भारतीय लेनदारों ने फ्यूचर रिटेल (Future Retail) के लिए सर्वाधिक बोली लगानी वाली स्पेस मंत्र प्राइवेट से कंपनी के लिए 550 करोड़ रुपये की अपनी पेशकश को बेहतर बनाने के लिए कहा है, क्योंकि इसे बढ़िया नहीं माना जा रहा है।
दिवालिया कंपनी के खिलाफ स्वीकार किए गए 19,400 करोड़ रुपये के दावों पर लेनदार को 97 फीसदी की भारी कटौती करनी होगी।
मामले की जानकारी रखने वाले एक सूत्र ने कहा, ‘हम सबसे ऊंची बोली लगाने वाले के साथ बातचीत कर रहे हैं और उसे प्रस्ताव को बेहतर बनाने के लिए कह रहे हैं, क्योंकि लेनदारों के लिए वसूली 3 फीसदी से कम है।’
सूत्र ने कहा, ‘यह लेनदारों के लिए एक खराब सौदा है, जिन्होंने कंपनी के खिलाफ 21,000 करोड़ रुपये का दावा किया था। मगर समाधान करने वाले पेशवर ने सिर्फ 19,400 करोड़ के दावे को स्वीकार किया। आईबीसी मामलों से यह कटौती सर्वाधिक में से एक होगी।’
बैंक को नुकसान लगने वाली राशि को हेयरकट कहते हैं। स्पेस मंत्र को इस बाबत भेजे गए ई-मेल का कोई जवाब नहीं मिला।
किशोर बियानी की कंपनी द्वारा बैंकों और आपूर्तिकर्ताओं को कर्ज नहीं चुकाने के बाद पिछले साल अक्टूबर में दिवाला और दिवालियापन संहिता (IBC) 2016 के तहत कर्ज समाधान के लिए भेजा गया था।
इस साल अप्रैल में 49 कंपनियों ने इसके अधिग्रहण के लिए रुचि पत्र भेजी थी, लेकिन बाद में लगभग सभी पीछे हट गईं। 49 में से महज छह कंपनियों मुख्य रूप से कबाड़ का कारोबार करने वालों ने बाध्यकारी पेशकश भेजी।
वैश्विक महामारी से पहले ही फ्यूचर समूह की कंपनियों का संकट शुरू हो गया था। अगस्त 2020 में, समूह ने रिलायंस रिटेल के साथ 24,700 करोड़ रुपये के लेनदेन की घोषणा की। इसके तहत समूह की सभी कंपनियों को एक इकाई के तहत विलय कर रिलायंस में शामिल होना था। हालांकि, इस लेनदेन को बाद में लेनदारों ने अस्वीकृत कर दिया और कंपनियों को आईबीसी के तहत ऋण समाधान के लिए भेजा गया।
उल्लेखनीय है कि फ्यूचर समूह (Future Retail) में वित्तीय संकट से ठीक पहले समूह ने कर्ज, शेयर और हिस्सेदारी की बिक्री के माध्यम से अप्रैल से दिसंबर 2019 के बीच 4,620 करोड़ रुपये (62.27 करोड़ डॉलर) जुटाए थे। इनमें से 1,750 करोड़ रुपये ब्लैकस्टोन ने निवेश किया था और 590 करोड़ रुपये निजी इक्विटी फर्म अपोलो ने कर्ज के रूप में दिए थे।
एक शोध कंपनी रेड के अनुसार, आयन और यूबीएस ने भी बियानी की प्रवर्तक कंपनी में कर्ज के रूप में 500 करोड़ और 350 करोड़ रुपये का निवेश किया था।
निजी इक्विटी फर्मों से जुटाई गई राशि की लागत काफी अधिक थी। कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को दी गई जानकारी के अनुसार, इन कर्जों का मूल्य निर्धारण शुल्क चार साल की अवधि में 26.5 फीसदी प्रति वर्ष था। इस कारण ही यह कर्ज चुकाने में देरी हुई और बाद में दिवालियापन का कारण बन गई।