कोविड-19 के मामले दिनोदिन घटने और टीकाकरण शुरू होने से उत्तर प्रदेश के कारोबारियों को जो राहत मिली थी वह एक बार फिर हवा होने को है। महामारी के मामले लगातार बढऩे के कारण कारोबारियों को एक बार फिर लॉकडाउन का डर सताने लगा है। हालांकि उत्तर प्रदेश में अभी कारोबार पर प्रतिबंध नहीं है और बाजार पहले की तरह खुल रहे हैं मगर महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली से धंधा करने वालों को पिछले साल जैसी दिक्कतें होने लगी हैं।
रेशम से लेकर चिकन और चमड़े तक का कारोबार करने वाले बता रहे हैं कि देनदार बकाया चुकाने में हीलाहवाली करने लगे हैं क्योंकि वे अपने पास नकदी की कमी नहीं होने देना चाहते। दूसरी ओर कच्चा माल देने वाले पेशगी के बगैर कुछ देना नहीं चाहते। कुल मिलाकर कारोबारियों को पिछले साल की तालाबंदी के दिन याद आने लगे हैं। विदेश से निर्यात ऑर्डर मिलने की जो आस पिछले कुछ महीनों में बंधी थी वह टूटने लगी है और देसी बाजार में बड़े ऑर्डर देने वाले राज्यों में कोरोना से लगी बंदिशों के कारण धंधा नहीं हो पा रहा है। बेशक बाजार पर किसी तरह के प्रतिबंध नहीं लगे हैं मगर खुदरा बाजारों से रौनक गायब हो रही है। राजधानी लखनऊ के बाजारों में होली के पहले जो रौनक दिखी थी वह त्योहार आते-आते गायब हो गई। अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के अध्यक्ष संदीप बंसल कहते हैं कि उनके जीवन में पहले कभी होली इतने सन्नाटे के बीच नहीं बीती। वह कहते हैं कि पिछले साल होली के समय लॉकडाउन नहीं था और कोरोना का डर भी इतना अधिक नहीं था। इस बार तो बाजार खुले हैं और टीकाकरण भी हो रहा है। फिर भी महामारी के सिर उठाने और मामले बढऩे की खबरों ने धंधा फीका कर दिया है। उन्हें नहीं लगता कि उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन फिर लगेगा मगर बढ़ते मरीजों और कुछ बंदिशों ने धंधे पर असर जरूर डाला है क्योंकि लोग बाजारों में नहीं आ रहे। थोक बाजारों में भी होली के वक्त चहलपहल लौटी थी और आगे रमजान के कारण खरीदारी बढऩे की उम्मीद जगी थी। मगर कुछ राज्यों में लॉकडाउन जैसे हालात ने उम्मीदें तोड़ दी हैं। राजधानी के थोक याह्यागंज बाजार के विष्णु त्रिपाठी बताते हैं कि होली के आखिरी दो दिनों में बाजार ठंडा पड़ गया। अगर टीकाकरण तेज नहीं हुआ और मरीज तेजी से बढ़े तो हालात फिर पुराने जैसे हो जाएंगे। जनवरी और फरवरी में पुराने ढर्रे पर लौटा बाजार फिर वीरान हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश में कई तरह के उद्योग हैं और कई तरह के उत्पाद दुनिया भर में मशहूर हैं। लेकिन कोरोनावायरस सबको बराबर बीमार कर रहा है। देश-दुनिया के रेशम के कारोबार में आधे से ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाले वाराणसी के कारोबारी फिर मायूस हो गए हैं। बाहर से ऑर्डर नहीं आ रहे हैं और देश में सबसे ज्यादा खरीदारी करने वाले महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली जैसे राज्यों में कोरोना के हालात बेकाबू होने लगे हैं। वाराणसी में सिनर्जी फैब्रिक्राफ्ट के रजत मोहन पाठक बताते हैं कि वेंडरों ने पिछले लॉकडाउन की ही तरह एक बार फिर बकाया चुकाने में हीलाहवाली शुरू कर दी है। हालांकि ‘दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है’ की तर्ज पर इस बार कारोबारी लंबे समय की तैयारी लेकर चल रहे हैं। मगर कच्चा माल देने वाले से लेकर तैयार माल की आपूर्ति करने वाले तक हर कोई भुगतान के संकट से जूझ रहा है और सभी अपने पास नकदी रखना चाहते हैं। मगर बड़ी समस्या यह है कि होली फीकी गई और रमजान से पहले महामारी विकराल होने लगी है। विदेश से ऑर्डर नहीं आ रहे, जिससे लगता है कि क्रिसमस, नया साल और ईद भी खाली ही बीतेगी। अगर कारोबार में कमी की बात करें तो वाराणसी के सिल्क का धंधा पहले के मुकाबले के आधे पर पहुंच गया है। सिल्क कारोबारियों का कहना है कि कम से कम 1500 करोड़ रुपये तो बाजार में फंसा है और महामारी के फिर से सर उठाने के चलते लगता नहीं है कि वसूली आसान होगी। सिल्क निर्यातकों का कहना है कि बाहरी आर्डर में 80 फीसदी तो देशी बाजार में 50 फीसदी माल ही जा पाया है।
