इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
भारतीय आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) बाजार को लेकर माहौल में नाराजगी का भाव है। ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि सूचीबद्धता लाभ कम हुए हैं। वर्ष 2025 में सूचीबद्ध हुई कंपनियों में से कई कंपनियां इश्यू मूल्य के नीचे कारोबार कर रही हैं। खुदरा निवेशक जो जल्दी रिटर्न की उम्मीद में इनकी ओर आकर्षित हुए थे वे निराश हैं। टीकाकार भी अब इनके लिए ‘जाल’, ‘लूट’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। बाजार नियामक सेबी से आग्रह किया जा रहा है कि वह दखल दे और मूल्यांकन पर नजर रखे।
यह नीतिगत स्तर पर एक खतरनाक क्षण है। जब शोर का स्तर बढ़ जाता है, सुर्खियों और कथानक के प्रबंधन की इच्छा सरकार पर यह दबाव पैदा करती है कि वह कोई कदम उठाए। आमतौर पर इसका नतीजा खराब नियमन के रूप में सामने आता है जो बाजार विकास को प्रभावित करता है। वित्त मंत्रालय और नियामकीय नेतृत्व को शांति बनाए रखते हुए दीर्घकालिक आंकड़ों पर नजर डालने की जरूरत है। भारतीय आईपीओ बाजार टूटा नहीं है। वास्तव में इतिहास में पहली बार यह सही ढंग से काम कर रहा है।
प्राथमिक बाजार की स्थिति को समझने के लिए हमें पिछले तीन महीनों के मूल्य उतार-चढ़ाव से आगे देखना होगा। हमें पिछले दो दशकों में निर्गम की मात्रा पर ध्यान देना होगा। परंपरागत रूप से भारत प्राथमिक बाजारों में अस्थिर उछाल-पस्त पैटर्न से जूझता रहा है। एक वर्ष अत्यधिक उत्साहपूर्ण होता है, तो इसके अगले तीन वर्षों में सूखा आ जाता है। यह अविश्वसनीयता नई कंपनियों के निर्माण को नुकसान पहुंचाती है।
स्वस्थ बाजार के लिए मेरा एक नियम है: वह वर्ष अच्छा होता है जब 36 या उससे अधिक प्रमुख आईपीओ हों। यानी औसतन तीन प्रति माह। जब आईपीओ बाजार इस लय में सहजता से चलता है, तो यह एक कार्यशील पाइपलाइन का संकेत देता है जहां सूचीबद्ध न हुई कंपनियां भरोसेमंद तरीके से आईपीओ ला सकती हैं। हम इसे बहुत कम ही हासिल कर पाए हैं। वर्ष 2012 से 2020 के बीच, हमने यह मानक केवल एक ही वर्ष 2017 में हासिल किया। बाकी समय बाजार लड़खड़ाता रहा।
अब हम एक उल्लेखनीय हालत में हैं। लगातार पांच साल यानी 2021, 2022, 2023, 2024 और 2025 में सालाना 36 या उससे अधिक आईपीओ सामने आए हैं। इससे पहले इतिहास में कभी भी इतने टिकाऊ ढंग से आईपीओ बाजार नहीं दिखा था। यह निरंतरता मायने रखती है। यह कंपनी निर्माण को प्रोत्साहन देती है। उद्यमिता का सफर आसान नहीं है। आईपीओ लाने वाली हर कंपनी के पीछे 100 ऐसी कंपनियां होती हैं जो कोशिश करती हैं और नाकाम हो जाती हैं। जब बाहर निकलने का विश्वसनीय रास्ता हो तो वेंचर कैपिटल की आवक होती है और कारोबारी जोखिम उठाते हैं। वर्ष 2021 से 2025 तक लगातार निकास के मौके की सफलता महत्त्वपूर्ण है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है। फिर सवाल उठता है कि इतना अधिक असंतोष क्यों है? असल में, शिकायत यह है कि मूल्यांकन बहुत अधिक हैं और निवेशक पैसा गंवा रहे हैं। यह विचार वित्तीय बाजारों और नियमन की गलत समझ पर आधारित है।
