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Hindi Diwas 2023: ‘तकनीक और मशीनों ने हमारी स्मृतियां छीन ली हैं’- राजेश जोशी

हिंदी के प्रकाशकों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जो प्रकाशक कभी बहुत साधारण हुआ करते थे वे आज करोड़पति हैं लेकिन लेखक की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

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संदीप कुमार   
Last Updated- September 14, 2023 | 9:51 AM IST

राजेश जोशी समकालीन हिंदी कविता के सबसे सुपरिचित कवियों में हैं। जोशी को गहन स्मृतियों से भरी स्थानीयता का उत्सव मनाती कविताओं के लिए जाना जाता है और उनकी राजनीतिक कविताएं अपने मुखर संदेश के लिए अलग पहचान रखती हैं। जोशी के प्रमुख कविता संग्रह हैं ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हंसी’, ‘दो पंक्तियों के बीच’ और ‘ज़िद’ आदि।

उन्होंने बाल कविताएं भी लिखी हैं। उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हैं और उन्होंने मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद तथा शिवाजी सावंत के उपन्यास ‘मृत्युंजय’ का नाट्य रूपांतरण भी किया है। कविता संग्रह ‘दो पंक्तियों के बीच’ के लिए उन्हें 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था, जिसे उन्होंने 2015 में लेखकों पर बढ़ते हमलों के प्रतिरोध स्वरूप लौटाने की घोषणा की थी। जोशी ने साहित्य और हिंदी के तमाम पहलुओं पर संदीप कुमार से बात की। प्रमुख अंश:

कविताओं और साहित्य से जुड़ाव कैसे हुआ?

मैंने छठी-सातवीं कक्षा में लिखना शुरू कर दिया था लेकिन वह सही मायने में लिखना नहीं था। लिखना एक बहुत ही सचेत गतिविधि है। मैंने सही मायनों में लिखना सन 1972-73 में शुरू किया जब मेरी मित्रता नक्सलबाड़ी आंदोलन से निकले कवि वेणुगोपाल से हुई।

वह नक्सल आंदोलन में गिरफ्तार हुए थे जो हिंदी जगत के लिए एक बड़ी घटना थी। हमने भोपाल में एक ही कमरे में रहना शुरू किया और तब साहित्य को लेकर मेरी समझ बनी। 1972 के अंत या 1973 के आरंभ में बीकानेर से निकलने वाली पत्रिका ‘वातायन’ में मेरी पहली कविता छपी।

क्या हिंदी में कोई लेखक केवल लेखन से आजीविका चला सकता है?

यह एक पुरानी और बड़ी बहस है। कुछ लेखकों ने ऐसा किया है। उदाहरण के लिए हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने नौकरी छोड़ी और लेखन किया। शैलेश मटियानी ने एक बार मुझसे कहा कि मैं कभी नौकरी नहीं करूंगा केवल स्वतंत्र लेखन करूंगा। मेरी उनसे बहस हुई और मैं अपने तर्कों पर आज भी कायम हूं। मैंने उनसे कहा कि नौकरी में केवल एक बंधन होता है लेकिन फ्रीलांस करने वालों को तो कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं। हिंदी में यह कभी परंपरा नहीं बन पाई।

बांग्ला की बात करें तो वहां दीवाली के आसपास पूजा अंक निकलते थे। कई लेखक पूजा अंक के लिए लिखते थे और उन्हें इतना पैसा मिल जाता था कि वे साल भर के लिए निश्चिंत हो जाते थे। विदेशों में प्रकाशक लेखकों से पूर्व अनुबंध कर लेते हैं। उन्हें एक उपन्यास से ही इतना पैसा मिल जाता है कि वे वर्षों तक गुजारा कर सकते हैं। हिंदी लेखक स्वतंत्र लेखन से गुजारा नहीं कर सकता।

हमारे यहां यह परंपरा क्यों विकसित नहीं हो सकी? क्या इसके लिए प्रकाशक भी दोषी हैं?

