भले ही सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ पुराने बैंकों का निजीकरण जरूरी हो गया है, लेकिन हमें इसे लेकर भी सतर्क रहना होगा कि यह कार्य जल्दबाजी में न किया जाए। बिजनेस स्टैंडर्ड के ‘बीएफएसआई समिट – बैंक प्राइवेटाइजेशन: अनडूइंग 1969’ में विशेषज्ञों ने कहा कि निजीकरण की नीतियां तय करते हुए सरकार का दृष्टिकोण तयशुदा रास्तों पर आधारित होना चाहिए।
एनसीएईआर में आईईपीएफ चेयर प्रोफेसर केपी कृष्णन ने कहा, ‘आज, हमारी नीति, पथ प्रदर्शक होगी। यह सरकार बेहद स्पष्ट और बैंकों के निजीकरण की दिशा में अपनी इच्छाएं जाहिर करने के लिए बेहद निष्पक्ष है, लेकिन यह ‘झटके’ में नहीं हो सकती।’ भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर एसएस मूंदड़ा ने इसी तरह के विचार व्यक्त करते हुए कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण दशकों लंबी यात्रा है। यह एक या दो साल में नहीं हो रहा है।
बोस्टन कंसल्टिंग गु्रप के जन्मेजय सिन्हा ने कहा कि जब हम दक्षता के साथ साथ स्थायित्व लाना चाहेंगे तो हमें नियमन को मजबूत बनाने की जरूरत होगी, जिससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि बैंकों पर संकट पैदा न हो। इसलिए नियमन पर खास ध्यान देने की जरूरत होगी।
इस साल अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा था कि आईडीबीआई बैंक के अलावा, सरकार दो अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी का निजीकरण करेगी। इसके अलावा बैंकिंग को सरकार द्वारा नई निजीकरण नीति के तहत महत्वपूर्ण क्षेत्र के तौर पर घोषित किा गया था, जिसका मतलब है कि सरकार की इस क्षेत्र में सिर्फ सीमित पहुंच होगी।
एसबीआई के पूर्व चेयरमैन रजनीश कुमार ने कहा, सरकारी स्वामित्व का फायदा यह है कि जमाकर्ताओं को पूरा भरोसा रहता है। इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि सिस्टम में काफी कठोरता और अक्षमता होती है। बोर्ड की गुणवत्ता, मुआवजा ढांचे में कठोरता और एचआर पॉलिसी उनमें से कुछ हैं। उन्होंने कहा, आज बैकिंग क्षेत्र के पास पहले के मुकाबले काफी सस्ती लागत पर सेवा देने की क्षमता है। ऐसे में आज हम आत्मविश्वास के साथ निश्चित तौर पर चर्चा कर सकते है कि हमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दरकार है। उन्होंने कहा, सरकार के पास स्वामित्व क्यों होना चाहिए? आरबीआई का नियमन तटस्थ स्वामित्व वाला है। ऐसे में कौन सा खास मकसद होता है जब हम कहते हैं कि हमें अभी भी पीएसबी की दरकार है। बैंंकिंग सिस्टम आज देश के हर हिस्से में सेवाए देने में सक्षम है। मुंद्रा ने 1969 मेंं हुए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की तीन आधारभूत वजहें बताई : बैंकों का ज्यादातर क्रेडिट घोर पूंजीवादियोंं के पास जा रहा था, आम लोगों तक बैंंकिंग सेवा नहींं पहुंच रही थी और औपचारिक बैंंकिंग क्रेडिट के लिहाज से कृषि क्षेत्र को छोड़ दिया गया था। निजीकरण का तर्क दो वजहों से दिया जाता है मसलन यह ज्यादा क्षमता प्रदान करेगा और सरकार को बैकों को पूंंजी मुहैया कराने के दायित्व से मुक्त करेगा। मूंदड़ा ने कहा कि क्षमता से ज्यादा मसला पूंजी का है। बैंकों को न सिर्फ खुद को चालू रखने के लिए अस्तित्व वाली पूंंजी चाहिए बल्कि बैंकों को बढ़त के लिए भी पूंंजी चाहिए क्योंंकि लाभ कभी भी पर्याप्त नहीं होगा। उन्होंंने प्रस्ताव किया कि निजीकरण के मामले में सरकार विभिन्न मॉडल में संभावना तलाश सकती है।