प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
शुल्क वृद्धि की चुनौती से निपटने के लिए हमें क्या करना चाहिए? यह दिक्कत कहीं अधिक गहरी समस्या के संकेतों को रेखांकित करती है: हमारे खेत और हमारी कंपनियां पर्याप्त उत्पादक नहीं हैं और कारोबार की लागत भी इतनी कम नहीं है जो वैश्विक बाजारों के लिए उपयुक्त हो। इस समस्या को हल करने से दिक्कतें बहुत हद तक दूर हो जाएंगी।
शुल्क वृद्धि के बाद कई टीकाकारों ने कई सुधारों का प्रस्ताव रखा और यकीनन वे सभी स्वागतयोग्य हैं। कई वैश्विक व्यापार समझौते चाहे वे द्विपक्षीय हों या क्षेत्रीय, उनके भी प्रस्ताव रखे गए और वे भी स्वागतयोग्य हैं। परंतु सरकार कम उत्पादकता और उच्च लागत की समस्या को कैसे हल करेगी? इस दिक्कत के चलते ही सरकार को वैश्विक बातचीत में रक्षात्मक रुख लेना पड़ता है तथा वह हमारी उत्पादक संस्थाओं को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देने के बजाय उनका संरक्षण करती है। अगर हम इस समस्या को हल नहीं करते हैं और भारतीय उत्पादकों को प्रतिस्पर्धी नहीं बनाते तो सभी वैश्विक समझौते निरर्थक हो जाएंगे।
नीति निर्माताओं को क्या करना चाहिए? पहली बात, उन्हें यह समझना चाहिए कि हम एक साथ सबकुछ नहीं कर सकते। नीतियों पर ध्यान देने, शुरुआती सफलता हासिल करने, गति तैयार करने और उनके दायरे का विस्तार करने की जरूरत होती है। इसकी शुरुआत उन कंपनियों को मजबूत बनाने से होगी जो अधिक उत्पादक और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी हैं। ये निर्यात करने वाली कंपनियां हैं और यही ट्रंप के शुल्क संबंधी कदमों से सबसे अधिक प्रभावित हैं। दूसरे, बात करते हैं कुछ ऐसे क्षेत्रों की जहां शुरुआती लाभ संभव हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकांश क्षेत्र अत्यधिक श्रम गहन हैं। आखिर में सुधारों का कठोर हिस्सा अभी भी अंजाम दिया जाना है। वहां भी हमें तभी कामयाबी मिलेगी जब हम व्यवस्थागत ढंग से समग्र सुधारों के बजाय कुछ क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करें।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि 50 फीसदी अतिरिक्त शुल्क लगने से कई व्यवसायों को तुरंत ऑर्डर में गिरावट का सामना करना पड़ा है या पड़ेगा। जिन कंपनियों के पास दीर्घकालिक अनुबंध हैं, वे भी इन शुल्कों की शर्तों को पूरा नहीं कर पाएंगी। कई उत्पादन इकाइयों को अस्थायी रूप से बंद करना पड़ेगा, और कुछ को स्थायी रूप से बंद करने की नौबत आ सकती है। बैंक प्रभावित क्षेत्रों में ऋण वितरण और कार्यशील पूंजी आवंटन को सख्त कर देंगे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिन कंपनियों को सबसे ज़्यादा नुकसान होगा, वे वही हैं जो अधिक कुशल हैं, ज्यादा निर्यात करती हैं, और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हैं।
इन निर्यातक कंपनियों के लिए कुछ सूक्ष्म और व्यापक उपाय उपलब्ध हैं, जैसे कि उनके आयात पर कम या शून्य शुल्क लगाना, और ऋण चुकाने के लिए स्थगन अवधि देना। एक अन्य विकल्प यह हो सकता है कि सरकार सीमित समय के लिए अमेरिकी शुल्कों का भार स्वयं वहन करे, जब तक कि कंपनियां वैकल्पिक बाजार खोजने में सक्षम न हो जाएं। कुल मिलाकर, सरकारी खजाने पर इसका प्रभाव 20 अरब डॉलर से अधिक नहीं होगा।
तत्काल समस्याओं का समाधान करने के बाद, अब मध्यम अवधि के लिए क्षेत्रीय नीतियों पर केंद्रित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। जो क्षेत्र शुल्कों से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं, उनमें परिधान, आभूषण, झींगा पालन (मत्स्य पालन क्षेत्र), फुटवियर, हल्की इंजीनियरिंग, फर्नीचर, हस्तशिल्प और कुछ अन्य शामिल हैं।
