हरियाणा के करनाल जिले के एक प्रौढ़ किसान भूपिंदर सिंह नए पूसा डिकंपोजर को लेकर आशावादी हैं और उन्होंने एक संयंत्र संरक्षण कंपनी की सहायता से इसकेलिए आवेदन किया है जिसे उन्होंने प्रायोगिक आधार पर अपने खेत में शुरू किया है। सिंह कहते हैं कि यह समाधान ठीक लगता है लेकिन यह वास्तव में धान की पराली को पूरी तरह से सड़ाने में मददगार है या नहीं और इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अगली फसल की उपज पर इसका असर न पड़े यह देखना बाकी है।
सिंह कहते हैं, ‘सब कुछ नतीजों पर निर्भर करेगा।’ हालांकि वह यह भी स्वीकार करते हैं कि इसके शुरुआती नतीजे अच्छे रहे हैं। उन्होंने अपनी लगभग 30 एकड़ खेती वाली जमीन के एक हिस्से में पूसा डिकंपोजर लगाया है जहां हाल ही में समाप्त हुए खरीफ सीजन में बड़े पैमाने पर धान उगाई गई थी।
उस वक्त से लगभग आठ दिन बीत चुके हैं (जब संवाददाता 7 अक्टूबर को उनके खेत में गए थे)। खेत की जुताई और सिंचाई की प्रक्रिया पूरी होने के बाद सरसों की अगली फसल अंकुरित होने लगी है जबकि पराली सड़ रही है। सिंह यह स्वीकारते हैं, ‘मैंने पिछले कुछ सालों से धान की पराली जलाना बंद कर दिया है और इसका एक बड़ा कारण यह है कि मेरा खेत राष्ट्रीय राजमार्ग के पास है और अगर मामूली आग भी जलती है तो प्रशासन हम पर ही कार्रवाई करता है।’ भूपिंदर ने कहा कि अगले 20 दिनों में हमें पता चल जाएगा कि यह समाधान काम करता है या नहीं। उनके साथी किसान सुखविंदर सिंह मुफ्त में दिए गए पूसा डिकंपोजर का इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं और उन्हें लगता है कि अगर परिणाम अच्छे रहे तो किसान अपने खेतों को पर्यावरण अनुकूल तरीके से तैयार करने के लिए कुछ कीमत चुकाने से पीछे नहीं हटेंगे।
सुखविंदर ने संवाददाताओं के एक समूह से बात करते हुए कहा, ‘हमें ट्रैक्टर की मदद से अगली फसल के लिए खेत की जुताई कर तैयार करने के लिए लगभग 1,000 रुपये प्रति एकड़ खर्च करना पड़ता है जो डीजल की लागत जोडऩे पर 3,000 रुपये तक हो जाता है। अगर परिणाम अच्छा रहा तो हम कुछ और पैसे भी खर्च कर सकते हैं बशर्ते इससे अगर पराली जलाने की पूरी प्रक्रिया ही समाप्त हो जाए।’ संवाददाताओं का यह समूह उनके खेतों में उस प्रयोगात्मक नुस्खे की जानकारी लेने के लिए गया था जिससे लंबे समय के लिए पराली जलाने की समस्या का स्थायी समाधान मिल सकता है। पूसा बायो-डिकंपोजर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा तैयार किया गया एक जैव-एंजाइम है। यह पराली को सड़ा देता है और फिर यह खाद में बदल जाता है। इस तरह यह मिट्टी की गुणवत्ता में और सुधार लाता है और इसकी वजह से अगली फसल चक्र के लिए किसानों की खाद की लागत कम हो जाती है। 300 ग्राम पूसा स्प्रे 1 एकड़ की पराली को सड़ाने के लिए काफी है।
किसानों को मिट्टी की 50 प्रतिशत से 60 प्रतिशत नमी बनाए रखने की आवश्यकता होती है, पहले से ही खेत में (ठूंठ के साथ) बोए गए बीज नहीं होने चाहिए और स्प्रे के घोल के काम करने के लिए खेत से पुआल हटा होना चाहिए। नर्चर डॉट फार्म, एक संयंत्र संरक्षण कंपनी यूपीएल की एक सहायक कंपनी है जिसे आईएआरआई द्वारा नए पूसा डिकंपोजर को खेत में परीक्षण करने के लिए चुना गया है। यूपीएल ने फॉर्मूलेशन को पाउडर के रूप में बदल दिया है जिसे आसानी से पानी के साथ मिलाकर कंपनी द्वारा निर्दिष्ट किए गए खेत पर प्रायोगिक परीक्षण के रूप में मुफ्त में स्प्रे किया जा सकता है। कंपनी द्वारा परीक्षण करने के लिए लगभग 202, 000 हेक्टेयर जमीन की पहचान की गई है जो सबसे बड़ी है।
नर्चर डॉट फॉर्म के सीटीओ प्रणव तिवारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘प्रायोगिक परीक्षण से पहले खेतों के अध्ययन से पता चला है कि पूसा डिकंपोजर का इस्तेमाल पराली पर करने के बाद फसलों की पैदावार बढ़ गई क्योंकि यह मिट्टी को नुकसान पहुंचाए बिना अवशेषों को सड़ाने का एक प्राकृतिक तरीका है।’ पूसा डिकंपोजर से पहले अन्य डिकंपोजर उपलब्ध थे लेकिन उन्हें पुआल को सड़ाने में लगभग 60 दिन लगते थे जबकि नए डिकंपोजर को सड़ाने में 30 दिनों से भी कम समय लगता है जिससे किसान को अपनी पैदावार उपज प्रभावित होने की चिंता किए बिना अगली फसल बोने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा।
ये बड़े पैमाने पर कैप्सूल के रूप में थे जिन्हें बाद में पुआल पर छिड़कने की जरूरत होती थी जिससे इसे अपनाने में काफी मुश्किल हो जाता था। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ने कुछ दिन पहले पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में फैली लगभग 10 लाख एकड़ जमीन में बायो-डिकंपोजर सॉल्यूशंस का इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी। नर्चर डॉट फार्म के कारोबारी प्रमुख और मुख्य परिचालन अधिकारी (सीओओ) ध्रुव साहनी कहते हैं, ‘डिकंपोजर की नई किस्में पाउडर के रूप में उपलब्ध हैं जो पानी में घुलनशील हैं और पहले वाले डिकंपोजर के विपरीत सात से अधिक विभिन्न कवकों का समूह इसमें है। पहले यह कैप्सूल के रूप में था और इसमें कम संख्या में कवक थे पुआल को सड़ाने में अधिक समय लेते थे।’ लेकिन, भूपिंदर और सुखविंदर सिंह जैसे किसान इसे तभी अपनाएंगे जब उन्हें इसके अंतिम विश्लेषण में यह पता चलेगा कि इसकी संचालन लागत कम है और उनकी अगली फसल के लिए इस तरह की प्रक्रिया से होने वाले लाभ दिखें।
पराली जलाना सबसे आसान और सुविधाजनक विकल्प है। इसका अंदाजा इसी बात से मिलता है कि तमाम सरकारी बंदिशों के बावजूद दिल्ली की सीमा से मुश्किल से 30 किलोमीटर दूर, धान के खेतों में आग लगा दी जाती है। हालांकि आधिकारिक तौर पर, 15 सितंबर से 11 अक्टूबर 2021 के बीच हिसार में पराली जलाने की एक भी घटना नहीं देखी गई है जबकि पिछले साल इसी अवधि के दौरान यह संख्या लगभग चार थी।