वैश्विक वित्तीय बाजारों में नकदी के भारी संकट के चलते भारतीय इक्विटी बाजारों की पूंजी में कमी आई है। बाजारों का लुढ़क कर रेकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाना इसी का नतीजा है।
निकट भविष्य में इसमें तेजी की संभावनाएं कम हैं। इसकी वजह क्या है, भारतीय बाजार की प्रतिक्रिया ऐसी क्यों रही और ऐसी हालत में क्या करना चाहिए- शेयरों में निवेश करने वालों के दिमाग में आजकल ये ही सवाल सबसे जोरदार तरीके से घुमड़ रहे हैं।
भारतीय इक्विटी बाजार के जाने-माने नाम और बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सदस्य रमेश दामाणी ने विशाल छाबड़िया और जितेन्द्र कुमार गुप्ता को दिए साक्षात्कार में अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में बातचीत की।
संकटग्रस्त वित्तीय बाजारों और भारत पर पड़ने वाले उनके असर के बारे में आपका क्या खयाल है?
यह काफी गंभीर और सदियों में होने वाली घटनाओं में से एक है। कुछ ऐसा ही साल 1980 में हुआ था जब डाउ जोंस में गिरावट आने के बाद वैश्विक बाजारों में भी गिरावट आई थी और फिर उभरते बाजार और तथा अन्य परिसंपत्ति वर्ग भी इससे अछूते नहीं रहे थे।
दो वजह सामने आती हैं- एक तो नियंत्रण का अभाव और दूसरा अमेरिकी शैली का लोकतंत्र। लेनिन इस कहावत को बहुत पसंद करते थे, ‘एक पूंजीवादी आपको रस्सी बेचेगा जिसके सहारे आप उसे फांसी देने जा रहे हैं।’ पश्चिमी वित्तीय संस्थानों ने भी ऐसा ही किया है। अपने ही सामान के बिल से उन्होंने खुद को फांसी पर लटकाया है।
क्या यह संकट एशियाई अर्थव्यस्था को भी निगल जाएगा?
यह पहले से ही ऐसा कर रहा है और एशियाई बाजारों में भी गिरावट आ रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि ताइवान, हांगकांग और चीन में निर्मित उत्पादों का सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका है।
इस बारे में कोई दो राय नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था घरेलू कारकों से चलती है और कुछ हद तक सुरक्षित है, लेकिन मैं आपको बताऊं कि जब कभी समांतर क्षति जैसी स्थिति होती है तो आपको सभी बाजारों में अफरा-तफरी देखने को मिल सकती है। इसलिए इसका कुछ हिस्सा समांतर नुकसानों का है और कुछ की वजह हमारे अपने बाजारों की अति है।
भारतीय नजरिये से हम इस चक्र में कहां हैं?
हम किसी ऐसे देश का उदाहरण लेते हैं जो आर्थिक चरणों की अवधि से गुजरता है। हम ऐसे चरण में प्रवेश कर रहे हो सकते हैं जहां अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बढ़िया रहेगा। इस साल विकास की दर 6 से 6.5 की जगह 5 प्रतिशत रह सकती है। इसलिए अर्थव्यवस्था के विकास की दर 5 प्रतिशत होना कोई बुरी बात नहीं है खास तौर से जब विश्व की विकास दर 2 प्रतिशत ही हो।
लेकिन शेयर बाजार के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए, निवेशकों को इन दो अलग-अलग बातों का खयाल रखना चाहिए। अर्थव्यवस्था का बेहतर प्रदर्शन जारी रहेगा लेकिन इसकी जानकारी बाजार को पहले से है।
उदाहरण के लिए, हिन्दुस्तान लीवर के प्रत्येक शेयर की कीमत 330 रुपये थी, बीस साल बाद बाज भी उसकी कीमत 240 रुपये है। इसलिए कई अच्छे शेयरों की कीमत तय कर दी जाती है और फिर आने वाले कई वर्षों तक उनमें गिरावट का दौर जारी रहता है। इनमें कोई संबंध नहीं है कि अगर अर्थव्यवस्था अच्छा करती है तो बाजार का प्रदर्शन भी बेहतर होना चाहिए।
आप शेयरों, बॉन्ड आदि का चयन करेंगे या फिर इससे अलग परिसंपत्ति वर्ग जैसे सोने का?
हरेक साल किसी विशेष परिसंपत्ति वर्ग का प्रदर्शन बेहतर रहा है जैसे 70 के दशक में जापानी शेयरों का प्रदर्शन बढ़िया रहा, 80 के दशक में अमेरिका के बाजार में तेजी रही, 90 के दशक में तकनीकी शेयरों का प्रदर्शन अघ्छा था और बाद में उभरते बाजारों के शेयर स्टार रहे। इसलिए प्रत्येक दशक एक खास परिसंपत्ति वर्ग के लिए खास रहा।
एक परिसंपत्ति वर्ग जिसने काम नहीं किया, वह है नकदी और बाजार में तरलता के संकट को देखते हुए मेरा मानना है कि इस समय नकदी ज्यादा लाभ दे सकती है। इसलिए जिनके पास नकदी होगी, वे अत्यंत कम कीमत पर परिसंपत्तियां खरीद पाएंगे।
निवेशकों को मेरी सलाह है कि उन्हें अपने पोर्टफोलियों में कम से कम 20 से 30 प्रतिशत नकदी रखनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वैकल्पिक निवेश के तौर पर मैं पोर्टफोलियो में 2 से 5 प्रतिशत सोना रखने की सलाह दूंगा। हालांकि, किसी भी निवेशक को यह समझना चाहिए कि सोना एक ऐसी परिसंपत्ति है जिसमें कोई लाभांश नहीं दिया जाता है और इसमें निवेश बनाए रखने की कीमत चुकानी होती है।
अभी कमोडिटी शेयरों के बारे में आपका क्या नजरिया है?
कमोडिटी के शेयर दीर्घकालिक नजरिये से निवेश के लिए ज्यादा उपयुक्त नहीं हैं। मेरा मानना है कि वैश्विक विकास में कमी आएगी और इसलिए कमोडिटी की मांगों में भी गिरावट आएगी। तेल हो या जस्ता या तांबा, सब में मंदी आएगी।
वैश्विक स्तर पर मांग में कमी का दौर चल रहा है। कुछ समय पहले तक हम महंगाई को लेकर चिंतित थे लेकिन अब सबसे अधिक चिंता अवस्फीति की है। बड़ी बात यह है कि अवस्फीति के दौरान जिंसों का प्रदर्शन बेहतर नहीं होता है।