देश की बड़ी आईटी कंपनी टीसीएस (TCS) में हाल ही में हुए बड़े पैमाने पर छंटनी ने न सिर्फ टेक इंडस्ट्री को हिला दिया है, बल्कि दूसरे सेक्टरों में भी चिंता की लहर दौड़ गई है। नौकरी जाने का डर तो है ही, लेकिन उससे भी बड़ी चिंता है। हर दिन का तनाव, जो हर कर्मचारी को किसी न किसी रूप में झेलना पड़ रहा है। डेडलाइन का दबाव, टारगेट पूरे करने की दौड़, खुद को साबित करने की जद्दोजहद, उम्मीदों पर खरा उतरने की मजबूरी, और कई जिम्मेदारियों को एक साथ निभाने का तनाव… ये लिस्ट खत्म होने का नाम नहीं ले रही।
कई बार ये मानसिक दबाव इस कदर हावी हो जाता है कि इंसान टूट जाता है। पिछले महीने पुणे में एक पब्लिक सेक्टर बैंक के 52 वर्षीय चीफ मैनेजर ने सुसाइड कर लिया। उन्होंने अपने नोट में वर्कप्लेस प्रेशर को जिम्मेदार ठहराया। एक साल पहले इसी शहर में एक चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्ना सेबेस्टियन की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी। आरोप था कि उन्हें अत्यधिक वर्कलोड और ऑफिस के तनाव ने मौत के कगार पर पहुंचा दिया।
उनकी पहली पुण्यतिथि पर पिता सिबी जोसेफ ने ‘अन्ना सेबेस्टियन इनिशिएटिव’ की शुरुआत की, जिसका मकसद युवाओं को कॉरपोरेट दुनिया की हकीकतों के लिए मानसिक रूप से तैयार करना है। जोसेफ ने बताया, “वो बहुत उम्मीदों के साथ नौकरी में आई थी, लेकिन हम उसे एक जहरीले वर्क कल्चर में खो बैठे।”
इस घटना ने राजनीतिक बहस भी छेड़ दी, जिसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले में जांच के आदेश दिए।
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यह समस्या सिर्फ प्राइवेट सेक्टर तक सीमित नहीं है। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन के वाइस प्रेसिडेंट श्रीनाथ इंदुचूदान ने बताया कि सरकारी बैंक भी कर्मचारियों की आत्महत्या की घटनाओं से जूझ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पिछले कुछ सालों में कई बैंक कर्मियों ने काम के तनाव में अपनी जान दी है। कुछ ने तो अपने वर्कप्लेस पर ही ऐसा कदम उठाया।
उनका कहना है कि सरकार की EASE रिफॉर्म्स के चलते कई पदों पर भर्ती रुकी हुई है, जिससे बैंक शाखाओं में कर्मचारियों की भारी कमी है। नतीजतन, अधिकारियों को रोज 12–14 घंटे तक काम करना पड़ता है। खराब परफॉर्मेंस रिव्यू और मनमाने तबादलों के चलते हालात और भी बिगड़ जाते हैं। इंदुचूदान का दावा है कि पिछले 10 साल में 500 से ज्यादा बैंककर्मियों ने आत्महत्या की है।
CIEL HR Services की हालिया रिपोर्ट बताती है कि BFSI (बैंकिंग, फाइनेंशियल सर्विसेज और इंश्योरेंस), कंसल्टिंग और अकाउंटिंग जैसे क्षेत्रों में करीब 50% कर्मचारी हर हफ्ते 50 घंटे से ज्यादा काम करते हैं। काम का बोझ इतना ज्यादा है कि 38% कर्मचारी नई नौकरी की तलाश में हैं। कंपनी के CEO आदित्य नारायण मिश्रा ने कहा, “इन क्षेत्रों में पैसा और प्रतिष्ठा तो है, लेकिन तनाव भी बेहद ज्यादा है। बर्नआउट अब कभी-कभार नहीं, बल्कि एक नियमित समस्या बन चुका है।”
