पिछले सप्ताह आईसीआईसीआई बैंक के बारे में अफवाहें किसी विस्फोट की तरफ फैल गई, जिसकी वजह बैंक की ब्रिटेन की सहायक कंपनी का अमेरिकी लीमन ब्रदर्स में बॉन्ड्स के जरिये निवेश मानी जा रही थी। बैंक के एटीएम पर जितनी लंबी कतारें लगी हुई थीं, कुछ उतनी ही बार गूगल सर्च इंजन पर ‘आईसीआईसीआई हुआ दिवालिया’ लिखा गया था। चीजें तब शांत हुई जब आरबीआई और वित्त मंत्री की ओर से विश्वास जगाने वाली बातें कही गईं।
आईसीआईसीआई का नकद सुरक्षित अनुपात आरबीआई की ओर से जारी दिशा–निर्देशों से भी अधिक 9 प्रतिशत है। इसलिए अगर जमादाता अपने पैसों का कुछ हिस्सा भी वापस चाहते तो दौड़–भाग निश्चित थी। इस तरह की परिस्थितियों में अफवाहें अपने कद से भी आगे बढ़ जाती हैं। अगर एक एटीएम में किसी भी एक मौके पर पैसे कम पड़ जाएं, जो आम दिनों में भी हो सकता
है, तो लोगों में अफरा–तफरी और दहशत
फैल जाती है।
आईसीआईसीआई बैंक ने गुजरात में 2003 में भी ऐसी ही स्थिति का सामना किया था। हालांकि उससे शेयर बाजार पर बहुत बड़ा मात्रा में शेयर बेचने का दबाव नहीं बना था। इस बार जो दहशत फैली तो आईसीआईसीआई बैंक लीमन ब्रदर्स के दिवालिया होने की चपेट में घिर गया, जिसकी वजह से शेयर की कीमतों में तेज गिरावट देखी गई।
भारतीय बैंक हमेशा से अनिश्चितताओं में टूटते नजर आए हैं। इसकी मुख्य वजह सहकारी बैंक हैं, जिनमें नियमन बहुत कम हैं। 1992 और 2000 दोनों घोटालों की जड़ों में सहकारी बैंक शामिल थे। राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण सहकारी बैंकों पर इतनी नजर नहीं रखी जाती, इसलिए उनमें व्याप्त गंदगी या भ्रष्टाचार को साफ कर पाना मुश्किल है। इस तरह की संस्थाओं पर जब भी नियामक सख्ती की जाती है, तो इसका जबरदस्त विरोध होता है।
भारतीय रिजर्व बैंक अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों पर अधिक नियंत्रण पर निगरानी रखता है। जब भी अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों में घोटाला होता है तो उस पर कभी नियंत्रण नहीं रखा जा सका। ग्लोबल ट्रस्ट या सेंचुरियन के मामले में कमजोर संस्था को बिना किसी दहशत के उसका विलय किया गया है।
हालांकि अगले वित्त वर्ष में आरबीआई को अपने नियामक कौशल का इस्तेमाल कई बार करना पड़ सकता है। कारोबार के लिहाज से मुश्किल होती परिस्थितियों के कारण डिफॉल्टरों की संख्या बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप आगे समेकन और विलय हो सकते हैं। निवेशकों को इस क्षेत्र के बढ़िया श्ेयरों को चुनना होगा।
पिछले चार सालों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की अद्भुत रफ्तार देखी गई। 1969 में कम ब्याज दरें इसकी एक वजह थी। बैंकों को अपनी इच्छानुसार दरें तय करने देने के कारण बैंक रिटेल फाइनैंसिंग के क्षेत्र में उतरे और उन्होंने लोकप्रिय फ्लोटिंग दरों वाले कर्ज की पेशकश दी। कई बैंकों ने अपनी सहायक शाखाओं के जरिये वित्तीय सेवाओं की व्याप्त शृंखला पेश की और बीमा, म्युचुअल फंड और प्रतिभूतियों के कारोबार की भी सुविधाएं दीं। इसे शुल्क आधारित आय बढ़ी और गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) में कमी हुई।
अब हम कारोबारी चक्र के दूसरी ओर हैं। जल्द ही दरें सबसे ऊपरी स्तर पर पहुंच सकती हैं, लेकिन कर्ज के लिए मांग अभी काफी गिर रही है। औद्योगिक एनपीए बढ़ रही हैं। रिटेल लेनदार पर फ्लोटिंग दरें बढ़ने की वजह से करारी मार पड़ रही है और वे अधिक ईएमआई चुकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कारोबारियों जिन्होंने अपने कारोबार के विस्तार के लिए सस्ते कर्ज लिए थे अब उन्हें मुनाफा कमाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। कर्ज न चुका पाने की स्थिति में क्रेडिट कार्ड, निजी कर्ज
और आवासीय कर्ज के डिफॉल्टरों की
संख्या बढ़ रही है। यह चलन आगे भी बना रह सकता है।
जब तक यह चक्र और ब्याज दरें नीचे नहीं आ जातीं, बैंकिं क्षेत्र के आगे भी कम मूल्यांकन का सामना करने की आशंकाएं हैं। बेसल 2 नियमों के तहत अगले दो साल में कई बैंकों को टीयर 1 पूंजी बढ़ाने की जरूरत पड़ेगी। इसका मतलब बैंकों की इक्विटी कम होगी और उन पर कम मुनाफे का दबाव बनेगा।
बैंकिंग पूरी अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिनिधित्व का काम करता है, लेकिन इसमें जोखिम काफी अधिक है। जनवरी के मध्य में 10,755 के स्तर से बैंक निफ्टी जुलाई में 4,635 के स्तर तक पहुंच गया जो कि 57 प्रतिशत की गिरावट है, जबकि निफ्टी 40 प्रतिशत लुढ़का था। निफ्टी को देखते हुए बैंकिंग क्षेत्र की यह गिरावट काफी अधिक है। बैंकिंग क्षेत्र की औसत पीई जनवरी में 27+ से घटकर अक्टूबर में 13 हो गया।
लेकिन बैंक मूल्यांकन के लिए यहां अलग–अलग प्रणालियां हैं। एक तरफ एसबीआई (10.5), पीएनबी (6.8) और बैंक ऑफ बड़ौदा (7) जैसे सार्वजनिक बैंक हैं ये अक्सर इकाई के आंकड़े में पीई में कारोबार करते हैं। इसी दौरान निजी बैंक जैसे एक्सिस (24), एचडीएफसी बैंक (33) और आईसीआईसीआई (18) हैं जिनकी पीई आमतौर पर अधिक लगभग 20 के करीब रहता है।
निजी बैंक सार्वजनिक बैंकों के मुकाबले डिफॉल्ट के मामलों में अधिक फंसते हैं। हमें ऐसी भी स्थितियों के गवाह बन सकते हैं, जहां मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक बैंकों की कीमतें बरकरार रहेंगी, जबकि अधिक मूल्यांकन वाले निजी बैंकिंग क्षेत्र में कीमतें गिरती हुई देखी जाएंगी।