जी20 और चंद्रयान अभियान की कामयाबी के बाद देश को आगे अहम सुधार की जरूरत है ताकि 2047 तक हम विकसित देश बन सकें। बता रहे हैं अजय छिब्बर
हम कह सकते हैं कि 2023 ऐसा वर्ष रहा जब भारत वैश्विक मंच पर उभरकर सामने आया। वह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना। इस क्रम में उसने अपने पूर्व औपनिवेशिक शासक ग्रेट ब्रिटेन को पीछे छोड़ा।
चंद्रयान-3 के चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के साथ ही हम अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ (रूस इस बार नाकाम रहा) और चीन की श्रेणी में आ गए। चूंकि भारत परमाणु शक्ति भी है और जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा तो ऐसे में वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी बन सकता है।
हमने जहां चांद पर पहुंचने वाली शानदार टीम की सराहना की, वहीं हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इसका श्रेय पिछली सरकारों को भी जाता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम को प्राथमिकता दी थी। होमी भाभा, विक्रम साराभाई और एपीजे अब्दुल कलाम ने इसकी बुनियाद रखी।
तमाम नाकामियों और भारत तथा विदेश में नकारने का भाव रखने वालों के बावजूद हमें कामयाबी मिली। ऐसे लोगों का मानना था कि भारत जैसे गरीब देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम विलासिता है। हमारे सफल चंद्र अभियान ने दिखाया है कि अगर हम इस पर ध्यान दें तो जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘भारत के लिए अब आकाश असीमित है।’ हमें यह याद रखना चाहिए कि हम धरती पर इकलौते ऐसे देश हैं जिसके नाम पर महासागर का नाम है। उसकी गहराइयों में भी हम बहुत कुछ तलाश सकते हैं।
भगवान शिव के नटराज नृत्य के साथ विदेशी प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुए भारत ने जी20 की अध्यक्षता को भी सफलतापूर्वक अंजाम दिया। तमाम भू-राजनीतिक जटिलताओं और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की अनुपस्थिति के बावजूद यह कामयाब रही। जी20 का विस्तार कर अफ्रीकी संघ को इसमें शामिल करना, बहुपक्षीय बैंकों में सुधार, क्रिप्टो नियमन और डिजिटल सार्वजनिक अधोसंरचना आदि की मदद से सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में बढ़ना आदि भारत की अध्यक्षता की सफलताएं हैं जो उसने वैश्विक गरीब देशों की अगुआई करते हुए हासिल की हैं।
अमेरिका की मदद से भारत-पश्चिम एशिया-यूरोपीय संघ अधोसंरचना कॉरिडोर को चीन की कर्ज के बोझ वाली बेल्ट ऐंड रोड पहल (बीआरआई) के विकल्प के रूप में तैयार करना भी अहम है। कर्ज के तेज और व्यापक पुनर्गठन के लिए और कदम उठाए जाने थे लेकिन बीआरआई पर भारी भरकम कर्ज वाला चीन पूरी तरह सहमत नहीं था।
भारत के बाद अब ‘जी21’ की अध्यक्षता ब्राजील के पास गई है और वह उसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार है। सन 1947 में जब भारत 200 वर्षों की ब्रिटिश गुलामी से आजाद हुआ था तब उसके 34 करोड़ नागरिकों की जीवन संभाव्यता बमुश्किल 32 वर्ष थी, साक्षरता दर 12 फीसदी थी और करीब 90 प्रतिशत लोग गरीब थे। इसकी तुलना में फ्रांसीसियों ने जब वियतनाम छोड़ा तब वहां कि जीवन संभाव्यता 50 वर्ष थी जो तत्कालीन भारत से बेहतर थी। वहां साक्षरता दर 10 फीसदी थी।