हिंदी के प्रकाशकों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जो प्रकाशक कभी बहुत साधारण हुआ करते थे वे आज करोड़पति हैं लेकिन लेखक की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। रॉयल्टी पर स्पष्टता नहीं है। दरअसल हिंदी का लेखक समाज प्रकाशकों पर कभी किसी तरह का दबाव नहीं बना सका। यह सही है कि बड़े लेखकों को कुछ पैसे मिलते भी हैं लेकिन वह राशि भी सम्मानजनक नहीं है।

निर्मल वर्मा की रॉयल्टी पर विवाद हुआ था जब गगन गिल ने सारे अधिकार प्रकाशकों से वापस ले लिए थे। वह भी कोई बहुत बड़ी राशि नहीं थी। साल भर में अगर आपको तीन-चार लाख रुपये मिल भी जाएं तो यह कौन सी बड़ी राशि है? आजकल तो प्रोफेसरों का मासिक वेतन लाख-डेढ़ लाख रुपये है। निर्मल वर्मा तो किसी भी प्रोफेसर से अधिक योग्य थे।

क्या हिंदी प्रकाशन जगत में अभी भी पेशेवर गतिविधियों का अभाव है? क्या प्रकाशक भी गंभीर और लोकप्रिय साहित्य में भेद करते हैं?

हिंदी का कोई भी प्रकाशक पेशेवर नहीं है। वह बिक्री के बहीखाते, रॉयल्टी आदि के बारे में स्पष्टता नहीं रखता, अनुबंध नहीं करता। हिंदी का प्रकाशक बुनियादी रूप से ऐसे व्यवहार करता है जैसे वह किताब छापकर लेखक पर अहसान कर रहा है। लेखन भी गंभीर और लोकप्रिय के खांचे में बंटा हुआ है लेकिन यह सीमा रेखा धुंधली पड़ी है।

हिंदी में लोकप्रिय लेखन भी बहुत कम हुआ है। गुलशन नंदा वगैरह को गिनें तो बहुत छोटे पैमाने पर हुआ। बांग्ला में विमल मित्र जैसे लोकप्रिय लेखक हुए। वह साहित्यिक लेखक नहीं माने जाते लेकिन वह इतने बड़े लेखक हैं कि हिंदी में उनके जैसा कोई लोकप्रिय लेखक नहीं हुआ।

मराठी में शिवाजी सावंत इतने लोकप्रिय लेखक हैं कि उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। उनका उपन्यास ‘मृत्युंजय’ लोगों ने एक नहीं कई-कई बार पढ़ा है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि इसमें स्तरीय लोकप्रिय लेखक नहीं हुए।

हिंदी में ‘मृत्युंजय’ जैसा लोकप्रिय उपन्यास आप किसे मानते हैं?

हिंदी में वैसी लोकप्रियता धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ को मिली। एक समय युवाओं ने उसे 20-20 बार पढ़ा। वह बुनियादी तौर पर एक गहरे साहित्यिक लेखक थे लेकिन उनका वह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। गुलशन नंदा इसलिए ज्यादा पढ़े गए क्योंकि उनके उपन्यासों पर कई फिल्में बनीं। हिंदी में लोकप्रिय साहित्य नदारद है जबकि वही गंभीर साहित्य की ओर ले जाने वाला पुल है।

हाल के दिनों में हिंदी में लोकप्रिय पुस्तकों का प्रकाशन बढ़ा है। इसमें साहित्यिक और साहित्य से इतर दोनों तरह की पुस्तकें शामिल हैं।

हां निश्चित रूप से ऐसा हुआ है। मानव विकास पर युवाल नोआ हरारी की किताबों के अनुवाद हुए। दा विंची कोड का अनुवाद हुआ। दा विंची कोड एक लोकप्रिय उपन्यास है। हरारी की किताबें बेस्ट सेलर हो गईं। उनकी किताब ‘सेपियंस’ की बात करें तो वह आज तक के सभी सिद्धांतों को उलटती है और कहती है कि मनुष्य ने आज तक जो किया गलत किया। मनुष्य का हर कदम प्रकृति विरोधी है। यह कोई नई थ्योरी नहीं है। इसमें चौंकाने वाला तत्व है जो लोगों को बहुत पसंद आया। उसे पढ़ते हए यह नहीं लगा कि कोई नई बात कही।

हरारी ने मनुष्यता को पूरी तरह कठघरे में खड़ा कर दिया। यह कोई नई बहस नहीं है। यह बहस हमारे पुराणों में भी है। देवताओं और राक्षसों का संघर्ष यही था। देवता यज्ञ करते थे और राक्षस जो रक्ष संस्कृति से आते थे वे वनों को बचाने के लिए उन पर हमला करते थे क्योंकि जंगलों को काटकर हवन और नागरीकरण किया जा रहा था। यह बहुत दिलचस्प है कि भारत में दो ही तरह के समाज थे या तो नागर समाज या अरण्यक समाज। पूरे पौराणिक साहित्य में गांव कहीं नहीं मिलते। गांव तब बनता है जब कृषि आती है। वह बहुत आधुनिक चीज है।

आपने बच्चों के लिए भी लिखा है। हिंदी में बाल साहित्य की क्या स्थिति है?

