बात करीब 10 साल पहले की है जब दिल्ली के मशहूर सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में कारोबारियों का जमावड़ा लगा था। दिन था 27 फरवरी 2014 और यह आम चुनाव की शुरुआत होने से कुछ हफ्ते पहले की बात है। यहां मुख्य वक्ता के तौर पर नरेंद्र मोदी आमंत्रित थे जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार थे।
यहां का उत्साहपूर्ण माहौल भाजपा के खुदरा कारोबार से जुड़े रुख के लिहाज से बेहद उल्लेखनीय रहा जिसका हिस्सा विदेशी ब्रांड और ई-कॉमर्स से लेकर किराना दुकान तक हैं।
एक दशक पहले ही अखिल भारतीय व्यापार परिसंघ (CAIT) के राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मोदी ने खुदरा क्षेत्र में तकनीक की अहमियत पर जोर दिया। आमतौर पर कारोबारी, भाजपा के समर्थक माने जाते हैं लेकिन वे वॉलमार्ट जैसी विदेशी खुदरा श्रृंखला कंपनी का विरोध कर रहे थे।
हालांकि उन्हें तब हैरानी हुई जब मोदी ने उन्हें आधुनिक तकनीक अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया और इस बात पर जोर देते हुए कहा कि ऐसा करने से न केवल बिक्री बढ़ेगी बल्कि वे विदेशी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा भी कर पाएंगे।
उस समय, उन्होंने व्यापारियों के सामने बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिए भाजपा के रुख को पूरी तरह स्पष्ट नहीं किया था खासतौर पर तब जब तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने तीन साल पहले ही इस क्षेत्र में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी थी।
उस वक्त से ठीक 10 साल बाद, अब खुदरा क्षेत्र के सफर का जायजा लेने का यह एक अच्छा समय प्रतीत हो रहा है। सबसे पहली बात यह है कि भाजपा सरकार ने कारोबारियों को निराश नहीं किया और बहु-ब्रांड एफडीआई नीति को पूरे समय तक टाले रखा। इस संदर्भ में व्यापारियों द्वारा साझा किए गए आंकड़े इसकी प्रगति की कहानी को बयां करते हैं।
वर्ष 2013 के अंत में और 2014 के चुनावों से पहले तक भारत में खुदरा उद्योग (retail industry) का दायरा लगभग 90 लाख करोड़ रुपये का था। इसमें से केवल 3 प्रतिशत हिस्सा ही संगठित क्षेत्र से था और बाकी असंगठित क्षेत्र में थे। व्यापारी वर्ग ‘असंगठित’ के बजाय ‘स्व-संगठित’ जैसे शब्दों को तरजीह देना पसंद करते हैं।
वर्ष 2023 के अंत तक, खुदरा उद्योग के राजस्व का आंकड़ा 140 लाख करोड़ रुपये को पार कर गया था, जिसमें संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 7 प्रतिशत तक थी। पिछले 10 वर्षों में, संगठित क्षेत्र तीन प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत हो गया है। यह कहना मुश्किल है कि विदेशी खुदरा कंपनियों की उपस्थिति ने संगठित बनाम असंगठित क्षेत्र की कहानी को एक नया मोड़ दिया है या नहीं।
व्यापारियों का मानना है कि विदेशी खुदरा क्षेत्र से उन्हें कोई मदद नहीं मिल सकती है चाहे वह रिटेल स्टोर की शक्ल में हो या ऑनलाइन। फ्लिपकार्ट (वॉलमार्ट के पास इसकी बहुलांश हिस्सेदारी है) और एमेजॉन के साथ उनकी चल रही तकरार भी विदेशी खुदरा कंपनियों के साथ उनके बड़े मतभेद के सबूत हैं।
