकल्पना की गई थी। शुरू में इसके लिए 2022 का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। मगर स्वास्थ्य सेवा व्यय में स्थिरता के साथ भारत अपने लक्ष्यों को हासिल करने में पिछड़ गया क्योंकि निवेश में भारी वृद्धि के बिना 2025 के लक्ष्य को पूरा करना संभव नहीं है। पर्याप्त रकम आवंटित न किए जाने से स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में हासिल प्रगति को भी पटरी से उतर जाने की आशंका है।
स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों की कमी एक अन्य गंभीर चिंता का विषय है। साल 2020 में भारत में प्रति 1,000 लोगों पर महज 0.7 डॉक्टर उपलब्ध थे। मगर 2024 में भी यह आंकड़ा मामूली वृद्धि के साथ 0.79 हो गया जो अभी भी 1.6 से 2.5 के वैश्विक औसत से काफी कम है। जर्मनी और जापान जैसे देशों में प्रति 1,000 लोगों पर 4 से अधिक डॉक्टर हैं। इससे भारत में डॉक्टरों की कमी का साफ तौर पर पता चलता है।
भारत की कमजोर तैयारियों का एक सबसे स्पष्ट संकेतक अस्पताल में बिस्तरों की उपलब्धता है। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार, भारत में 2021 में प्रति 1,000 लोगों पर अस्पताल के 1.6 बिस्तर उपलब्ध थे जो 2014 के आंकड़े 1.7 से भी भी कम है। इसके विपरीत चीन ने अपनी क्षमता में काफी विस्तार किया है। वहां 2020 तक प्रति 1,000 लोगों पर 5 बिस्तर उपलब्ध थे। करीब दो दशक पहले यानी 2005 में भारत और चीन दोनों की स्थिति लगभग एक जैसी थी जहां प्रति 1,000 लोगों पर 1.9 बिस्तर उपलब्ध थे। मगर बाद के वर्षों में चीन ने काफी प्रगति की लेकिन भारत के अस्पताल के बिस्तरों की संख्या घटती गई।
भारत में आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (ओओपीई) में भी गिरावट दर्ज की गई है। यह स्वास्थ्य सेवा हासिल करते समय परिवारों द्वारा सीधे तौर पर किए गए भुगतान मद का व्यय है। साल 2021-22 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमानों के अनुसार, ओओपीई 2017-18 में 48.8 फीसदी था जो घटकर कुल स्वास्थ्य व्यय का 39.4 फीसदी रह गया।
इसके बावजूद भारत का ओओपीई वैश्विक मानकों से काफी अधिक है। उदाहरण के लिए, कई यूरोपीय देशों में ओओपीई कुल स्वास्थ्य सेवा व्यय का 20 फीसदी से भी कम है। ब्रिटेन और कनाडा जैसे मजबूत सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वाले देशों में यह आंकड़ा 15 फीसदी से भी कम है। सरकार की प्रमुख स्वास्थ्य योजना ‘आयुष्मान भारत’ का 70 वर्ष से अधिक उम्र के सभी बुजुर्गों तक विस्तार किए जाने से ओओपीई में और कमी आई है।
बहरहाल पिछली वैश्विक महामारी से मिली सबक ने स्वास्थ्य सेवा में लगातार निवेश किए जाने की आवश्यकता पर चर्चा को बढ़ावा दिया है। वैश्विक रुझानों से पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवा मद के व्यय बढ़ रहा है। ऐसे में अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को मजबूत करने संबंधी भारत की क्षमता भविष्य में किसी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिए उसकी तैयारियों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण होगी।