अविभाजित आंध्रप्रदेश के करिश्माई मुख्यमंत्री दिवंगत वाईएस राजशेखर रेड्डी की जयंती पर 8 जुलाई, 2021 को उनकी बेटी शर्मिला ने एक नई पार्टी, वाईएसआर तेलंगाना पार्टी (वाईएसआरटीपी) का गठन किया। उनके भाई जगनमोहन रेड्डी, जो पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, वह पार्टी की शुरुआत के समय मौजूद नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति इस बात की तस्दीक करती है कि उनकी बहिन की इस पहल में उनकी रजामंदी नहीं थी। हालांकि उनकी मां अपनी बेटी के साथ थीं।
शर्मिला ने इंटरव्यू में साफ किया कि फिलहाल उनका राजनीतिक काम तेलंगाना तक ही सीमित रहने वाला है। दूसरे शब्दों में, वह सियासी जमीन के लिए अपने भाई के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर रही थी।
बहुत संभावना है कि ठीक 24 महीने बाद 8 जुलाई, 2023 को वाईएसआरटीपी औपचारिक रूप से कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी का विलय करेगी। शर्मिला पहले ही कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष डीके शिवकुमार के साथ बैठक कर चुकी हैं। 119 सीट वाली तेलंगाना विधानसभा चुनाव में अब कुछ महीने बाकी हैं। ऐसे में इस कदम से कांग्रेस में अस्थिरता पैदा होने की आशंका है। कांग्रेस की तेलंगाना इकाई के प्रमुख रेवंत रेड्डी और शर्मिला के बीच पहले ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है।
शर्मिला ने रेड्डी को ‘भाड़े का नेता’ कहा है। शर्मिला ने सार्वजनिक रूप से कहा, ‘जब वाईएसआर जीवित थे, रेवंत तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) में थे और अपने बॉस चंद्रबाबू नायडू को खुश करने के लिए वह वाईएसआर के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते थे।’ इस पर रेवंत रेड्डी ने जवाब दिया है कि शर्मिला आंध्र प्रदेश से हैं, तेलंगाना से नहीं और उन्हें कभी भी राज्य कांग्रेस का नेतृत्व करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’
हालांकि इस विलय का कोई खास मतलब नहीं हो सकता है। कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी या सीटों को बढ़ाने की शर्मिला की क्षमता अभी तक आंकी नहीं गई है। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस, अब भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) ने 88 सीट जीतीं और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस दोनों को हराकर तेलंगाना में सरकार बनाई। भाजपा ने एक सीट जीती और उसका वोट हिस्सेदारी सिर्फ 7 प्रतिशत थी।
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा निजामाबाद सहित चार सीटें जीतने में कामयाब रही, जहां केसीआर की बेटी कविता को हार का सामना करना पड़ा था। इसने नवंबर, 2020 में दुब्बाका उपचुनाव में भी हैरान करने वाली जीत हासिल की, जिससे तेलंगाना में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को बल मिला।
एक महीने बाद ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) के चुनाव से भी इस बात की पुष्टि हुई। केंद्रीय गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने नगर निगम चुनाव के लिए प्रचार किया। भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा। कांग्रेस ने उम्मीद से भी खराब प्रदर्शन किया।
लेकिन तब और अब के बीच एक बदलाव आया है। केसीआर सरकार द्वारा सभी कल्याणकारी उपायों के बावजूद सत्ता विरोधी लहर बढ़ रही है। केसीआर ने जिन मंत्रियों को सरकार से हटा दिया था अब वे कांग्रेस के साथ बातचीत कर रहे हैं। कर्नाटक विधानसभा की जीत ने इस विश्वास को बढ़ा दिया है कि कांग्रेस की सीट भले ही कम हो लेकिन वह खेल से बाहर नहीं है।
यह एक बड़ा बदलाव है। वर्ष 2018 और 2021 के बीच कांग्रेस के 19 में से 12 विधायक ने बीआरएस में शामिल होने के लिए दलबदल किया था। अब यह उलटा पलायन है। खम्मम में जुलाई में राहुल गांधी की मौजूदगी में एक बड़ी जनसभा होने वाली है जहां बीआरएस के कुछ वरिष्ठ नेता पार्टी में शामिल होंगे।
मुख्य सवाल यह है कि शर्मिला क्या पेशकश करेंगी? तेलंगाना के शक्तिशाली रेड्डी समुदाय ने वाईएसआर का समर्थन किया, विशेष रूप से उनकी इस घोषणा का समर्थन किया कि वह राज्य के विभाजन की अनुमति नहीं देंगे।
हालांकि ऐसा नहीं हो पाया और बाद में जब राज्य का विभाजन हुआ तब कई लोग भाजपा में चले गए, खासतौर पर महबूबनगर जिले से। गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी, जिन्हें कैबिनेट में पदोन्नति मिली है वह तेलंगाना में जातिगत नेतृत्व को लेकर महत्त्वाकांक्षी हैं। हालांकि, उनकी पकड़ हैदराबाद के कुछ इलाकों तक ही सीमित है।
भाजपा का नेतृत्व करीमनगर के सांसद बांदी संजय कर रहे हैं। लेकिन उन्हें एक उग्र नेता के रूप में देखा जाता है और प्रदेश इकाई उन्हें आम सहमति पाने वाले नेता के रूप में नहीं देखती है। इसकी वजह से कुछ नेताओं ने पार्टी तक छोड़ दी है और इसमें से कुछ नेता बीआरएस में चले गए हैं जबकि कई कांग्रेस में चले गए हैं।
शर्मिला ईसाई समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। उनके पति अनिल ईसाई मत प्रचारक हैं। हालांकि तेलंगाना में ईसाई समुदाय चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, सभी उन्हें जानते हैं और उनके परिवार का सम्मान करते हैं। हालांकि शर्मिला ने कभी चुनाव नहीं लड़ा लेकिन जब उनके भाई 2013 में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में थे तब शर्मिला ने ही कमान संभाली थी और पदयात्राओं के माध्यम से उनके बचाव में आंध्र प्रदेश में प्रचार किया था। दो साल पहले जब उन्होंने अपनी पार्टी का गठन किया था तब उन्हें लगा होगा कि वह एक बड़ी सार्वजनिक भूमिका की हकदार हैं जो अब तक संगठनात्मक स्तर पर और पर्दे के पीछे तक सीमित थी।
अब ऐसा लगता है कि उन्होंने इसे पूरा कर लिया है और वह एक बड़ी पार्टी के साथ अपना काम करने के लिए तैयार हैं। क्या यह कदम उस महत्त्वाकांक्षा को पूरा करेगा जिसे उन्होंने बढ़ाया है लेकिन वह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। भाजपा बहुत अच्छी तरह से जानती है, विलय मुश्किल है और कांग्रेस में दिखने वाले असंतोष के बलबूते उसे कुछ परिणाम का भरोसा है।
कांग्रेस नेतृत्व चाहेगा कि पार्टी एक दिशा में आगे बढ़े लेकिन उसके पास इतने बड़े कद के नेता नहीं है जो रेवंत और शर्मिला दोनों की महत्त्वाकांक्षाओं के समाधान के रूप में नजर आएं।
कुल मिलाकर तेलंगाना की स्थिति में काफी अस्थिरता है और इस पर नजर रखने की जरूरत है। हालांकि बीआरएस में काफी आत्मविश्वास दिख रहा है लेकिन सत्ता विरोधी लहर को कौन भुनाएगा, भाजपा या शर्मिला के साथ कांग्रेस, यह देखा जाना बाकी है।