facebookmetapixel
शेयर बाजार में इस हफ्ते कैसा रहेगा हाल? TCS रिजल्ट और ग्लोबल फैक्टर्स पर रहेंगी नजरेंUpcoming IPO: टाटा कैपिटल, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स अगले हफ्ते 27,000 करोड़ रुपये से ज्यादा के आईपीओ लाएंगे15 नवंबर से बदलेंगे टोल टैक्स के नियम, बिना FASTag देना होगा ज्यादा पैसाAadhaar Update: UIDAI का बड़ा फैसला! बच्चों के आधार अपडेट पर अब कोई फीस नहींMCap: टॉप 7 कंपनियों का मार्केट वैल्यू बढ़ा ₹74 हजार करोड़, HDFC बैंक ने मारी छलांगFPI Data: सितंबर में FPIs ने निकाले ₹23,885 करोड़, शेयर बाजार से 3 महीने में भारी निकासीFD Schemes: अक्टूबर 2025 में कौन से बैंक दे रहे हैं सबसे ज्यादा रिटर्न FD? पूरी लिस्ट देखेंभारतीय IPO बाजार रिकॉर्ड महीने की ओर, अक्टूबर में $5 बिलियन से अधिक के सौदे की उम्मीदट्रंप की अपील के बाद भी नहीं थमा गाजा पर इसराइल का हमला, दर्जनों की मौतब्रिटेन के PM कीर स्टार्मर 8-9 अक्टूबर को भारत दौरे पर आएंगे, दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी बढ़ाने पर होगी बात

विफलता को सराहना कब आरंभ करेगा भारत?

आर्थिक आजादी प्रत्येक कंपनी और प्रत्येक संसाधन की पूर्ण क्षमता का लाभ उठाने में मदद देती है, जिससे समावेशी अर्थव्यवस्था का विकास होता है।

Last Updated- October 30, 2024 | 11:23 PM IST
बैंकिंग क्षेत्र के कानून और नियामकीय की बदलाव, Banking laws and regulatory shake-ups

कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे के साथ कदमताल करते हुए महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिए कानून बनाती हैं। पहले कानूनों में एक अनुच्छेद होता था, जो बताता था कि वे कार्यपालिका द्वारा तय अमुक तारीख को प्रभाव में आएंगे। किंतु हाल के कुछ कानूनों में इस अनुच्छेद के साथ एक शर्त है, जिसके अनुसार एक ही कानून के विभिन्न प्रावधान अलग-अलग तारीखों पर लागू होंगे।

यह लचीलापन कार्यपालिका को जरूरी व्यवस्था तैयार होने के बाद ही कानूनों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने का मौका देता है, लेकिन इससे क्रियान्वयन को अनिश्चितकाल तक टालने का बहाना भी मिल जाता है। विलंब तब भी होता है, जब इसके क्रियान्वयन पर न तो राजनीतिक विरोध हो रहा होता है और न ही जनता विरोध कर रही होती है। यह स्थिति विधायिका की मंशा और कार्यपालिका की कार्रवाई के बीच तालमेल की कमी दर्शाती है, जिसके कारण तयशुदा लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है।

ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता, 2016 इसका सटीक उदाहरण है, जो कंपनियों, प्रोपराइटरशिप और पार्टनरशिप वाली फर्मों तथा लोगों के कर्ज समाधान के लिए प्रभाव में आई थी। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में 17 लाख कंपनियां, 17 करोड़ प्रोपराइटरशिप एवं पार्टनरशिप (10 करोड़ कृषि और 7 करोड़ गैर-कृषि) और 140 करोड़ लोग हैं।

