भारत का डिजिटल विकास बहुत बड़ा बदलाव लाने वाला रहा है। देश ने विशिष्ट पहचान (आधार), भुगतान (यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस) और वित्तीय समावेशन (जन धन-आधार-मोबाइल तिकड़ी के माध्यम से) जैसे क्षेत्रों में विश्वस्तरीय डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचा (डीपीआई) बनाया है। इन बुनियादी मंचों ने विभिन्न क्षेत्रों में बाधाओं को कम किया है और सभी सामाजिक-आर्थिक स्तर के नागरिकों को सशक्त बनाया है।
अब, डिजिटल कारोबार के लिए ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन और डिजिटल कृषि पहल जैसे क्षेत्र-विशेष डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचों के उभार के साथ, भारत वास्तव में बाजारों, सेवाओं और नवाचार को समावेशी तरीके से बढ़ाने के लिए तैयार है। हालांकि बुनियादी ढांचा मजबूत है लेकिन गलत तरीके से प्रोत्साहन इन डिजिटल सुविधाओं की संभावनाओं को कम कर सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो रोजमर्रा की स्थितियों में डिजिटल भुगतान, नकदी से अधिक महंगे पड़ते हैं।
यूपीआई का ही उदाहरण लें। मई में, इससे लगभग 19 अरब लेनदेन हुए जिनका मूल्य 25 लाख करोड़ रुपये से अधिक था। यूपीआई ने लेनदेन की संख्या और पहुंच दोनों में सभी अन्य साधनों को पीछे छोड़ दिया है और यह करोड़ों लोगों के लिए भुगतान का मुख्य माध्यम बन गया है। इसकी सफलता कोई इत्तफाक की बात नहीं है और यह इस्तेमाल करने के लिए मुफ्त है, चाहे वह व्यक्ति-से-व्यक्ति का भुगतान हो या फिर व्यापारिक भुगतान हो। जो बात कम लोग जानते हैं, वह यह है कि यूपीआई, नकदी प्रबंधन की लागत को भी कम करता है। भारतीय रिजर्व बैंक और वाणिज्यिक बैंक मिलकर प्रति वर्ष चलन में रहने वाली नकदी का लगभग 0.15–0.2 फीसदी नोटों को छापने, वितरित करने और सुरक्षित रखने में खर्च करते हैं, खासकर छोटे मूल्यवर्ग के नोटों पर। यूपीआई तुरंत ट्रैक किए जा सकने वाले छोटे भुगतानों के माध्यम से इस खर्च को काफी हद तक कम करता है।
सुविधा शुल्क का मसलाः रेलवे टिकट बुकिंग का ही उदाहरण लें। रेलवे के ऑनलाइन पोर्टल और यूपीआई का उपयोग करने वाला यात्री, प्रति टिकट 15-30 रुपये का ‘सुविधा शुल्क’ देते हैं, जबकि काउंटर पर नकद भुगतान मुफ्त है। इसी तरह की विसंगतियां, बिजली और संपत्ति कर भुगतान, परीक्षा शुल्क, फास्टैग रिचार्ज और विमान सेवाओं की बुकिंग में मौजूद हैं जहां डिजिटल भुगतान पर शुल्क लगता है लेकिन ऑफलाइन भुगतान में ऐसा नहीं होता है।
यह विपरीत प्रोत्साहन ढांचा, उन उपभोक्ताओं को प्रभावित करता है जो कीमत के लिहाज से संवेदनशील हैं और पहली बार डिजिटल भुगतान का उपयोग करते हैं। सुविधा शुल्क लेने के पीछे का तर्क आमतौर पर पेमेंट गेटवे की लागत वसूलने के लिए ही होता है और यह बात समझी जा सकती है। लेकिन यह उन लागत बचत को नजरअंदाज करता है जो डिजिटल तरीके से सेवा देने वालों के लिए होती है।
