उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में कुछ सप्ताह पहले बड़ागांव गांव के सतबीर त्यागी चारपाई पर लेटे हुए थे, जबकि उनके भतीजे नितिन ही सारी बातें कर रहे थे। यह संवाददाता कई मौजूदा मसलों पर उनके भतीजे के साथ बातचीत कर रहा था। जैसे ही बातचीत का रुख कृषि, गन्ना, उर्वरक की कमी और कच्चे माल की बढ़ती लागत की ओर मुड़ा, तो सतबीर भी उत्साहपूर्वक चर्चा में शामिल हो गए।
सतबीर ने कहा ‘पहले चीजें काफी बेहतर थी, जब हमारी उत्पादन लागत इतनी अधिक नहीं बढ़ी थी, जबकि गन्ने जैसी फसल का प्रतिफल ज्यादा अच्छा था।’
आमदनी बढ़ाने के लिए पिछले कुछ सालों के दौरान गेहूं की खरीद में वृद्धि के दावों पर त्यागी ने दावा किया कि कई खरीद केंद्रों के संबंध में आंकड़े कुछ भ्रामक हैं, व्यापारियों ने सहकारी समितियों के अधिकारियों के साथ मिलकर मशीनरी का खेल खेला, जबकि किसान को शायद ही कभी लाभ मिला।
तीन विवादास्पद कृषि अधिनियमों को निरस्त करने के निर्णय के साथ एक साल पूरा करने वाले भारत में किसानों के सबसे लंबे और सबसे मुखर विरोध प्रदर्शनों में शामिल इस प्रदर्शन को सतबीर जैसे लोगों का मौन समर्थन प्राप्त है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर यह इसका चुनावी असर है जिसने केंद्र को यह कदम उठाने के लिए विवश किया होगा।
पंजाब में इन अधिनियमों के खिलाफ छिटपुट विरोध के रूप में शुरू होने वाला यह आंदोलन धीरे-धीरे मजबूत हुआ और देश के अन्य हिस्सों में फैल गया, खास तौर पर पड़ोस के हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में।
आंदोलन कर रहे किसानों की प्रमुख मांगों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी भी शामिल है। विरोध उस समय चरम पर पहुंच गया, जब पंजाब और अन्य जगहों के हजारों किसानों ने पिछले साल के अंत में दिल्ली की ओर कूच किया और प्रवेश से वंचित किए जाने के बाद मुख्य प्रवेश मार्गों को अवरुद्ध करने का फैसला किया। केंद्र ने अपनी तरफ से प्रदर्शनकारियों के साथ 11 दौर की चर्चा की तथा यहां तक कि कुछ प्रावधानों में संशोधन करने का भी प्रस्ताव रखा था, हालांकि इस संबंध में ज्यादा सफलता नहीं मिली। अपनी एक प्रमुख मांग पूरी होने के बाद अब किसान सरकार पर एमएसपी देने के लिए दबाव बनाने की दिशा में बढऩे लगे हैं। हालांकि शनिवार को संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के तत्वावधान में विरोध कर रहे किसानों ने अगले सप्ताह संसद तक अपने निर्धारित ट्रैक्टर मार्च को स्थगित करने का फैसला किया था, लेकिन उन्होंने 4 दिसंबर को फिर से बैठक करने का फैसला किया है, ताकि इस बात का आकलन किया जा सके कि दोनों सदनों में उनकी मांगों पर क्या प्रगति हुई है। एसकेएम ने सरकार से बातचीत की प्रक्रिया को फिर से शुरू करने और सभी लंबित मसलों पर चर्चा करने का भी आह्वान किया है।
अपनी तरफ से केंद्र ने पराली जलाने को अपराध नहीं मानने की एक और मांग को स्वीकार कर लिया है और इस बात पर जोर दिया है कि जैसा कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की गई है, वह जल्द ही राज्य और केंद्रीय अधिकारियों के साथ-साथ किसान समूहों के प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और अन्य हितधारकों के साथ एक समिति का गठन करेगा, ताकि लंबित मुद्दों पर चर्चा की जा सके, जिनमें एमएसपी को अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी बनाना भी शामिल है। इन सभी मांगों में से एमएसपी को कानूनी रूप देना अत्यंत जटिल और पेचीदा काम है। इसका स्वरूप और तरीका कई कारकों पर निर्भर करेगा और इसका परिणाम दूरगामी तथा चिरस्थायी हो सकता है।