लखनऊ का चिकन बाजार भी ठंडा पड़ा है। अमूमन गर्मी के दिनों में उठने वाला लखनवी चिकन का बाजार इस बार तेजी ही नहीं पकड़ पाया। जनवरी-फरवरी में ऑर्डर बढऩे से कारोबारियों को दोबारा रौनक आने की आस बंधी थी, जो अब खत्म हो चली है। राजधानी में खन्ना चिकन के अजय खन्ना कहते हैं कि होली और ईद कमाई के मौके होते हैं। बाजार में रौनक बढऩे पर कारोबारियों ने पहले से ही ऑर्डर देकर माल बनवाना शुरू कर दिया था। मगर अब ऑर्डर नदारद हैं और पैसे फंसने का डर सताने लगा है। खाड़ी देशों से रमजान के वक्त खासे ऑर्डर आते हैं, जो बंद हैं। दिल्ली, मुंबई से भी बड़े ऑर्डर नहीं आ रहे। आवाजाही पर बंदिशों की वजह से माल आसानी से पहुंच भी नहीं पा रहा। मोटे तौर पर चिकन कारोबारियों का कहना है कि धंधा पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी घटा है वहीं बाजार में दोनो तरफ की देनदारी बढ़ी है। अजय खन्ना का कहना है कि उनका धंधा ही उधारी पर चलता है और बकाया मिलने में 2 से 12 महीने लगते हैं। महामारी आते ही हर कोई नकदी बचा कर चल रहा है। चिकन उद्योग पर मार दोहरी है। लॉकडाउन के बीच कपड़े के दाम बढ़े, जिससे चिकन के तैयार परिधान महंगे हो गए हैं। ऊपर से ऑर्डर का भी टोटा हो गया है। ऐसे में उद्योग के आने वाले दिन कैसे होंगे, कोई नहीं जानता।
देश के भीतर और बाहर चमड़े का सामान मसलन जूते, बटुए, चप्पल, जैकेट आदि कानपुर और आगरा में ही सबसे ज्यादा बनता है। आगरा जूते के लिए मशहूर है तो कानपुर चमड़े की जैकेट, सैडलरी, बटुए और दूसरे सामान के लिए जाना जाता है। पिछले साल कुंभ और फिर प्रदूषण के कारण कानपुर की टैनरियों में लंबे अरसे तक ताले लटके, जिसके बाद लॉकडाउन में मजदूरों के चले जाने से कामकाज अटक गया। जनवरी-फरवरी में धंधा चालू तो हुआ मगर पटरी पर नहीं लौटा। उससे पहले आगरा की जूता मंडी महीनों बंद रही और छोटे चमड़ा कारीगरों को फाका तक करना पड़ा। दूसरी ओर कानपुर में तैयार चमड़ा मिलना मुश्किल हो गया। वहां टैनरी चलाने वाले आरिफ बताते हैं कि लंबे समय तक बंद रहे कारखाने चलाने में खासा खर्च हो गया और मजदूरों को बुलाने का भाड़ा अलग से देना पड़ा। मगर ऑर्डर नहीं के बराबर आए हैं। आरिफ कहते हैं कि यहां अनिश्चितता के कारण काफी काम बांग्लादेश चला गया है। चेन्नई से भी कच्चा चमड़ा आ रहा है। इस कारण आगरा में बहुत से जूता कारोबारी अब चमड़े के लिए कानपुर पर ही निर्भर नहीं रहे हैं। उस पर लॉकडाउन का डर भी सता रहा है। टैनरी मालिकों से लेकर जूता कारोबारियों तक हर कोई कह रहा है कि इस बार लॉकडाउन लगा तो आधे से ज्यादा कारखानों पर ताले लटक जाएंगे। हालांकि अपनी ओर से वे बचाव की हरमुमकिन कोशिश कर रहे हैं। ज्यादातर विनिर्माता और कारोबारी पहले के मुकाबले आधे से भी कम कर रहे हैं और तैयार स्टॉक बिल्कुल भी नहीं रख रहे हैं। मायूस टैनरी मालिक धंधे में गिरावट को 80 फीसदी तक बताते हैं हालांकि उनका कहना है कि बाजार में बकाया ज्यादा नहीं है क्योंकि बीते एक साल में कारोबार ही नाममात्र का हुआ है।
चमड़ा, रेशम और चिकन ही नहीं पीतल, लकड़ी, ताले, जरी-जरदोजी और पॉटरी समेत राज्य के ज्यादातर छोटे-मझोले उद्योग एक बार फिर महामारी के खौफ के साये में आ गए हैं। बड़ी मुश्किल से मजदूर लौटे थे और बाजार सजने लगे थे मगर कोरोना के बढ़ते मामले सब कुछ चौपट कर रहे हैं।