TeamLease Services के CEO कार्तिक नारायण ने कहा कि BFSI सेक्टर में आई सुस्ती के चलते कर्मचारियों पर दबाव और बढ़ गया है। उन्होंने कहा कि दिमागी और भावनात्मक मदद की सुविधा तो मौजूद है, लेकिन असली तनाव अभी भी कम नहीं हुआ है। उनके मुताबिक, ऑफिस में बढ़ती जनरेशन गैप भी कामकाज के तरीके और आपसी तालमेल में टकराव पैदा कर रही है। उन्होंने कहा, “आज जब लोगों की निजी जिंदगी भी जटिल हो चुकी है, तो काम की जगह पर सहानुभूतिपूर्ण रवैया जरूरी है,”
अब कुछ कंपनियां इस समस्या को लेकर जागरूक हो रही हैं। प्रमैरिका लाइफ इंश्योरेंस ने ‘स्वस्थुम’ नाम से एक हेल्थ प्रोग्राम शुरू किया है, जिसमें दिमाग, शरीर और भावनाओं की सेहत का ख्याल रखा जाता है। इस प्रोग्राम में ध्यान लगाने की आदत, मोबाइल से कुछ समय दूर रहने की सलाह, काउंसलिंग की जानकारी और टीम के साथ अच्छा तालमेल बनाने जैसी बातें शामिल हैं। कंपनी के HR प्रमुख शरद शर्मा कहते हैं, “तनाव धीरे-धीरे बढ़ता है। जब बार-बार थकावट हो, चिड़चिड़ापन आए या काम में मन न लगे, तो समझना चाहिए कि ये तनाव के शुरुआती संकेत हैं।” Pramerica की एक और नीति है “फैमिली फर्स्ट”, जो कर्मचारियों को परिवार के साथ समय बिताने के लिए प्रेरित करती है। शर्मा कहते हैं, “मैनेजरों को सिर्फ काम के नतीजे नहीं देखने चाहिए, बल्कि यह भी समझना चाहिए कि कर्मचारी कैसा महसूस कर रहा है।”
टाटा स्टील ने हाल ही में एक नई “वेलनेस पॉलिसी” शुरू की है, जो शरीर, दिमाग, सामाजिक रिश्तों और पैसों से जुड़ी सेहत का ख्याल रखती है। अब कंपनी ने अपने कर्मचारियों की भलाई को मापने के लिए “इमोशनल वेलनेस स्कोर” को भी अपनी रणनीति में शामिल कर लिया है। मानसिक सेहत को बेहतर बनाने के लिए कंपनी ने YourDOST जैसे प्लेटफॉर्म के साथ मिलकर काउंसलिंग की सुविधा शुरू की है। अब यह सेवा ठेका कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए भी उपलब्ध है। इसके अलावा, कंपनी ने “सेल्फ-अप्रूव्ड लीव” की सुविधा दी है, जिसमें कर्मचारी बिना किसी झंझट के ज़रूरत पड़ने पर खुद ही छुट्टी ले सकते हैं।
इन सारी पहलों के बावजूद, भारत की ज्यादातर कंपनियां आज भी तनाव को किसी की निजी परेशानी मानती हैं, न कि एक सिस्टम से जुड़ी समस्या। लेकिन अब जो घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, उन्होंने ये बात साफ कर दी है कि सिर्फ “वेलनेस डे” मनाने या “मेडिटेशन ऐप” देने से बात नहीं बनेगी। अगर कंपनियां सच में कुछ बदलना चाहती हैं, तो उन्हें अपने काम करने के तरीके में गहराई से बदलाव लाना होगा। ऐसा माहौल बनाना होगा जहां मानसिक सेहत, इंसान की इज्जत और उसके काम को पूरी अहमियत दी जाए। यही असली और जरूरी बदलाव होगा।