देश के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे के पीड़ित, भोपाल के लोगों की 24 साल से न्याय पाने की लड़ाई जारी है।
भोपाल से लेकर नई दिल्ली तक की 38 दिनों की यात्रा और जंतर-मंतर पर 18 दिनों के धरने के बाद भी भोपाल के लोग थके नहीं है। गौरतलब है कि 3 दिसंबर 1984 को यूनियन कार्बाइड प्लांट में गैस रिसाव हुआ था जिससे हजारों लोगों की जान चली गई थी। भोपाल पीड़ित अब दिल्ली में न्याय पाने की मुहिम छेड़ चुके हैं।
पीड़ितों ने एक सिविल सोसाइटी ग्रुप बनाया है जिसने पिछले सप्ताह भोपाल के पीड़ित बच्चों की दयनीय स्थिति से प्रधानमंत्री को वाकिफ कराने की कोशिश की। अपनी अपील के जरिए लोगों ने यह बताने की कोशिश की कि भोपाल में गैस रिसाव से निवासियों के स्वास्थ्य पर कैसा असर पड़ा इससे संबंधित कोई रिसर्च या उपाय के सार्थक कदम नहीं उठाए गए।
इस ग्रुप का कहना है कि भोपाल के बच्चे दो आपदाओं के शिकार हैं। पहला गैस रिसाव और दूसरा यूनियन कार्बाइड प्लांट के नजदीक भूमिगत जल के प्रदूषित होने से। इंटरनेशनल कैंपेन फॉर भोपाल की रचना ढींगरा कहती है ‘500,000 से ज्यादा लोग गैस रिसाव की चपेट में आ गए थे। इसके अलावा कम से कम 25 हजार लोग प्रदूषित जल से भी प्रभावित हुए।’
पीड़ितों की दो मांग है- उनके पुर्नवास के लिए एक आयोग बनाया जाए और यूनियन कार्बाइड की संपत्ति खरीदने वाले डाउ केमिकल को इस हादसे के लिए दिए जाने क्षतिपूर्ति रकम क ो तय किया जाए।
1991 में इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने अचानक ही गैस रिसाव से पीड़ित लोगों के स्वास्थ्य और उसके बाद पैदा हुए बच्चों के स्वास्थ्य पर इसके असर से संबंधित रिसर्च को बंद कर दिया गया। ढींगरा का कहना है कि गैस रिसाव के पीड़ितों के बच्चों की शारीरिक और मानसिक विकास पर नजर रखने के लिए इस तरह के रिसर्च की सिफारिश की गई थी।
भोपाल हादसे के बाद पैदा हुए बच्चों में जन्म से ही कई तरह की शारीरिक व्याधियां भी दिखने लगी और इसका असर दूसरी पीढ़ी के बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में भी गड़बड़ी नजर आने लगी। इसी के मद्देनजर 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने इस हादसे के बाद जन्में बच्चों के लिए मेडिकल बीमा का प्रावधान भी कर दिया।
हालांकि अब तक किसी भी बच्चे को इसका लाभ नहीं मिल पाया है और न ही इस तरह के बच्चों के परिवार के सहयोग के लिए कोई योजना बनाई गई है। 1992-1997 के बीच 14 बच्चों को हार्ट सर्जरी और जन्म से ही दिमागी बिमारी से प्रभावित 13 बच्चों के इलाज के लिए स्पार्क कार्यक्रम (स्पेशल असिस्टेंस टू ऐट रिस्क चिल्ड्रेन) के तहत वित्तीय सहायता मुहैया कराई गई। इस कार्यक्रम को भी वित्तीय कमी की दुहाई देकर 1997 में बंद कर दिया गया।
दिसंबर 2006 में एक मेडिकल कैंप लगाया गया। इसमें सेंट जोसेफ कॉलेज के मैथ्यू वारगिश ने 65 बच्चों का चेकअप किया, जिसमें से 31 बच्चों में ब्रेन डैमेज की बीमारी पाई गई। चिंगारी ट्रस्ट के इस कैं प में ज्यादातर बच्चे रिसाव प्रभावित क्षेत्रों से आए थे। भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ की प्रेसिडेंट राशिदा बी का कहना है, ‘सरकार ने पीड़ित परिवारों और बच्चों के जिनका इलाज कराना बेहद जरूरी था उनके लिए सामाजिक पेंशन की व्यवस्था करने के लिए मना कर दिया।’