आपने बहुत ज्यादा सख्ती के जोखिमों का हवाला देते हुए रीपो रेट में बढ़ोतरी को विराम देने के पक्ष में मतदान किया था। पिछले नीतिगत बयान के बाद महंगाई दर तेजी से बढ़ी। क्या अब आपके रुख में बदलाव आया है?
विराम देने के पक्ष में जाने की मुख्य वजह यह थी कि वैश्विक मंदी की मौजूदा स्थितियों हम उचित संकुचित वास्तविक दर पर पहुंच गए थे। अगर कोई क्षणिक गिरावट या तेजी आती है तो इससे स्थिति नहीं बदलती है। महंगाई ऊपर जाने का जोखिम हो सकता है, लेकिन नीचे आने के भी जोखिम हैं।
आपने कहा है कि वास्तविक नीतिगत दर में बढ़ोतरी का महंगाई से ज्यादा असर वृद्धि पर पड़ता है। अगर मौद्रिक नीति सख्त की जाती है तो आप वित्त वर्ष 24 की वृद्धि पर कितने असर का अनुमान लगा रही हैं?
रिजर्व बैंक की वृद्धि की दर का अनुमान खपत में वृद्धि और निवेश पर निर्भर है, क्योंकि निर्यात कम हो रहा है। राजकोषीय घाटे को कम करने की कवायद से सरकार का व्यय भी कुल मिलाकर कम होगा। निजी खपत और निवेश ब्याज दर से जुड़ा हुआ है और इसमें गिरावट आती है तो वृद्धि 5 प्रतिशत कम हो सकती है।
क्या रुपये में उतार-चढ़ाव को लेकर चिंता का असर एमपीसी के फैसलों पर पड़ रहा है?
रुपये में उतार-चढ़ाव एमपीसी के विषय क्षेत्र में नहीं आता है। नीतिगत दरों में बढ़ोतरी से रुपये के उतार-चढ़ाव में कमी नहीं आएगी, क्योंकि भारत के मामले में देखें तो ऋण की आवक सीमित है। अगर संभावित महंगाई दर में तेज कमी आती है, तब भी एमपीसी को कदम उठाने पड़ते हैं।
बढ़ती महंगाई दर को देखते हुए मौद्रिक और राजकोषीय फैसलों के बीच तालमेल के लिए और क्या किए जाने की जरूरत है?
तालमेल इसलिए जरूरी है, क्योंकि राजकोषीय नीति जिंसों की महंगाई के मामले में ज्यादा प्रभावशाली है। नीतिगत दरों में बढ़ोतरी से व्यापक स्तर पर उत्पादन घटता है, क्योंकि यह मांग को घटाने का काम करता है। कई महीने से भारत के कच्चे तेल के बॉस्केट की लागत कम है, लेकिन खुदरा कीमत नहीं कम की गई है। चुनिंदा जिंसों पर उत्पाद शुल्क घटाने की जरूरत है, जिनकी वजह से महंगाई बढ़ी है। लागत घटाने और उत्पादकता में सुधार के लिए दीर्घावधि कदम उठाए जाने जरूरी हैं।