निजी व्यापारियों द्वारा खरीदी जाने वाली कृषि फसलों की न्यूनतम दर तय करने के पिछले प्रयास सफल नहीं रहे हैं। अगस्त 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के एपीएमसी अधिनियम में संशोधन करने का फैसला किया था, जिससे किसी निजी व्यापारी के लिए सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी से कम पर कृषि उपज खरीदना अवैध हो सके।
इस संशोधन में कहा गया है कि ऐसा कोई भी व्यापारी, जो एमएसपी पर कृषि वस्तु खरीदने में विफल रहता है, तो उसे एक साल का कारावास या 50,000 रुपये का जुर्माना हो सकता है।
राज्य के मंत्रिमंडल द्वारा पारित इस फैसले का व्यापारियों की ओर से कड़ा विरोध हुआ, क्योंकि खुले बाजार की दरें सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य से कम थीं। आखिरकार इस प्रस्ताव को त्यागना पड़ा। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने नवंबर 2020 में कृषि-विरोधी अधिनियमों के विरोध की पृष्ठभूमि में जारी एक नीति पत्र में कहा है कि अनुभव के साथ-साथ आर्थिक सिद्धांत इस बात की ओर संकेत करता है कि मांग और आपूर्ति द्वारा समर्थन नहीं किए जाने वाला मूल्य स्तर कानूनी माध्यम से कायम नहीं रह सकता है। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) के निदेशक एस महेंद्र देव ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा कि उन्हें नहीं लगता कि सी2 (कृषि लागत)+50 प्रतिशत पर एमएसपी को कानूनी रूप देना व्यावहारिक है जैसा कि किसान समूहों द्वारा मांग की जा रही है क्योंकि यह निजी व्यापार को बंद कर देगा और बाजार को विकृत कर देगा, जो मांग और आपूर्ति के सामान्य सिद्धांत पर काम करता है। उन्होंने कहा कि जब भी उत्पादन मांग से अधिक होगा और बाजार में दामों में गिरावट होगी, तब कोई भी पूर्व-निर्धारित मूल्य निजी व्यापारियों को दूर भगा देगा। देव ने कहा कि इसके विपरीत यह सरकार को वास्तव में उस अधिकांश कृषि उपज की प्राथमिक खरीदार बनने की ओर ले जाएगा, जिसके लिए एमएसपी घोषित किया गया है, जो कि अव्यावहरिक है। उन्होंने कहा कि इसके बजाय सरकार को किसानों की मदद के लिए मध्य प्रदेश की भावांतर भुगतान योजना (बीबीवाई) या किसी अन्य मूल्य समर्थन प्रणाली पर ध्यान देना चाहिए, हालांकि यहां लागत एक प्रमुख कारक रहती है। देव ने कहा कि मुझे लगता है कि केंद्र को एमएसपी का भरोसा देने के लिए किसी अन्य तरीके पर विचार करना चाहिए ताकि यह निश्चित हो सके कि भविष्य में कोई भी सरकार इसमें फेर-बदल न कर सके।’
हालांकि अहमदाबाद के आईआईएम में सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर (सीएमए) के प्रोफेसर और अध्यक्ष सुखपाल सिंह को लगता है कि एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी के पूरे मुद्दे की गलत व्याख्या की जा रही है। उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार हर किसी से सब कुछ खरीदती है, बल्कि इसका मतलब है कि सरकार को कीमतों में गिरावट की स्थिति में बाजारों में हस्तक्षेप करने से संकोच नहीं करना चाहिए, जो कि वैसे भी बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) जैसी योजनाओं के जरिये किया जाता है।