हम इन क्षेत्रों की मदद कैसे कर सकते हैं? यह सुनिश्चित करना होगा कि निर्यात क्षेत्र के कच्चे माल शुल्क मुक्त हों। यह याद रहे कि ये कंपनियां वैश्विक बाजारों में जिन फर्मों से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं उन्हें यही कच्चे माल कम शुल्क दरों पर और कम सरकारी बाधाओं के साथ मिलते हैं। दूसरे, अमेरिका, रूस, चीन और यूरोपीय संघ के साथ बातचीत में और ब्राजील, इंडोनेशिया जैसे विकाशील देशों के साथ चर्चा में भी भारत के उन बाजारों को खोल दिया जाना चाहिए जहां भारत कम प्रतिस्पर्धी है। यदि भारत को आयात करने की आवश्यकता होती है, तो बेहतर होगा कि ऐसे उत्पादों का आयात किया जाए जिनमें भारतीय कंपनियां अपेक्षाकृत कम उत्पादक हैं। इससे देश की डाउनस्ट्रीम इकाइयों (कच्चे माल का उपयोग करने वाली) को वैश्विक बाजारों में अधिक प्रतिस्पर्धी बनने में मदद मिलेगी।
तीसरा, भारत में कारोबार की लागत बहुत अधिक है और इसे हल करना होगा। इसका एक तरीका है रुपये का अवमूल्यन। अवमूल्यन के साथ दिक्कत यह है कि इससे होने वाला लाभ क्षणिक होता है। एक अन्य विकल्प है लक्षित सब्सिडी देना वह भी तय अवधि के लिए। कुछ हद तक उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना की तरह। परंतु सरकार इस तरह कितने उत्पादों की मदद कर पाएगी और कब तक?
सबसे बड़ी चुनौती होगी लागत की। बीते दशक में सरकार ने बेहतर कारोबारी माहौल बनाने के लिए कई प्रयास किए हैं। इसके बावजूद विनिर्माण में निवेश की जरूरत है। कारोबारी सुगमता के लिए कई मानक तय किए गए। इसके बावजूद अभी काफी कुछ करना बाकी है। दीर्घावधि में भारत को कारोबारी सुगमता की लागत पर काम करना होगा। इसके लिए प्रत्यक्ष लागत और कारोबारी अनिश्चितता दोनों कम करने होंगे। इसमें क्या-क्या शामिल हो सकता है?
पहला, श्रम के बारे में: भारत को व्यवसायों को सशक्त बनाने के लिए औद्योगिक विकास और विनियमन अधिनियम (आईडीआरए) को समाप्त करना चाहिए, विशेष रूप से वह प्रावधान जो मालिकों को कर्मचारियों की संख्या को तर्कसंगत रूप से समायोजित करने से रोकता है। इसकी जगह बेरोजगारी बीमा की व्यवस्था की जानी चाहिए। उद्देश्य यह होना चाहिए कि कर्मचारियों की उपभोग क्षमता की रक्षा की जाए, न कि उनकी नौकरी की।
दूसरा, जमीन के बारे में: भारत में जमीन महंगी है, जमीन के बड़े टुकड़े जुटाना मुश्किल है, और उपयुक्त अधोसंरचना भी नदारद है। एक औद्योगिक पार्क नीति जरूरी है जहां जमीन की लागत का बोझ सरकार वहन करती है लेकिन औद्योगिक पार्क विभिन्न सेवाएं मुहैया कराने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। इस परिसंपत्ति का लाभ लेने की जरूरत है और मांग और सेवा के बड़े केंद्रों के आसपास नए औद्योगिक पार्क बनाने होंगे।
तीसरा, न्यायिक देरी: भारत में अदालती देरी भी कारोबारी सुगमता को बहुत प्रभावित करती है। हमें मौजूदा से तीन गुना अधिक न्यायाधीशों और अदालतों की जरूरत है और अधिक सक्रियता की भी।
चौथा, बिजली की लागत: देश में हर किसी को बिजली की वास्तविक कीमत चुकानी चाहिए बजाय कि विनिर्माताओं से अधिक राशि लेने और आम परिवारों समेत अन्य क्षेत्रों को सब्सिडी देने के।
आखिर में पूंजी की लागत: बैंकों का मार्जिन इतना अधिक क्यों है या फिर कर अधिकारी पुनर्आकलन पर इतना जोर क्यों देते हैं? इससे बढ़ने वाली लागत की जिम्मेदारी कौन लेगा?
कुल मिलाकर, भारत को कुछ प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उन बाधाओं को दूर करना चाहिए जो कम लागत वाले उत्पादक कृषि और उद्योगों के रास्ते में रुकावट बन रही हैं। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए, तो उच्च लागत अंततः उस सारे लाभ को निष्फल कर देगी जो व्यापार सुगमता या अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों से संभावित रूप से मिल सकते हैं।
(लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)