पिछले साल देश में कोविड-19 के प्रकोप की वजह से जब केंद्र ने देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया था, तो सबसे अधिक दिखाई देने वाली दुर्दशा प्रवासी श्रमिकों की थी, जो शहरों से गांवों तक पैदल ही कष्टकारी यात्रा कर रहे थे। एक साल बाद भी वे अपर्याप्त सहायता, बेरोजगारी और टीकाकरण की कमी से कष्ट झेल रहे हैं। ये चीजें उन्हें अपना जीवन वापस पटरी पर लाने से रोक रही हैं।
नागरिक समाज समूह-स्ट्रैंडेड वर्कर्स ऐक्शन नेटवर्क (स्वान) वर्ष 2020 का लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही प्रवासी श्रमिकों की मदद कर रहा है और उनकी जिंदगी का लेखा-जोखा रख रहा है। स्वान ने पिछले एक साल में सर्वेक्षण रिपोर्टों के जरिये उनके चल रहे संकट को उजागर किया है। स्वान के सदस्यों और अन्य श्रमिकों ने हाल ही में एक आभासी सम्मेलन में अपनी दास्तानों को साझा किया। उन्होंने समुदाय की बढ़ती शिकायतों और अधूरी इच्छाओं पर और अधिक प्रकाश डाला।
झारखंड में सिमडेगा जिले से स्वान की सदस्य 27 वर्षीय सीमा कुमारी गोवा में होम केयर सेवा प्रदाता के साथ काम कर रही थी। जब लॉकडाउन की घोषणा की गई, तो उन्होंने 20 से 25 अन्य महिलाओं के साथ अपनी नौकरी गंवा दी। अब वह एक छोटा-सा भोजनालय चला रही हैं और श्रमिकों के अधिकारों की बड़ी हिमायती हैं। उन्होंने कहा ‘मेरे अनुभव में श्रमिकों और मालिकों की जिंदगी में बहुत बड़ा अंतर है। श्रमिकों को समानता और सुरक्षा से वंचित किया जाता है।’
पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र से असंगठित मजदूरों और प्रवासी श्रमिकों के पंजीकरण के लिए एक पोर्टल बनाने को कहा था। इसने पहले न्यायालय ने केंद्र और कुछ राज्य सरकारों को सूखा राशन और सामुदायिक रसोई उपलब्ध कराने के लिए कहा था। लेकिन कुमारी ने कहा कि इन्हें लागू नहीं किया गया है।
बिहार के मुजफ्फरपुर के मूल निवासी मोहम्मद मुस्लिम को पहले नई दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में काम करने के बाद ओडिशा के बालासोर में एक वाहन मरम्मत की दुकान में रोजगार मिला। महामारी के दौरान वह अपने गृहनगर में एक प्रवासी श्रमिक समूह में शामिल हो गए, जो उनके अधिकारों के लिए लड़ता है। उनके पास स्वान की सदस्यता भी है और उन्हें अन्य श्रमिकों को स्थानीय कारोबारशुरू करने तथा कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंचने के लिए सशक्त बनाने की उम्मीद है।
25 वर्षीय मोहम्मद गुलजार ने गोवा से, जहां वह इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के साथ काम किया करते थे, झारखंड के गोड्डा में अपने घर जाने के लिए खचाखच भरी हुई रेलगाड़ी पकड़ी थी। उन्होंनेे कहा ‘मुझे रोज बाजार में काम की तलाश करनी पड़ती थी। लेकिन पुलिस ने हमें लॉकडाउन की घोषणा किए जाने से एक सप्ताह से भी ज्यादा पहले रोक दिया था।’
घर वापस आकर उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत केवल दो सप्ताह के लिए ही काम मिला। उन्होंने कहा ‘लेकिन इस साल अब तक मनरेगा का कोई काम नहीं हुआ है। मैं गांव के अन्य लोगों के साथ ब्लॉक ऑफिस गया, लेकिन कुछ नहीं हुआ।’ कोविड-19 के टीकों की आपूर्ति भी काफी कम है। गुलजार ने कहा कि हमारे गांव में 400 घरों में से मुश्किल से ही किसी को टीके लग पाएं हैं।
असम के सिलचर से स्वान के एक सदस्य 24 वर्षीय ताहिर हुसैन तालुकदार ने बताया कि अगर शहरों में कंपनियों से काम के लिए संपर्क किया जाता है, तो वे भी टीके का सबूत मांगती हैं। तालुकदार बेंगलूरु के एक सिनेमाघर में काम किया करते थे। नौकरी और टीके दोनों के लिए ही उनकी तलाश जारी है।
उन्होंने कहा टीका केंद्र बहुत दूर हैं और वहां लंबी कतारें हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि ऐसे मामले भी हैं जिनमें अगर डॉक्टरों को 1,000 रुपये की रिश्वत दे दी जाती है, तो वे टीके के फर्जी प्रमाण-पत्र दे देते हैं। वापस आने वाले उन लोगों में से, जो दोबारा शहरों में लौट सके थे और फिर से काम पर लग पाए थे, कुछ श्रमिकों ने कहा कि हालांकि कंपनियों ने बस परिवहन का इंतजाम कर दिया, लेकिन उन्हें यात्रा और रहने के लिए नई जगह के लिए पैसा देना पड़ा, जबकि कम वेतन पर बात बन पाई थी।
बिहार से स्नातक विभीषण कुमार सिंह का नई दिल्ली में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में नामांकन था। उन्हें पढ़ाई छोडऩी पड़ी, क्योंकि उनका परिवार उनकी और ज्यादा मदद नहीं कर सकता था। अब वह मुंबई के एक विनिर्माण संयंत्र में श्रम प्रबंधक हैं। वह कमरे के किराये में छूट चाहते हैं। उन्होंने कहा कि यहां केवल उन्हीं लोगों को राशन सहायता मिलती है, जो मुंबई से हैं। अगर मैं राशन की दुकान पर जाता हूं, तो वे मेरा आधार कार्ड मांगते हैं और मेरा बिहार का पता देखकर मुझे मना कर देते हैं।
उन्होंने कहा कि श्रमिक कोविड-19 की तीसरी लहर से डरे हुए हैं और पहले से ही जाने की योजना बना रहे हैं। वे बार-बार श्रम प्रबंधकों से लॉकडाउन की स्थिति में उन्हें पहले से सचेत करने के लिए कहते हैं।
श्रमिकों में अपने गृह नगरों में नौकरी के अवसरों की उत्कट इच्छा है। इसके अलावा वे केंद्र और राज्यों से मिलने वाली कल्याणकारी सहायता तक पहुंच चाहते हैं, भले ही वे कहीं भी काम करते हों और वे अपने बच्चों के लिए शैक्षिक सहायता चाहते हैं, जो स्कूल बंद होने के परिणामस्वरूप डिजिटल शिक्षण-प्रशिक्षण विभाजन में पीछे रह गए हैं।
पिछले महीने स्वान की रिपोर्ट में देखा गया कि इस साल कोविड -19 की दूसरी लहर की चोट महिलाओं और बच्चों को झेलनी पड़ी है। कुमारी ने कहा कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं मानसिक रूप से ज्यादा पीडि़त हैं। उन्होंने कहा कि घर पर नौकरी के अवसर होने चाहिए। हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के बारे में सुनते तो हैं, लेकिन हम अपने गांवों में ऐसा होता नहीं देखते हैं।
