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केन-बेतवा संपर्क परियोजना की जटिलताएं

Last Updated- December 12, 2022 | 6:17 AM IST

केन-बेतवा नदी को जोडऩे की योजना 1980 के दशक में बनाई गई थी। तब से दो विशेषण-लंबित और विनाशकारी इससे जुड़े रहे। यह परियोजना इस वजह से लंबित रही क्योंकि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जल बंटवारे के फॉर्मूले पर सहमत नहीं हो सके। यह परियोजना विनाशकारी इसलिए कि अगर इस परियोजना का काम पूरा होता तब गांव, जंगल, नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को तबाही का सामना करना पड़ता।
केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने 22 मार्च को ‘विश्व जल दिवस’ के मौके पर इस परियोजना के लिए भाजपा शासित दोनों राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच एक समझौता ज्ञापन कराने की पहल की जिससे इस परियोजना से जुड़ा ‘लंबित’ विशेषण खत्म हो गया। हालांकि दूसरा विशेषण ‘विनाशकारी›’ अब भी कायम है।
दावा और प्रतिदावा
इस परियोजना की लागत अनुमानत: 35,000 करोड़ रुपये हो सकती है और इससे केन नदी घाटी से अतिरिक्त पानी बेतवा में चला जाएगा। बेतवा की ऊपरी नदी घाटी में फि लहाल पानी की कमी है। इस परियोजना में दौधन बांध और दोनों नदियों को जोडऩे वाली नहर का निर्माण शामिल है। एक सरकारी बयान के अनुसार इससे 10.6 लाख हेक्टेयर की सालाना सिंचाई होगी और करीब 62 लाख लोगों को पेयजल की आपूर्ति की जाएगी। इसकी बदौलत 103 मेगावॉट पनबिजली का उत्पादन भी होगा। इसमें कहा गया है, ‘यह परियोजना बुंदेलखंड के कम पानी वाले क्षेत्रों  खासकर पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर, सागर, दमोह, दतिया, विदिशा, शिवपुरी और मध्य प्रदेश के रायसेन और उत्तर प्रदेश के बांदा, महोबा, झांसी और ललितपुर जिलों के लिए काफी फायदेमंद होगी।’
बुंदेलखंड सबसे शुष्क और सबसे कम विकसित क्षेत्र में से एक है जिसके कुछ इलाके उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों क्षेत्रों में हैं। इस क्षेत्र में पन्ना टाइगर रिजर्व है जो बाघों के प्रमुख प्रजनन स्थलों में से एक है। ‘यमुना जिये अभियान’ के संयोजक और प्रमुख मनोज मिश्रा ने कहा, ‘अगर केन पर कोई बड़ा बांध बनता है तो इससे यह नदी और पन्ना बाघ अभयारण्य दोनों ही खत्म हो जाएंगे। यह अभयारण्य लुप्तप्राय गिद्धों और घडिय़ालों के लिए घर है।’ इस क्षेत्र में जानवरों की कई दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियां भी पाई जाती हैं। कई अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि केन नदी का एक अद्वितीय भूविज्ञान है। कुछ भूवैज्ञानिकों ने तो केन को ‘भूवैज्ञानिक चमत्कार’ कहा है। मिश्रा के मुताबिक बुंदेलखंड को फ ायदा पहुंचाने के बजाय यह परियोजना विदिशा, रायसेन और भोपाल के ऊपरी बेतवा क्षेत्रों की जरूरत को पूरा करने के लिए बनाया गया है और यह बुंदेलखंड की अपनी जीवनदायिनी नदी को छीन लेगा।  
परियोजना के लिए कराये गए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) के अनुसार 4,000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी और और करीब 1,585 परिवारों वाले करीब 10 गांव भी प्रभावित हो जाएंगे। परियोजना के ईआईए का यह भी दावा है कि इस परियोजना से पन्ना बाघ अभयारण्य को अतिरिक्त पानी मिलेगा।
हालांकि इस क्षेत्र में काम कर रहे पर्यावरणविद इससे असहमत हैं। नदी शोधकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा, ‘परियोजना की वजह से करीब 9,000 हेक्टेयर जमीन जलमग्न हो जाएगी और इसमें से 6,000 हेक्टेयर बाघ अभयारण्य में है। बाघों का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रजनन स्थल जलमग्न हो जाएगा।’ अग्रवाल ने नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का सार्वजनिक रिकॉर्ड बनाने के लिए 2018 में केन नदी के किनारे दौरा किया था।  
इस परियोजना के तहत बेतवा की ऊपरी नदी घाटी पर बांध बनाने और इसके आसपास ही नदी के ऊपरी क्षेत्रों में पानी रोकने और केन के पानी को दूसरी तरफ  ले जाने की योजना है ताकि पानी की कमी पूरी की जा सके। दिक्कत यह है कि केन में अतिरिक्त पानी नहीं है। यह पिछले मॉनसून सीजन के दौरान भी सूख गया था। अग्रवाल कहते हैं, ‘ऐसे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं जिससे कि यह अंदाजा हो कि केन में अतिरिक्त पानी है। जिन स्थानों से पानी आएगा वहां अपेक्षाकृत उन जगहों के मुकाबले कम बारिश होती है जहां यह पानी जाएगा। केन गंगा नदी घाटी का हिस्सा है और यह सीमा पार क्षेत्र में भी है इसी वजह से पानी छोड़े जाने की मात्रा से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक मंच पर नहीं हैं।’ सीमा पार नदियों द्वारा छोड़े जाने वाले जल के आंकड़े राष्ट्रीय सुरक्षा की वजह से सरकार द्वारा सार्वजनिक तौर पर साझा नहीं किए जाते हैं।
