केंद्र सरकार ने हाल ही में खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 5 से 12.7 फीसदी तक बढ़ा दिया है, जिसमें तिहलन व दलहन की कीमतों में मोटे अनाज की तुलना में ज्यादा बढ़ोतरी की गई है।
किसानों को अधिक पानी खपत वाली फसल धान की ओर से दलहन और तिलहन की ओर मोड़ने के मकसद से यह कदम उठाया गया है। साथ ही यह भी अपेक्षा की गई है कि उत्पादन बढ़ने से आयात बिल में कमी आएगी। बहरहाल पिछले कुछ वर्षों में इस रणनीति का मिला-जुला असर रहा है।
आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2014-15 से 2022-23 के दौरान धान के समर्थन मूल्य में 50 फीसदी बढ़ोतरी के बावजूद उसका रकबा 8.43 फीसदी ही बढ़ा है। इस अवधि के दौरान गेहूं का समर्थन मूल्य 46.55 फीसद बढ़ा है, जबकि गेहूं की बोआई का रकबा महज 0.19 फीसदी बढ़ा है।
इसके विपरीत चने का समर्थन मूल्य करीब 68 फीसदी बढ़ा है, जबकि इसके रकबे में 26.91 फीसदी वृद्धि हुई है। सोयाबीन का समर्थन मूल्य करीब 68 फीसदी बढ़ा है और उसके रकबे में 20 फीसदी वृद्धि हुई है।
आंकड़ों के आधार पर ऐसा लगता है कि समर्थन मूल्य बढ़ाने से दलहन और तिलहन के उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सकता है, लेकिन वह किसानों को गेहूं और धान छोड़कर अन्य फसल उपजाने की ओर सफलतापूर्वक नहीं मोड़ पाएगा।
इसकी एक वजह यह है कि अतिरिक्त धान और गेहूं की 100 फीसदी खरीद सरकार कर लेती है, जिससे किसानों को आमदनी की सुरक्षा मिलती है। वहीं अन्य फसलों की सरकारी खरीद का भरोसा नहीं है।
इसके अलावा बाजार की भी अहम भूमिका होती है। निर्यात पर प्रतिबंध और सस्ते आयात के माध्यम से बाजार का भाव दबाने की कोशिश होती है, जिससे किसान धान और गेहूं छोड़कर तिलहन और दलहन की ओर जाने को लेकर हतोत्साहित होते हैं।