जीएसटी की गलत व्यवस्थाः डिजिटल आधारित बिजनेस मॉडल पर कर लगाने से भी हतोत्साह की भावना बढ़ती है। जीएसटी नियमों के तहत, गैर-एसी अनुबंध वाहनों को जीएसटी से छूट मिली है लेकिन उबर और ओला जैसे एग्रीगेटर्स को केंद्रीय जीएसटी अधिनियम की धारा 9(5) के तहत पूरे किराये पर जीएसटी देना पड़ता है। वे यात्री को ड्राइवर से जोड़ने और भुगतान लेने की पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। लेकिन प्लेटफॉर्म-ऐज-अ-सर्विस (पीएएएस) मॉडल में भ्रम पैदा होता है क्योंकि ये ऐसे डिजिटल मंच हैं जो केवल खोज में मदद करते हैं, भुगतान या सेवा नहीं देते हैं। ये प्लेटफॉर्म उपयोगकर्ताओं से छोटा सुविधा शुल्क लेते हैं, लेकिन अब उनसे पूरे किराये सहित लेनदेन पर जीएसटी देने को कहा जा रहा है, हालांकि वे सेवा या भुगतान का प्रबंधन नहीं करते हैं।
यह ऐसा है जैसे गूगल से हर उस सामान पर कर देने को कहा जाए जो लोग सर्च के बाद खरीदते हैं। सार्वजनिक डिजिटल लेनदेन के लिए कोई शुल्क नहीं: केंद्र और राज्य मंत्रालयों, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों और नियंत्रित यूटिलिटी को आवश्यक सेवाओं के लिए डिजिटल शुल्क लगाने से
रोकना चाहिए। शून्य-एमडीआर नीति में बदलाव: यूपीआई अपनाने में शून्य व्यापारिक छूट दर नीति महत्त्वपूर्ण थी। लेकिन जैसे-जैसे तंत्र परिपक्व हो रहा है, एक स्तरीय मर्चेंट डिस्काउंट रेट (एमडीआर) मॉडल भुगतान सेवा प्रदाताओं को व्यावसायिक रूप से टिकाऊ बनाए रखने और बुनियादी ढांचे में दोबारा निवेश करने में मदद कर सकता है जहां छोटे व्यापारी को छूट मिले लेकिन बड़े कारोबार थोड़ा योगदान दें।
भुगतान माध्यमों में समानता लागू करें: आरबीआई, भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई), और क्षेत्र के नियामकों को सभी भुगतान माध्यमों के लिए कीमतों में समानता सुनिश्चित करनी चाहिए। किसी भी डिजिटल लेनदेन का खर्च ऑफलाइन लेनदेन से अधिक नहीं होना चाहिए।
एसएएएस और पीएएएस के लिए सही जीएसटी व्यवस्था: कर नियमों को फुल-स्टैक एग्रीगेटर्स और डिजिटल फैसिलिटेटर्स के बीच अंतर करना चाहिए। केवल वही संस्थाएं जो लेनदेन को पूरी तरह नियंत्रित करती हैं और भुगतान एकत्र करती हैं, उन्हें ही कुल किराये पर जीएसटी का भुगतान करने के लिए जवाबदेह होना चाहिए।
बुनियादी ढांचे से परे व्यवहार में बदलाव की जरूरतः भारत ने पहले ही एक समावेशी डिजिटल अर्थव्यवस्था की नींव रख दी है। लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ये डिजिटल माध्यम सभी के लिए आसानी से उपलब्ध हों, न कि महंगे हों। इसके लिए सिर्फ बुनियादी ढांचा बनाना ही काफी नहीं है, बल्कि हमें सही प्रोत्साहन, ग्राहकों का विश्वास और स्पष्ट नीतिगत संकेतों की भी जरूरत है। एक डिजिटल अर्थव्यवस्था ऐसी नींव पर नहीं बन सकती, जहां प्रगति करने पर सजा मिले और पुराने तौर-तरीकों को बढ़ावा दिया जाए।
(लेखक भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिकी और आईटी विभाग के पूर्व सचिव हैं। ये उनके निजी विचार हैं)