हिंदी में बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं लिखा गया। बच्चों पर चीजें थोपी गईं। उन्हें बस यही बताया गया कि सच बोलना बहुत अच्छी बात है, झूठ बोलना पाप है, दूसरों की मदद करो वगैरह…वगैरह। हमारे यहां बाल साहित्य नैतिकता, आदर्श और राष्ट्रीयता के पाठ पढ़ाता रहा। हमने पाठ्यक्रम में भी यही किया।

विज्ञान की किताब के कवर पर लिखा है, ‘जिसने सूरज चांद बनाए, जिसने तारों को चमकाया’ लेकिन अंदर गैलीलियो कुछ और बता रहा है। इस तरह बच्चों में विरोधाभासी विचार डाले गए। बाल साहित्य में प्रकाशकों ने भी ज्यादा रुचि नहीं ली। मैं बच्चों के लिए जो कुछ लिख रहा हूं, कोशिश है कि उनमें झूठी नैतिकताएं आरोपित न करूं। दृश्य बदला है लेकिन जिस पैमाने पर होना चाहिए वह नहीं हुआ है।

बच्चों के लिए लिखते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

आपके दिमाग में यह साफ होना चाहिए कि आप किस उम्र के बच्चों के लिए लिख रहे हैं। भाषा के स्तर पर भी और विषयवस्तु के स्तर पर भी यह मददगार होगा। बच्चों के साथ संवाद की प्रक्रिया अलग होती है। आप अपने बच्चों से बात करते हुए वह भाषा नहीं बोलते जो आप अपने पिता से बोलते हैं। शमशेर बहादुर सिंह ने जब ‘एलिस इन वंडरलैंड’ का अनुवाद किया तो वह रोज बच्चों को अपना अनुवाद सुनाते थे और जो शब्द समझने में बच्चों को मुश्किल होती थी उन्हें बदलते थे।

वर्तमान में आप लेखन में कौन सी चुनौतियां देखते हैं?

सन 1990 के दशक के बाद परिवर्तन की गति बहुत बढ़ गई है। लोगों के सामने नई चुनौतियां आई हैं। सभी लेखकों के लिए यह चुनौती रही है कि तेजी से बदलती तकनीक से कदमताल कैसे किया जाए। पहले हमारी स्मृतियों का बहुत बड़ा हिस्सा दिमाग में रहता था। अब वह स्मृति स्मार्टफोन में रहने लगी। तकनीक और मशीनों ने हमारी स्मृतियां छीन ली हैं। इसने सृजनात्मकता पर असर डाला। इससे बहुत सारे नए संकट आए। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम मेधा से एक नया संकट आया है।

क्या यह खतरा भी है कि आने वाले दिनों में मशीनें गल्प लेखन में भी चुनौती बन सकती हैं?

मैं नहीं मानता। रचनात्मकता में बिना मनुष्य के कुछ नहीं हो सकता। यह सीधे लेखन के लिए कितना खतरा बनेंगी इस बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन यह लोकप्रिय लेखन को जरूर चुनौती देंगी क्योंकि वह सूचनाओं पर बहुत अधिक आधारित होती हैं। सूचनाओं से चौंकाने वाला लेखन मशीनें सीख सकती हैं। परंतु रचनात्मकता को कोई मशीन प्रतिस्थापित नहीं कर सकती है।

अनुवाद भी हिंदी में रोजगार का बहुत बड़ा जरिया रहा है। मशीनों की अनुवाद करने की क्षमता बहुत सुधर गई है। क्या यह रोजगार के लिए खतरा हो सकता है?

