तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में सतत विकास हासिल करने के लिए नीतिगत रूप से चपल होना, विवेक संपन्न होना और लचीलापन अपनाना आवश्यक है। बता रही हैं सोनल वर्मा
बीते दो माह की अवधि की बात की जाए तो भूराजनीतिक परिस्थितियां और बाजार से जुड़े घटनाक्रम भारत के आर्थिक दृष्टिकोण के लिए जोखिम बनकर उभरे हैं।
बाहरी झटके
भूराजनीतिक नजरिये से देखें तो इजरायल-हमास के बीच छिड़ी लड़ाई जारी है। इसमें और तेजी आने की अनिश्चितता बनी हुई है। अब तक ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमतें थोड़ी बढ़ी हैं ताकि भूराजनीतिक जोखिम से कुछ हद तक बचाव सुनिश्चित किया जा सके, हालांकि कीमतों में पूर्ण बढ़ोतरी नहीं की गई है। तेल उत्पादक देशों के समूह ओपेक तथा अन्य के उत्पादन में कमी ने पहले ही एक सीमा तय कर दी है और अगर पश्चिम एशिया में छिड़ा संघर्ष बढ़ता है तो कच्चे तेल की कीमतों में और इजाफा हो सकता है।
बाजार की बात करें तो अमेरिकी दीर्घकालिक बॉन्ड प्रतिफल में इजाफा हुआ है और 10 वर्ष के बॉन्ड का प्रतिफल 2007 के बाद पहली बार पांच फीसदी का स्तर पार गया है।
उच्च वास्तविक प्रतिफल के कारण इसमें बिकवाली हुई है जो अमेरिका की मजबूत वृद्धि और बॉन्ड की मांग और आपूर्ति के कारण उच्च टर्म प्रीमियम को दर्शाती है। उच्च अमेरिकी वास्तविक प्रतिफल के कारण उभरते बाजारों से पूंजी बाहर गई और अब वे इक्विटी और मुद्रा बाजारों और तंग वित्तीय हालात से निपट रहे हैं।
भारत की सुरक्षा दीवार
भारतीय नीति निर्माता इन बाहरी घटनाओं के भारत पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर खामोश हैं। रिजर्व बैंक ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल रुपये को स्थिर रखने के लिए किया है जबकि ईंधन की खुदरा कीमतें अपरिवर्तित हैं। बहरहाल कई अन्य प्रभाव नजर आए हैं।
पूंजी के बहिर्गमन ने इक्विटी कीमतों पर असर डाला है। रिजर्व बैंक की डॉलर की बिकवाली टिकाऊ तरलता को कम कर रही है और तेल विपणन कंपनियां पेट्रोल और डीजल के मामले में अंडर रिकवरी से जूझ रही हैं।
नीति निर्माता इन बचावों को कब तक कायम रख पाएंगे यह इस बात पर निर्भर करेगा कि झटके कितने गहरे और कितने लंबे चलने वाले हैं। अगर ये झटके अल्पकालिक हुए तो सुरक्षा बरकरार रह सकती है। बहरहाल, अगर झटके लंबे खिंचे तो कुछ बदलाव करने होंगे।
उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा हस्तक्षेप के जरिये भारत की मुद्रा को बचाने की जितनी कोशिश करता है, मुद्रा भंडार में उतनी कमी आएगी। नकदी की तंगी की वजह से घरेलू ब्याज दरों में ऊपरी दबाव बन सकता है।
इसी तरह निरंतर ऊंची तेल कीमतों का बोझ अगर ग्राहकों पर नहीं डाला गया तो वे राजकोषीय दबाव को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करेंगी।
मुद्रास्फीतिजनित मंदी का झटका, यदि बरकरार रहा
अर्थशास्त्र के नजरिये से इन घटनाक्रम की प्रकृति मुद्रास्फीतिजनित मंदी की है और ये राजकोषीय और चालू खाते के दोहरे घाटे पर असर डालेंगे। अगर झटका अल्पकालिक है तो वृद्धि, मुद्रास्फीति और राजकोषीय हालात पर असर को सीमित किया जा सकता है और तात्कालिक प्रभाव केवल भुगतान संतुलन पर पड़ेगा।
ऐसा इसलिए कि आयातित तेल की बढ़ती लागत चालू खाते के घाटे पर असर डालेगी जबकि पूंजी का बहिर्गमन, पोर्टफोलियो इक्विटी और डेट को प्रभावित करेगा। विदेशी डेट फंड में इजाफे की गति भी धीमी होगी। भारत के पास बॉन्ड सूचकांक समावेशन से बचाव हासिल है लेकिन वे लाभ मुख्यतया 2024 के मध्य और उसके बाद ही देखने को मिलेंगे।
बहरहाल अगर ये बाहरी दबाव लंबे समय तक कायम रहे और/अथवा ये बढ़े तो यह बात वृद्धि को प्रभावित करेगी। ऊंची तेल कीमतें व्यापार शर्तों पर असर डालेंगी। ज्यादा अनिश्चितता, कमजोर रुझान और सख्त मौद्रिक हालात निवेश से के लिए सही नहीं माने जाते।
शेयर बाजार में निरंतर गिरावट और बैंकिंग में नकदी की तंगी निजी पूंजी चक्र में अनुमानित बदलाव नहीं आएगा। यदि राजकोषीय दबाव बढ़ता है तो सार्वजनिक पूंजी के लिए उपलब्ध गुंजाइश सीमित हो जाएगी। निजी खपत का असर भी इससे कम नहीं होना चाहिए।
