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Starlink से बदलेगा इंटरनेट का खेल, अब हर कोने तक हाई-स्पीड कनेक्टिविटी!

Starlink एक सैटेलाइट इंटरनेट नेटवर्क है, जिसे SpaceX की स्वामित्व वाली कंपनी Starlink Services संचालित करती है।

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बीएस संवाददाता   
Last Updated- March 13, 2025 | 3:05 PM IST

भारती एयरटेल और रिलायंस जियो ने ईलॉन मस्क (Elon Musk) की कंपनी SpaceX के साथ मिलकर भारत में Starlink की सैटेलाइट-बेस्ड इंटरनेट सर्विस लाने की योजना बनाई है। Starlink एक Low Earth Orbit (LEO) सैटेलाइट इंटरनेट नेटवर्क है, जो दुनिया के सबसे दूर-दराज के इलाकों में भी हाई-स्पीड इंटरनेट पहुंचाने के लिए डिजाइन किया गया है। Starlink क्या है और यह ट्रेडिशनल टेलीकॉम व ब्रॉडबैंड नेटवर्क से कैसे अलग है? भारतीय कस्टमर्स को क्या फायदा होगा?

Starlink क्या है?

Starlink एक सैटेलाइट इंटरनेट नेटवर्क है, जिसे SpaceX की स्वामित्व वाली कंपनी Starlink Services संचालित करती है। यह दुनिया के सबसे बड़े सैटेलाइट नेटवर्क में से एक है, जो लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में सैटेलाइट्स का इस्तेमाल कर हाई-स्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराता है। इसकी मदद से यूजर्स वीडियो स्ट्रीमिंग, ऑनलाइन गेमिंग, वीडियो कॉलिंग जैसी सेवाओं का फायदा ले सकते हैं।

कैसे अलग है टेरेस्ट्रियल नेटवर्क से?

टेरेस्ट्रियल टेलीकॉम सेवाएं मुख्य रूप से फाइबर-ऑप्टिक केबल, डिजिटल सब्सक्राइबर लाइन (DSL) और मोबाइल टावरों पर निर्भर होती हैं। ये नेटवर्क ज्यादातर शहरी और उपनगरीय इलाकों तक ही सीमित रहते हैं, जहां फिजिकल नेटवर्क इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना आसान और किफायती होता है।

वहीं, Starlink लो-अर्थ ऑर्बिट (LEO) सैटेलाइट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करता है, जिससे यह उन इलाकों में इंटरनेट सेवा दे सकता है, जहां पारंपरिक ब्रॉडबैंड नेटवर्क पहुंचना मुश्किल या महंगा होता है। इसमें दूरदराज के गांव, पहाड़ी क्षेत्र और समुद्री इलाके शामिल हैं।

LEO सैटेलाइट नेटवर्क कैसे अलग है ट्रेडिशनल सैटेलाइट सिस्टम से?

परंपरागत रूप से, सैटेलाइट के जरिए इंटरनेट सेवाएं हाई-अर्थ ऑर्बिट (HEO) या जियोस्टेशनरी ऑर्बिट सैटेलाइट्स पर निर्भर करती हैं, जो धरती से 30,000 किमी से ज्यादा ऊंचाई पर स्थित होती हैं। इसके मुकाबले, LEO (लो-अर्थ ऑर्बिट) सैटेलाइट कॉन्स्टेलेशन काफी कम ऊंचाई, यानी 200 से 2,000 किमी की दूरी पर रहती हैं।

LEO सैटेलाइट क्यों बेहतर हैं?

लो लैटेंसी (कम देरी): जियोस्टेशनरी सैटेलाइट्स से सिग्नल को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है, जिससे स्पीड धीमी हो जाती है। LEO सैटेलाइट्स ज्यादा पास होने की वजह से सिग्नल तेजी से ट्रांसफर होता है, जिससे इंटरनेट तेज और रिस्पॉन्सिव बनता है।

बेहतर एफिशिएंसी: कम दूरी की वजह से सिग्नल लॉस कम होता है, जिससे नेटवर्क ज्यादा मजबूत और भरोसेमंद बनता है। इसके अलावा, इसे कम पावर और छोटे एंटेना की जरूरत होती है।

LEO सैटेलाइट की चुनौतियां

  • छोटा कवरेज एरिया: LEO सैटेलाइट धरती के करीब होती हैं, इसलिए हर सैटेलाइट का कवरेज एरिया सीमित होता है। इसलिए, ग्लोबल कवरेज के लिए बड़ी संख्या में सैटेलाइट्स की जरूरत होती है।
  • ज्यादा ऑपरेशनल खर्च: LEO सैटेलाइट्स तेज रफ्तार से मूव करती हैं, जिसके लिए बड़े ग्राउंड इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है। इससे इन्हें तैनात और ऑपरेट करना महंगा हो जाता है।

Starlink के नुकसान: महंगा, स्केलेबिलिटी की समस्या और मौसम का असर

SpaceX की सैटेलाइट इंटरनेट सेवा Starlink हाई-स्पीड इंटरनेट का वादा करती है, लेकिन इसमें कुछ बड़ी कमियां भी हैं।

  • महंगा होने की समस्या – लो-अर्थ ऑर्बिट (LEO) सैटेलाइट आधारित सेवाएं महंगी होती हैं। इसके चलते Starlink के प्लान भी प्रीमियम दामों पर मिल सकते हैं और डेटा लिमिटेड हो सकता है।
  • स्केलेबिलिटी की चुनौती – ज्यादा यूजर्स को जोड़ने के साथ परफॉर्मेंस बनाए रखना मुश्किल हो सकता है।
  • मौसम का असर – बारिश, तूफान जैसे खराब मौसम में सिग्नल कमजोर हो सकता है, क्योंकि सैटेलाइट इंटरनेट को क्लियर लाइन ऑफ साइट की जरूरत होती है।
  • शहरी इलाकों में कम स्पीड – घनी आबादी वाले शहरों में Starlink की लेटेंसी ज्यादा हो सकती है और फाइबर-ऑप्टिक ब्रॉडबैंड के मुकाबले स्पीड कम मिल सकती है।
First Published : March 13, 2025 | 2:53 PM IST