हालांकि आईबीसी फिलहाल कॉरपोरेट इकाइयों के लिए ही काम कर रहा है चानी मात्र 0.1 प्रतिशत संभावित लाभार्थी ही फिलहाल इसकी जद में हैं। संहिता के क्रियान्वयन के लगभग एक दशक बाद भी प्रोपराइटरशिप, पार्टनरशिप और व्यक्ति इस संहिता का लाभ उठाने से वंचित हैं, जबकि कर्ज लेने वालों में 99.99 प्रतिशत ये ही हैं। कार्यपालिका ने संहिता जरूरत मंद लोगों में कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए ही सीमित रखी है। इससे उद्यमशीलता को बढ़ावा देने का एक बड़ा लाभ खत्म हो गया है।

किसी भी कंपनी को इसके अस्तित्व के दौरान तीन चरणों पर स्वतंत्रता की जरूरत होती है। ये तीन चरण हैं बाजार में प्रवेश (प्रवेश की आजादी), प्रतिस्पर्द्धा में भाग लेकर कारोबार बढ़ाना (कारोबार बढ़ाने की आजादी) और बाजार से निकलना (बाहर निकलने की आजादी)। यह हिंदी में सृजन, संरक्षण और विनाश के बराबर हैं। इनमें कोई भी एक तत्व नहीं होने पर ब्रह्मांड का संतुलन बिगड़ जाता है।

अच्छी तरह संचालित बाजार व्यवस्था तीनों तरह की आजादी मुहैया कराती है। नई कंपनियां हमेशा तैयार होती रहती हैं, क्षमता रहने तक कारोबार करती हैं और अक्षम होने पर बाजार से निकल जाती हैं। यह चक्र सुनिश्चित करता है कि सबसे अधिक कुशल और सक्षम फर्मों को लगातार संसाधन मिलते रहें और सीमित संसाधनों के उपयुक्त इस्तेमाल को बढ़ावा मिलता रहता है।

आर्थिक आजादी प्रत्येक कंपनी और प्रत्येक संसाधन की पूर्ण क्षमता का लाभ उठाने में मदद देती है, जिससे समावेशी अर्थव्यवस्था का विकास होता है। ऐसी अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ती हैं क्योंकि कई लोगों एवं इकाइयों का योगदान कुछ कंपनियों एवं लोगों के योगदान पर भारी पड़ जाता है। शोषक संस्थाओं में अक्सर कारोबार एवं संसाधनों का नियंत्रण कुछ खास लोगों के हाथों में होता है।

सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक अध्ययनों ने साबित कर दिया है कि जिन देशों में आर्थिक आजादी अधिक होती है वे कम आजादी वाले देशों की तुलना में लगातार बेहतर प्रदर्शन करते हैं।

उदाहरण के लिए फ्रेजर इंस्टीट्यूट की 2023 की सालाना वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रता रिपोर्ट कहती है कि आर्थिक आजादी के मामले में शीर्ष देशों (सबसे ऊपर के चौथाई हिस्से में मौजूद देशों) में औसत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2021 में 48,569 डॉलर था, जो निचले पायदान पर आने वाले देशों (सबसे नीचे के चौथाई हिस्से में मौजूद देशों) में केवल 6,324 डॉलर था।

भारत में 1990 के दशक में कारोबार सुधार की दिशा में उठाए गए कदमों में प्रवेश की आजादी दी गई। पहले अधिकांश उद्योगों को लाइसेंस की जरूरत होती थी मगर बाद में यह शर्त कुछ ही उद्योगों के लिए सीमित कर दी गई। 2000 के दशक में सुधार कारोबार बढ़ाने की आजादी, कारोबार के आकार पर प्रतिबंध उठाने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की राह से बाधाएं हटाने पर केंद्रित थे।

इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में आर्थिक स्वतंत्रता का सूचकांक काफी बढ़ गया, जिसके बेहतर आर्थिक परिणाम सामने आए। स्वतंत्रता से पहले भारत की सालाना वृद्धि दर 1 प्रतिशत से नीचे रही। 1947 में आजादी मिलने के बाद यह बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो गई, जिसे बाद में ‘हिंदू वृद्धि दर’ का नाम दे दिया गया। वर्ष 1990 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद आर्थिक वृद्धि दर लगभग दोगुनी हो गई। इसमें उद्यमशीलता से जुड़ी नई आजादी का महत्त्वपूर्ण योगदान था जिससे प्रतिस्पर्द्धा एवं नवाचार बढ़ गए।