कमजोर कानूनी आधार
पर्यावरण और पारिस्थितिक चुनौतियों के अलावा परियोजना का कानूनी आधार कमजोर है। परियोजना के लिए वन, पर्यावरण और वन्यजीव जैसी तीन प्रमुख मंजूरी नहीं मिली है।
बांधों, नदियों और जनजीवन पर दक्षिण एशिया नेटवर्क (एसएएनडीआरपी) के समन्वयक पर्यावरण और जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर ने कहा, ‘परियोजना को अंतिम वन मंजूरी नहीं मिली है। पहले चरण की वन मंजूरी उन शर्तों पर है जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता क्योंकि वन सलाहकार समिति ने सुझाव दिया था कि बिजली संयंत्र से जुड़ी चीजों को वन/वन्यजीव क्षेत्र से बाहर रखा जाना चाहिए। इसमें परियोजना की योजना पर फिर से काम करने और नए सिरे से लागत-मुनाफे का विश्लेषण किए जाने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय के तहत सीईसी द्वारा वन्यजीव मंजूरी को चुनौती दी जाती है और पर्यावरण मंजूरी को भी एनजीटी द्वारा चुनौती दी जाती है।’
सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) की नियुक्ति कर लिंक की जरूरत और उसकी व्यवहार्यता पर गंभीर सवाल उठाए थे। सीईसी ने कहा, ‘ऊपरी केन नदी घाटी में सिंचाई सुविधा तैयार करने के लिए सभी पानी खर्च होने की संभावनाओं का आकलन किए बिना बेतवा नदी घाटी में पानी भेजने के लिए केन नदी घाटी में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का अनुमान पूरी तरह से सही नहीं लगता है, खासतौर पर इस लिहाज से जब इसमें 28,000 करोड़ रुपये कि सार्वजनिक पूंजी का निवेश शामिल है।’
आगे का रास्ता
ठक्कर ने कहा कि इस परियोजना के लिए अब नए सिरे से विस्तृत परियोजना रिपोर्ट और लैंडस्केप प्रबंधन योजना तैयार करने की जरूरत होगी। उन्होंने कहा, ‘सीईसी की रिपोर्ट पर सरकार की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं मिली है और न ही एनजीटी की याचिका पर कोई जवाब मिला है। 2016 में, एफ एसी ने बैठक का ब्योरा देते हुए इस बात का जिक्र किया था कि इस विकल्प को देखते हुए इस परियोजना को मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए।’
कई विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार द्वारा इस तरह की विशाल परियोजना शुरू करने से पहले स्थानीय सिंचाई के साधन खत्म कर दिए जाने चाहिए। अग्रवाल दो स्थानीय सिंचाई कार्यक्रमों का जिक्र करते हैं, ‘बांदा में अपना तालाब अभियान जिसे पुष्पेंद्र भाई ने शुरू किया है जबकि प्रेम सिंह ने आवर्तनशील खेती का रास्ता दिखाया है। जब इन दो अभियानों का संयुक्त रूप से मूल विचार यह है कि बारिश के पानी को इक_ा किया जाए और इसका इस्तेमाल जैविक खेती के लिए किया जाए। इसमें झीलों के निर्माण, जैविक खेती के जरिये स्थानीय अनाज, फ सलों और फ लों का उत्पादन करना शामिल है।
अग्रवाल कहते हैं, ‘अतिरिक्त पानी और जिन क्षेत्रों में अधिक पानी की जरूरत है उसका पूरा विचार ही इस  समझ पर आधारित है कि सभी पारिस्थितिकी तंत्र में पानी की कुछ मात्रा जरूरत है। हालांकि अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्र में स्वाभाविक रूप से पानी को सोखने और बनाए रखने की अलग क्षमता होगी। जब इतने बड़े पैमाने पर जल हस्तांतरण की परिकल्पना की जाती है तब जलवायु परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
अग्रवाल के अनुसार, विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में एक ही तरह की खेती पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हरित क्रांति से खाद्य सुरक्षा तो आई लेकिन फ सल विविधता पर जोर दिया जाना चाहिए। वह कहते हैं, ‘हमें स्थानीय कृषि जलवायु क्षेत्रों की तर्ज पर फिर से सोचना शुरू करने और जैविक खेती तथा स्थानीय उत्पादों का समर्थन करने की जरूरत है।’ इससे भूजल के दोहन को रोकने के साथ-साथ पानी की आवश्यकता को भी कम किया जा सकता है।

First Published - April 4, 2021 | 11:31 PM IST

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