चीन युद्ध से जूझ रहा था लेकिन इसके बावजूद उसकी जीवन संभाव्यता और साक्षरता दर ब्रिटिश शासन के अधीन ‘शांतिपूर्ण’ रहे भारत से बेहतर थी। अमेरिकी उपनिवेश फिलिपींस में सन 1948 में जीवन संभाव्यता 45 वर्ष थी और साक्षरता दर 60 फीसदी थी। यह भी भारत से बहुत बेहतर आंकड़ा था।
यहां तक कि नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीका में भी कालों और भारतीयों को शिक्षित करने में काफी बेहतर काम किया। कोरिया और ताइवान जापान के शासन के अधीन थे और वहां भी स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भारत से बेहतर स्थिति नजर आई। थाईलैंड कभी गुलाम नहीं रहा और ब्राजील ने 19वीं सदी में पुर्तगाल के शासन से आजादी पाई और वह भी भारत से बेहतर स्थिति में रहा।
फीजी और त्रिनिडाड ऐंड टोबागो जैसी जगहों पर श्रमिक के रूप में जाने वाले भारतीयों का प्रदर्शन भी बेहतर रहा। फीजी में जीवन संभाव्यता 1946 में ही 50 वर्ष थी और साक्षरता 64 फीसदी। त्रिनिडाड ऐंड टोबागो में उस समय जीवन संभाव्यता 53 वर्ष और साक्षरता दर 74 फीसदी थी।
भारत ने तब से अब तक लंबा सफर तय किया है और वह 2047 तक विकसित देश बनने की दिशा में बढ़ रहा है और मेरा मानना है कि उसे इस प्रक्रिया में चार सुधार करने की जरूरत होगी।
भारत में असाक्षरता की दर 25 फीसदी है और उसमें सुधार करना आवश्यक है। अन्य जिन देशों से तुलना की जा सकती है उन्होंने असाक्षरता समाप्त कर दी है। सबसे अहम प्रगति वियतनाम ने की। उसने बड़े पैमाने पर साक्षरता अभियान चलाया ताकि अपनी आबादी को शिक्षित कर सके।
दूसरा, अगर हम चांद पर रॉकेट भेज सकते हैं तो हमें यह भी पूछना चाहिए कि हम औद्योगिक मामलों में इतना पीछे क्यों छूट गए हैं। अब हम उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना, आयात शुल्क और प्रतिबंध आदि की मदद से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। भारत को और अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए समझदारी भरी औद्योगिक नीति की आवश्यकता है। परंतु खुद को दुनिया से काटकर सफलता की राह पर बढ़ना मुश्किल है।
तीसरा, हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम में महिला वैज्ञानिकों की भारी तादाद भी श्रम शक्ति में महिलाओं की कम भागीदारी के साथ विरोधाभासी नजर आती है। यह दिखाती हैकि अगर महिलाओं के साथ भेदभाव न हो और ज्यादा महिलाएं सवैतनिक काम करें तो भारत विजेता बनकर उभर सकता है।
आखिर में, सन 1991 के बाद से उल्लेखनीय उदारीकरण के बाद भी अफसरशाही और विरोधाभासी नियमों और नियमन की वजह से भ्रष्टाचार वृद्धि, निवेश और नवाचार को प्रभावित करता रहा है। इन दिक्कतों को दूर करना होगा।
साथ ही सरकार के कामकाज को स्थानीय स्तर पर बांटना चाहिए ताकि बुनियादी सुविधाओं को बेहतर ढंग से मुहैया कराया जा सके। उदाहरण के लिए प्राथमिक शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा और नगर निकाय की सुविधाएं।
अगर हम विभाजनकारी राजनीति में न फंसें और जातीय तथा धार्मिक खूनखराबे से दूर रहकर (जो हमने मणिपुर तथा अन्य स्थानों पर देखा) नीतियों पर ध्यान केंद्रित करें तथा कमजोरियों को हल करें तो हम निश्चित रूप से 2047 तक विकसित भारत बन जाएंगे। यानी अंग्रेजों द्वारा भारत को अत्यंत कमजोर स्थिति में छोड़ने के ठीक सौ वर्ष बाद।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)