प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने के बाद कम सक्षम कंपनियां कारोबार से बाहर निकल गईं क्योंकि वे अधिक मजबूत प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों की कीमतों का मुकाबला नहीं कर पाईं। नवाचार ने जोर पकड़ा तो कई उद्योग किसी काम के नहीं रह गए और उनसे जुड़ी कंपनियों के लिए बाजार में टिके रहना मुश्किल हो गया।

प्रतिस्पर्द्धा और नवाचार जितनी तेजी से बढ़ते गए कारोबारों के असफल होने की आशंका उतनी ही बढ़ती गई। इससे कई उद्यमी विफल कारोबार के चक्रव्यूह में फंस गए। बाहर निकलने का कोई स्पष्ट मार्ग नहीं होने से उनके संसाधन धरे के धरे रह गए और सपने चकनाचूर हो गए। इससे नए उद्यमी जोखिम लेने से हिचकिचाने लगे क्योंकि उन्हें लगा कि विफल होने के बाद उन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलेगा। इस डर से उद्यमशीलता के प्रति उत्साह कमजोर पड़ गया और प्रतिस्पर्द्धा एवं नवाचार से प्राप्त होने वाले लाभ सीमित हो गए। साथ ही आर्थिक वृद्धि की रफ्तार भी सुस्त होने लगी।

कहते हैं कि थॉमस अल्वा एडिसन 1,000 प्रयासों के बाद बिजली का बल्ब ईजाद कर पाए थे। जब उनसे पूछा गया कि क्या वे 1,000 बार विफल रहे तो उन्होंने कहा, ‘मैं विफल नहीं रहा बल्कि मुझे ऐसे 1,000 तरीके मिले, जिनका इस्तेमाल बिजली का बल्ब बनाने में नहीं करना चाहिए।‘

यही बात उद्यमशीलता की आत्मा है: नाकामी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है। अच्छी तरह चल रही अर्थव्यवस्थाओं में उद्यमी कारोबारी विफलताओं के लिए दंडित नहीं किए जाते हैं। इसके बजाय उन्हें सम्मान के साथ बाहर निकलने, वापसी करने और नए नजरिये के साथ नई शुरुआत करने का मौका दिया जाता है तब वे अधिक साहसिक कदम उठाते हैं और आर्थिक प्रगति को गति देते हैं।

इसे समझते हुए भारत ने विफलता के जंजाल से बाहर निकालने के लिए दिवालिया संहिता की शुरुआत की। यह कदम उद्यमियों को आर्थिक आजादी देने और फंसे कारोबार से निकलने एवं नए उत्साह के साथ नई शुरुआत का मौका देने के लिए उठाया गया था।

विफलता से छुटकारा छोटे उद्यमों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। देश में 17 करोड़ प्रोपराइटरशिप और पार्टनरशिप हैं, जिनमें उद्यमशीलता का बीज पनपता है। बहुत कम मार्जिन पर काम करने की वजह से इनके विफल होने की आशंका भी बहुत अधिक होती है। अध्ययनों से पता चला है कि लगभग 90 प्रतिशत स्टार्टअप इकाइयां पहले पांच वर्षों के भीतर ही विफल हो जाती हैं।

भारतीय समाज में विफलता के साथ आने वाली बदनामी उनकी मुश्किलों को और भी बढ़ा देती है। उद्यमियों को डर रहता है कि लोग क्या कहेंगे, इसलिए अक्सर वे मदद लेने में हिचकिचाते हैं। इससे उनकी दिक्कतें बढ़ती ही जाती हैं और बाद में संभलना मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी आजिज होकर वे आत्महत्या या दूसरे दर्दनाक कदम उठा लेते हैं।

(लेखक विधि व्यवसायी हैं)

First Published - October 30, 2024 | 10:54 PM IST

संबंधित पोस्ट