बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियां पेटेंट निरोधक दवाइयों का जो निर्माण कर रही है उसके दाम को निर्धारित करने में मुश्किलें आ रही है।
इस पर एक सरकारी समिति कुछ आर्थिक अनुशंसा कर रही है और इसके लिए एक अनिवार्य मूल्य प्रणाली अपनाने जा रही है।इस कदम से कंपनियां बहुत आहत हो सकती है क्योंकि ये कंपनियां भारत और विकासशील देशों की क्रय शक्ति को ध्यान में रख कर एक औसत दामों का निर्धारण करती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तरह की आवश्यक मूल्य प्रणाली की व्यवस्था होनी चाहिए।
नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग आथॉरिटी (एनपीपीए) द्वारा आयोजित कॉन्फ्रेंस में भाग लेने वाले विशेषज्ञों ने कहा कि ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन दामों का निर्धारण देश को ख्याल में रख कर करती है लेकिन यह दाम रोगियों के लिए उचित नही होता है। ये कंपनियां इन कम आमदनी वाले देशों में भी उच्च अधिकतम मूल्य स्तर की संभावना रखती है ताकि अगर इसे डिस्काउंट कीमतों पर भी बेचा जाए तो ज्यादा अंतर न पड़े।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मेडिकल ऑफिसर रिचर्ड लेंग कहते हैं कि मैं सापेक्ष मूल्य प्रणाली का समर्थन नही करता हूं। समान अर्थव्यवस्था वाले पांच देशों के औसत के आधार पर मूल्य निर्धारित करना कतई उचित नही है। इन दामों से रोगियों की क्रय शक्ति का पता लगाना मुश्किल है। लेंग कहते हैं कि दवाओं के दामों के निर्धारण की बहुत सारी प्रणाली है।
सभी ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन)देश, अमेरिका को छोड़कर, पेटेंट दवाओं का नियंत्रण करती है। ऑस्ट्रेलियाई मॉडल के तहत फार्मास्युटिकल बेनिफिट्स एडवाइजरी कमिटी (पीबीएसी) दामों के निर्धारण के पहले इन दवाओं की गुणवत्ता का मूल्यांकन करती है।
जबकि दवा नियंत्रक दवाओं की मार्केटिंग को मंजूरी देती है। पीएबीसी दवाओं के दामों की घोषणा करती है। विशेषज्ञ कहते हैं कि जर्मनी में इन पेटेंट दवाओं के मूल्यों का निर्धारण इसकी चिकित्सा संबंधी महत्व को देखने के बाद किया जाता है।