यह एक समस्या हो सकती है क्योंकि अनुवाद के लिए दो भाषाएं आना जरूरी है। हिंदी में जो भी अनुवाद होता है वह दरअसल अनुवाद का अनुवाद होता है यानी पहले मूल भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद होता है फिर उसका हिंदी में अनुवाद होता है। संभव है कि आने वाले समय में तकनीक की मदद से सीधे मूल भाषा से हिंदी में अनुवाद किया जा सके। उसमें एक ही संकट आएगा और वह यह कि जब आप रचनात्मक लेखन का अनुवाद करेंगे तो शब्दश: अनुवाद से काम नहीं चल पाएगा।

रचनात्मक अनुवाद दरअसल पुनर्रचना होता है। मशीन कविता का अनुवाद नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके साथ एक पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। मशीन अनुवाद का एक आधार दे सकती है जिसे सुधारकर उपयोग में लाया जा सकता है।

नए लेखकों के पास अनुभव और स्मृतियां बटोरने का समय बहुत कम है। उन्हें आपकी क्या सलाह है?

रचना के कुछ स्थायी तत्व होते हैं। अनुभव सबके सीमित ही होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि स्वानुभव से साहित्य नहीं रचा जाता है। इसके लिए परानुभव बहुत जरूरी है। परकाया प्रवेश करना पड़ता है। जब तक आप लोगों से नहीं मिलेंगे, उनके अनुभव को अपना अनुभव नहीं बनाएंगे, तब तक आपका संसार सीमित रहेगा। एक आदमी का निजी अनुभव बहुत बड़ा नहीं होता। जितना अधिक अनुभव होगा उतना नयापन आपके लेखन में आएगा।

देश के मौजूदा, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात को एक लेखक के रूप में आप कैसे देखते हैं?

पूरी दुनिया में भूमंडीलकरण के साथ आई वैश्विक अर्थव्यवस्था की अवधारणा विफल हो गई है। पहले जब एक व्यवस्था विफल होती थी तो पूंजीवाद दूसरी व्यवस्था पेश कर देता था। यही कारण है कि जब कींस का कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत विफल हुआ तब भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था का सिद्धांत पेश किया गया। इसने पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रतिस्थापित कर दिया।

अब जब यह सिद्धांत भी नाकाम रहा तो पूंजीवाद ने राष्ट्रवाद और धर्म के रूप में दो प्रमुख हथियारों को अपने बचाव में उतारा। भारत में धर्म एक बड़ा कारक बना। उधर अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप की जीत हुई और उन्होंने संरक्षणवाद पर बल दिया। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’, राष्ट्रवाद का नया नारा बना। दुनिया के अधिकांश देशों में दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतों की जीत हुई। यह केवल भारत में नहीं हुआ। इंगलैंड, फ्रांस, तुर्किए हर जगह यह हुआ।

पिछले वर्ष गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिला। विनोद कुमार शुक्ल को पेन अमेरिका पुरस्कार मिला। हिंदी के साहित्यिक लेखन को इससे क्या लाभ होगा?

हिंदी साहित्य बहुत कम बाहर गया। इसमें अच्छे अनुवाद का न होना प्रमुख वजह रही। कहा जाता है कि रवींद्रनाथ ठाकुर के बाद अगर शरतचंद्र या प्रेमचंद का अच्छा अनुवाद होता तो हमें और भी नोबल पुरस्कार मिल सकते थे। खुद रवींद्रनाथ की अंग्रेजी विक्टोरियन अंग्रेजी थी जो अच्छी नहीं मानी जाती थी। उनकी रचना ‘गीतांजलि’ का अनुवाद करने वाले दिग्गज ब्रिटिश कवि यीट्स तक ने कहा था कि रवींद्रनाथ को अपनी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अंग्रेजी बहुत पुरानी पड़ चुकी है।

भाषा में बहुत तेज बदलाव होते हैं। हिंदी को ही लीजिए, 150 साल में यह भाषा कहां से कहां आ गई। भारतेंदु की भाषा और आज की हिंदी में जमीन आसमान का अंतर है। हिंदुस्तानी लेखक बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं लिखते और इसलिए भारत के अंग्रेजी साहित्य को बहुत अधिक मान्यता नहीं मिली। जो लोग यहां से जाकर वहीं रहने लगे। उन्हें जीवंत भाषा का ज्ञान हुआ। वे सफल लेखक हैं।

हिंदी के बहुत कम लेखक बाहरी दुनिया के संपर्क में आ पाते हैं। अभी आप ही ने विनोद कुमार शुक्ल और गीतांजलि श्री का नाम लिया। यह अच्छी बात है कि हिंदी बाहर जा रही है लेकिन उनके लिए वह हिंदी नहीं है। इससे हिंदी को लेकर विदेशियों के मन में कोई ललक नहीं पैदा हुई, न ही हिंदी का कोई मान बढ़ा।

First Published : September 14, 2023 | 8:03 AM IST