अब तक बैंक रिटेल और छोटे व मझौले उद्योग (एसएमई) के डिफाल्ट को लेकर चिंतित था। लेकिन वैश्विक मंदी के भारत पर असर के रूप में अब उन्हें कंपनियों के डिफाल्टर होने का अंदेशा सता रहा है।
इस स्थिति से निपटने के लिए बैंक चौकन्नी हो गई हैं। वे इस मंदी का किसी क्षेत्र या फिर अपने क्लाइंट पर पड़ने वाले वाले प्रभावों केअध्ययन में जुट गई हैं। वे ऑपरेशन और रीपेमेंट के लिए प्लॉन बी तैयार करने पर विचार कर रही हैं।
मंदी का प्रभाव वैश्विक स्तर के साथ भारतीय उद्योग के कुछ निश्चित से धड़े पर पड़ रहा है। इससे कमाई में कमी आ सकती है। साथ ही फंड की लागत में हुए इजाफे से कंपनी को अपने डेट पेमेंट ऑब्लिगेशन को पूरा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
स्टैट बैंक ऑफ इंडिया के एक कार्यकारी ने बताया कि लाभप्रदता को लेकर चिंताएं बढ़ीं हैं। कुछ कंपनियों को कैश फ्लो में कमी आने की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। इससे डिफाल्टरों की संख्या बढ़ सकती है।पिछले पांच से सात सालों में बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज का प्रोफाइल बदल गया है और अब पूंजी व्यय के लिए अधिक राशि स्वीकृत की गई है।
इस बारे में एक सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक में जोखिम प्रबंधन से जुड़े मामले देखने वाले एक वरिष्ठ कार्यकारी ने बताया कि इस बदले प्रोफाइल से एसेट लायबिलिटीज में अंतर बढ़ा है। क्योंकि संसाधन छोटी अवधि के लिए जुटाए जा रहे हैं जबकि कर्ज लंबी अवधि के लिए होते हैं।
इसके साथ ही जब लांग टर्म प्रोजेक्ट के लिए कैश फ्लो की समस्या होती है तो इसका सीधा असर बैंक पर पड़ता है। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल को अंदेशा है कि क्रेडिट की क्वालिटी पर डाउनवर्ड दबाव बढ़ सकता है। इसका तत्काल असर अधिक दबाव रियल एस्टेट क्षेत्र पर पड़ेगा।
इसके साथ कपड़ा, आईटी और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग की कमी का असर दिखाई देने लगा है। हालांकि टेलीकॉम और पावर में मांग धीमी पड़ने की संभावना सबसे कम है। अपने इस आकलन को ध्यान में रखकर बैंकें असुरक्षित कंपनियों से बात करके उनकी कैश फ्लो की स्थिति को समझना चाहती हैं और आगे होने वाली दिक्कत को पहले ही चिन्हित कर लेना चाहती हैं।
आंध्रा बैंक के एक कार्यकारी के अनुसार यह कसरत स्थिति को समझने और भविष्य में निर्मित होने वाली स्थितियों का सामना करने के लिए तैयार रहने के लिए की जा रही है। हालांकि बैंक ऐसा कुछ नहीं करना चाहती जिससे लगे कि अर्थव्यवस्था को लेकर कोई गंभीर समस्या है।
बैंक ऑफ इंडिया के कार्यकारी निदेशक बीए प्रभाकर ने बताया कि सब यह मानकर चल रहे हैं कि मंदी के कारण कंपनियों के विकास की दर आकलन से कम है। उन्होंने आगे कहा कि अभी तक कोई ऐसा ट्रेंड साफ नहीं है जिससे पता चले कि कंपनियों में जोखिम बढ़ रही है। पर इसको लेकर बैंक पूरी एहतियात बरत रहीं हैं ताकि उन्हें एकाएक किसी स्थिति का सामना न करना पड़े।
इस समय पूरी दुनिया में 50 फीसदी से अधिक का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या तो मंदी का शिकार है या फिर धीमा पड़ता जा रहा है। इसका असर उन भारतीय कंपनियों पर पड़ रहा है जो पूरी तरह से निर्यात केंद्रित हैं या फिर उनका यूरोप और अमेरिका को एक्सपोजर अधिक है।
एक बैंक के कार्यकारी के अनुसार इससे कमाई पर बुरा असर पड़ सकता है और कंपनियां लोन की पेमेंट को रीशेडयूल करने का निवेदन कर सकती हैं।इस बारे में सबसे बड़ी बात यह होगी कि कंपनियां डिफाल्टर हो जाएं।