सिरी फोर्ट की उस बैठक के 10 साल बाद भी ये कारोबारी, भारतीय या विदेशी सभी बड़ी खुदरा क्षेत्र की कंपनियों को लेकर समान रूप से चिंतित हैं। जो अपनी राय खुलकर व्यक्त करते हैं वे यह बताने से नहीं हिचकते कि बड़ी खुदरा कंपनियां, छोटे कारोबारों के अस्तित्व के अनुकूल नहीं हैं।
ऐसी ही एक आवाज सीएआईटी के राष्ट्रीय महासचिव प्रवीण खंडेलवाल की है। वह बड़ी खुदरा कंपनियों के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं, ‘वे अपने हित के लिए खुदरा व्यापार पर एकाधिकार जमाना चाहते हैं।’
इसका अर्थ यह नहीं है कि छोटे कारोबारी या किराना स्टोर मुख्यधारा में आना नहीं चाहते या संगठित होने की इच्छा नहीं रखते। अब देश भर के हजारों कारोबारी संघों की ताकत पर दांव लगाते हुए यह उम्मीद कर रहे हैं कि ये उन्हें संगठित करने में मदद करेंगे।
हालांकि, इसे दूसरी तरह से देखा जाए तो बड़ी खुदरा कंपनियों की ताकत के बलबूते कारोबारियों के तेजी से संगठित होने का मौका मिलने की ज्यादा संभावना है। देश में असंगठित खुदरा क्षेत्र को सशक्त बनाने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए 3 जनवरी को नागपुर में व्यापारियों के एक मुख्य समूह की बैठक हुई।
अब, अगले 10 वर्षों पर नजर डालें तो अंदाजा लगता है कि वर्ष 2033 तक भारत में खुदरा उद्योग लगभग 200 लाख करोड़ रुपये का हो सकता है। व्यापारियों को उम्मीद है कि 50 प्रतिशत कारोबार संगठित हो जाएगा। अगले 10 वर्षों में खुदरा क्षेत्र के कारोबार को 7 से 50 प्रतिशत तक के संगठित हिस्से तक ले जाने के लिए आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, ई-कॉमर्स एकीकरण, नियामक अनुपालन और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस क्षेत्र के अलग-अलग संगठनों को एक साथ काम करने के दृष्टिकोण को अपनाना होगा।
लेकिन इसमें एक चौंकाने वाली बात उभरती है। आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन से लेकर एक क्षेत्र के लोगों का एक संकुल बनाने जैसे कारोबार को आसान बनाने के तमाम तरीकों के बावजूद, बड़े खुदरा कारोबार की नजर उद्योग के संगठित होने के फायदे को भुनाने पर है। रिलायंस रिटेल, एमेजॉन या वॉलमार्ट, सबके लिए व्यापारियों और छोटे कारोबारों के साथ गठजोड़ करना अब बेहद जरूरी हो गया है। इसकी वजह यह है कि अब यह उनके कारोबार का अहम हिस्सा है।
बड़ी खुदरा कंपनियां भी मानती हैं कि किराना स्टोर के साथ उनकी असली प्रतिस्पर्धा हैं और यह विदेशी दिग्गज कंपनियों से कहीं ज्यादा है। फिर भी, बड़ी खुदरा कंपनियां छोटे व्यापारियों और किराना स्टोरों को मदद देकर सक्षम बनाना चाहती हैं। बड़ी खुदरा कंपनियों द्वारा साझा किए गए अनुमान, उन आंकड़ों से थोड़े अलग हैं जो कारोबारी पेश करते हैं।
एक प्रमुख घरेलू कंपनी के अनुसार, वर्तमान में लगभग 12 प्रतिशत खुदरा क्षेत्र संगठित है और यह उम्मीद है कि अगले 10 वर्षों में उद्योग पूरी तरह से संगठित हो जाएगा। उस समय तक सबसे बड़ी खुदरा कंपनी, छोटे व्यापारियों के साथ गठजोड़ और करार के जरिये खुदरा उद्योग में अपनी भागीदारी के हिसाब से, कुल बाजार का 50 फीसदी तक हिस्सा हासिल कर सकती है। आंकड़े जो भी हों, एफडीआई के साथ या इसके बगैर भी खुदरा जगत निश्चित रूप से एक बदलाव के रास्ते की ओर बढ़ने के लिए तैयार है।