निजी खपत पर भी कम असर नहीं होना चाहिए लेकिन ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में असमान सुधार पहले ही चिंता का विषय है। इनमें से कोई भी प्रभाव तत्काल नजर नहीं आएगा। इसमें समय लगेगा। बहरहाल 2024-25 में जीडीपी वृद्धि को जोखिम बढ़ रहा है।
मुद्रास्फीति के मोर्चे पर भी अल्पावधि में कोई स्पष्ट प्रभाव नजर नहीं आ रहा है क्योंकि नीतिगत सुरक्षा मौजूद है। टमाटर की कीमतों में कमी ने अल नीनो प्रभाव के कारण खाानेपीने की चीजों के मामले में कीमतों के बढ़ते दबाव को कम कर दिया है। इसमें चावल, गेहूं, दाल, चीनी, मसाले आदि शामिल हैं।
कीमतों पर दबाव भी सीमित है और उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति में निरंतर कमी आ रही है। घरेलू मुद्रास्फीति भी महामारी के बाद पहली बार एक अंक में आने की ओर है। तत्काल नहीं लेकिन मध्यम अवधि में खाद्य, तेल और मुद्रा के क्षेत्र में मुद्रास्फीति का जोखिम बढ़ा हुआ है।
चपलता, विवेक और लचीलापन
नीति निर्माताओं के लिए इन बातों का मतलब है मूल्य स्थिरता और वृद्धि पर ध्यान देते हुए वित्तीय स्थिरता को कायम रखना। अल्पावधि में रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करके मुद्रा का प्रबंधन करना जारी रख सकता है। ऐसा करने से तरलता बरकरार रखी जा सकेगी और वास्तविक दरों को आकर्षक बनाए रखा जा सकेगा।
इस बीच सरकार आपूर्ति क्षेत्र की नीतियों का इस्तेमाल खाद्य और तेल मुद्रास्फीति को दूर रखने के लिए करती है। ये बातें रिजर्व बैंक को अवसर देती हैं कि वह घरेलू मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकें। कोर मुद्रास्फीति के कमजोर पड़ने के कारण दरों में इजाफे की जरूरत भी नहीं है। आपूर्ति क्षेत्र की मुद्रास्फीति के जोखिम बने होने के कारण उसे दरों में कटौती करनी भी नहीं चाहिए।
बहरहाल अगर ये बाहरी दबाव बने रहते हैं तो वृद्धि और मुद्रास्फीति के बीच की अदला-बदली और अधिक स्पष्ट हो सकती है। ऐसे में नीतिगत विवेक भारत के लिए जोखिम बढ़ने से रोक सकता है। मूल्य स्थिरता टिकाऊ वृद्धि की आधारशिला है और अगर मुद्रास्फीति फिर बढ़ती है तो रिजर्व बैंक को प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना होगा।
सब्सिडी के बिल के बोझ और कमजोर कर संग्रह के कारण वित्तीय दबाव बढ़ेगा और वृद्धि में धीमापन आएगा। अब जबकि हम चुनावी मौसम में प्रवेश कर रहे हैं केंद्र और राज्य के स्तर पर राजकोषीय विवेक की मदद से ही फिसलन भरी राजकोषीय राह पर बचकर चला जा सकता है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि राजकोषीय-मौद्रिक नीतियां तालमेल के साथ काम करेंगी।
उस लिहाज से देखें तो अनिश्चितता काफी अधिक है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था अनुमान से लंबे समय से मजबूत बनी हुई है लेकिन यह ऐसा कब तक चलेगा यह निश्चित नहीं है। ऐसे में नीतिगत चपलता महत्त्वपूर्ण है।
विश्व अर्थव्यवस्था को बीते चार वर्षों में लगातार झटके लगे हैं। भूराजनीति और जलवायु परिवर्तन अब मध्यम अवधि के जोखिम नहीं है। वे हमारे आर्थिक दृष्टिकोण को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे में मजबूती की जरूरत है।
भारत को अपना विदेशी मुद्रा भंडार मजबूत करना चाहिए और उसमें विविधता लानी चाहिए। हमें अच्छे समय में, बुरे समय के झटकों से निपटने की तैयारी रखनी चाहिए। मौद्रिक नीति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वास्तविक दरें बचत और निवेश की जरूरत को संतुलित करें तथा मुद्रास्फीति लक्ष्य के करीब हो। नियामकीय मानकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऋण निर्माण उत्पादक वजहों से हो, न कि केवल खपत के लिए।
भारत वैश्विक प्रभावों से अछूता नहीं रहेगा लेकिन हमें टिकाऊ वृद्धि के लिए वृहद पूर्व शर्त तैयार करनी होगी। ऐसे में नीतिगत चपलता, विवेक और लचीलापन बहुत अहम होंगे।
(लेखिका नोमूरा में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)