उपभोक्ता संरक्षण का राजनीति में जबरदस्त प्रयोग होता है। परंतु वित्त में तो बेहतर संरक्षित उपभोक्ता भी अपने निर्णयों के आधार पर पैसा गंवा बैठेंगे। वित्तीय नियमन का काम है धोखाधड़ी को रोकना न कि नुकसान को रोकना। स्वतंत्रता में गलतियां करने की स्वतंत्रता भी शामिल है। द्वितीयक बाजार पर विचार कीजिए। यदि कोई निवेशक आज किसी सूचीबद्ध कंपनी के शेयर खरीदता है और अगले सप्ताह उसका मूल्य 20 फीसदी गिर जाता है, तो कोई सेबी को दोष नहीं देता। कोई यह तर्क नहीं करता कि सरकार को खरीद को रोकना चाहिए था। हम स्वीकार करते हैं कि शेयरों में निवेश जोखिम से भरा होता है। हम यह भी स्वीकार करते हैं कि मूल्य का आकलन करना खरीदार की जिम्मेदारी है।
आईपीओ भी अलग नहीं है। यह विक्रेता और अनाम खरीदार के बीच का लेनदेन होता है। शेयरों का विक्रेता एक प्याज विक्रेता जैसा ही होता है। प्याज विक्रेता अपने उत्पाद के लिए अधिकतम संभव मूल्य हासिल करना चाहता है। खरीदार न्यूनतम कीमत चुकाना चाहता है। जब कोई किसान उस समय अपनी प्याज बेचना चाहता है जब कीमतें ऊंची हों तो कोई आपत्ति नहीं करता। इसी तरह उस वक्त भी किसी को आपत्ति नहीं करनी चाहिए जब प्रवर्तक या निजी इक्विटी फंड अपने शेयरों को उच्चतम मूल्यांकन के समय बेचना चाहता है।
सेबी का एकमात्र दायित्व यह सुनिश्चित करना है कि दी गई जानकारी सही और पर्याप्त हो। यदि कोई कंपनी यह खुलासा करती है कि वह घाटे में है, या उसका मूल्य-आय अनुपात 2000 है, या उसके प्रवर्तकों ने तीन महीने पहले सस्ते में शेयर खरीदे थे और निवेशक फिर भी शेयर खरीदते हैं तो यही बाजार का सही ढंग से काम करना है। निवेश के निर्णय गलत हो सकते हैं, लेकिन जब तक खुलासा सही है, ये परिस्थितियां नियामक विफलता नहीं मानी जातीं।
यह सही है कि हमारे बाजार का आकार पर्याप्त बड़ा है लेकिन आईपीओ प्रक्रिया में दिक्कतें हैं। मैं पहले भी कह चुका हूं कि सूचीबद्धता को पेशकश से अलग किया जाना चाहिए। इस मॉडल में सार्वजनिक होने की तैयारी कर रही एक कंपनी पहले सूचना खुलासे और संचालन का एक ट्रैक रिकॉर्ड तैयार करेगी। यह सूचीबद्धता के सभी दायित्वों को निभाएगी। मसलन तिमाही नतीजे, बोर्ड, प्रकटीकरण आदि। एक साल तक शेयरों की ट्रेडिंग के बिना के यह सब किया जाएगा।
इस समय तक निवेश के इच्छुक लोगों के पास मूल्यांकन को लेकर एक निर्णय होगा। एक बार परिवीक्षा अवधि समाप्त होने के बाद कंपनी खामोशी से सूचीबद्ध हो जाएगी। एक तय तारीख को शेयरों की खरीद-फरोख्त शुरू हो जाएगी। न कोई सार्वजनिक पेशकश होगी न ही कोई मार्केटिंग धूमधड़ाका। कोई सब्सक्रिप्शन विंडो भी नहीं। मौजूदा अंशधारक इच्छा होने पर अपने शेयर द्वितीयक बाजार में बेच सकते हैं। यदि कंपनी को नई पूंजी जुटाने की आवश्यकता हो, तो वह स्क्रीन पर मूल्य तय हो जाने के बाद वही तंत्र इस्तेमाल कर सकती है जो पहले से सूचीबद्ध कंपनियों के लिए उपलब्ध हैं। यह तरीका वर्तमान आईपीओ प्रक्रिया की सूचना असमानता और उन्माद को दूर करता है।
हम पूंजी बाजारों की ऐतिहासिक गहराई के साक्षी बन रहे हैं। आईपीओ की ऐसी लहर जहां सूचीबद्धता के बाद कीमतें गिरती हैं, वास्तव में एक स्वस्थ और विवेकशील बाजार का संकेत है। यह दर्शाता है कि द्वितीयक बाजार आईपीओ से पहले निवेशकों के समूहों को सुधारने में सक्षम है। नीति-निर्माताओं को हस्तक्षेप करने के आग्रह का विरोध करना चाहिए। मूल्यांकन सीमा अनिवार्य न करें। निकास अवसरों को सीमित न करें। निवेशकों को उनकी अपनी गलतियों से सुरक्षित न करें। कंपनियों के गठन का इंजन चल रहा है। इसे चलने दें।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)