मौजूदा सरकार ने जब से ‘2047 तक विकसित भारत’ का नया नारा दिया है तभी से बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं कि देश संपन्न कैसे हो। कोई देश कैसे धनवान बनता है इस पर भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बहस चलती रहती है। इसकी वजह यह है कि दुनिया में कुछ ही संपन्न देश हैं और उनके चारों ओर ऐसे देशों का जमावड़ा है, जो संघर्ष कर रहे हैं। विश्व बैंक ने विभिन्न देशों को निम्न आय, निम्न-मध्यम आय, उच्च-मध्यम आय और उच्च आय की श्रेणियों में बांटा है। उसके हिसाब से दुनिया में 58 देश उच्च आय की श्रेणी में आते हैं मगर उनमें आपस में बहुत अंतर हैं। उनके अलावा 28 देश उच्च आय वाले कहलाते हैं मगर हमारी इस चर्चा में उनकी जगह नहीं बनती क्योंकि उनमें नन्हे-नन्हे द्वीप, यूरोपीय रियासतें, यूरोपीय देशों के प्रभुत्व वाले क्षेत्र या बेहद कम कर वाले देश (टैक्स हेवेन) शामिल हैं।
कॉन्गो, रवांडा, सोमालिया, मोजांबिक, यमन, अफगानिस्तान और उत्तर कोरिया समेत 26 देशों को निम्न आय की श्रेणी में रखा जाता है और नाकाम देश (फेल्ड स्टेट) कहा जाता है। उनमें से अधिकतर अफ्रीका और एशिया में हैं। भारत को निम्न-मध्यम आय वर्ग में रखा गया है, जिसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार और श्रीलंका समेत कुल 52 देश हैं। इनके बाद 54 देश उच्च-मध्यम आय वाले हैं। संक्षेप में, छोटे द्वीपों और टैक्स हेवेन को छोड़ दें तो 70 प्रतिशत दुनिया को धनी नहीं कहा जा सकता। धनी या संपन्न देश यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा पूर्वी एशिया में ही हैं। इसका मतलब है कि कोई भी देश किसी नियम की वजह से धनवान नहीं बनता बल्कि संपन्न देश अपवाद होते हैं। क्या भारत अतीत को छोड़कर विकसित देशों की कतार में शामिल हो सकता है?
अतीत बताता है कि पिछले 80 साल में ज्यादातर देश आय वर्ग की सीढ़ी पर केवल एक पायदान ऊपर पहुंच पाए हैं। जो देश आज धनी हैं, वे 19वीं सदी की शुरुआत में ही ऐसा कर पाए हैं। हां, उन्हें इस बात का श्रेय देना होगा कि वे आज भी संपन्न बने हुए हैं। सच यह है कि जैसे पश्चिम यूरोप के देश लुढ़ककर मध्यम आय की श्रेणी में नहीं गिरे वैसे ही निम्न आय वाले देशों के लिए उछलकर उच्च आय वाली जमात में पहुंचना लगभग असंभव रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद चार देश ही ऐसे रहे हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था ने इतनी तेज रफ्तार भरी और इतने लंबे अरसे तक दौड़ती रही कि वे युद्ध की विभीषिका से उबरकर खुद को संपन्न देशों की जमात में ले आए। अपने जुझारूपन की बदौलत अपनी किस्मत बदलने वाले ये देश ताइवान, दक्षिण कोरिया, जापान और सिंगापुर हैं।
चीन अब भी संपन्न राष्ट्र नहीं बन पाया है। वह उच्च-मध्यम आय वाले देशों की श्रेणी में है। उसका वृद्धि धीमी पड़ गई है और वह मध्यम आय के जाल से बचने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। कुछ देश थोड़ा ऊपर उठकर उच्च-मध्यम आय वर्ग में पहुंच गए हैं, लेकिन वे विकसित कहलाने की हैसियत अभी हासिल नहीं कर पाए हैं। तो हम किस वजह से यह भरोसा कर सकते हैं कि भारत वह हासिल कर सकता है, जो मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, दक्षिण अफ्रीका, तुर्किये और मेक्सिको हासिल नहीं कर पाए हैं?
फिर तेज वृद्धि की राह क्या है? विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष इसके लिए राजकोषीय अनुशासन, व्यापार और वित्तीय उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार तथा प्रतिस्पर्द्धी माहौल बनाने की सलाह देते हैं। वृद्धि के द्वार खोलने वाले इन तरीकों को एक साथ रखकर ‘वाशिंगटन कन्सेंसस’ कहा गया है। लेकिन इनकी राह पर चलकर संपन्नता हासिल करने वाला एक भी देश नहीं है। ‘व्हाई नेशन्स फेल’ में डरोन असमोग्लू और जेम्स रॉबिन्सन कहते हैं कि वृद्धि के लिए समावेशी राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं की जरूरत होती है, जो धन और शक्ति को कुछ ही हाथों में रखने वाली संस्थाओं से अलग होती हैं। पिछले साल इन दोनों को सिमॉन जॉनसन के साथ इनके विशिष्ट कार्यों के लिए नोबेल सम्मान दिया गया था।
इस पैमाने पर देखें तो पता चलता है कि भारत में माहौल शोषणकारी है और यहां की संस्थाएं बहुत खराब हालत में हैं, जिनसे हमारी क्षमता और संभावना कमजोर हो रही हैं। लेकिन जापान का उपनिवेश रहा दक्षिण कोरिया भी 1950 में भारत जितना ही गरीब था और उसके पास भी कोई मजबूत संस्थाएं नहीं थीं। लेकिन वहां पार्क चुंग ही ने सैन्य तानाशाही लागू की और 25 साल में ही अद्भुत आर्थिक चमत्कार करते हुए देश का कायापलट कर डाला। और चीन, जिसने पश्चिम की तरह समावेशी संस्थाओं को बगैर ही फर्राटा भर लिया? वास्तव में यह सिद्धांत किसी भी सूरत में उन खस्ताहाल और खराब लोकतंत्रों को व्यावहारिक रास्ता नहीं दिखाता, जहां लोकलुभावनवाद की होड़ और दबाव के कारण राज्य शोषणकारी और संस्थाएं कमजोर बनी रहती हैं।
तेज आर्थिक वृद्धि की गुत्थी सबसे अच्छी तरह सुलझाने वाला मॉडल आर्थिक राष्ट्रवाद का एक खास रूप है, जिसमें नए उद्योगों को विस्तार के लिए संरक्षण दिया जाता है, सबसे अच्छी प्रौद्योगिकी का आयात किया जाता है और निर्यात में अग्रणी बनने के लिए देश के भीतर होड़ बढ़ाई जाती है। 20वीं सदी में असाधारण वृद्धि हासिल करने वाली चारों बड़ी अर्थव्यवस्थाओं – जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और चीन – में यही एकसमान बात नजर आती है। बेहतरीन नवाचार के अलावा इन्हीं तरीकों ने 18वीं शताब्दी में इंगलैंड और 19वीं शताब्दी में अमेरिका एवं जर्मनी को शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया। इस मॉडल का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व नाकाम संस्थाओं को खत्म करना है चाहे वे सरकारी हों या निजी। इस तरह बाजार में वे संस्थाएं ही रह जाती हैं, जिनमें होड़ करने की क्षमता होती है।
हकीकत यह है कि सभी देशों ने इस आर्थिक नीति को अपनाने की कोशिश की है। लेकिन अधिकतर ने इस पर आधा-अधूरा या बेदिली से अमल किया। इसीलिए वे उच्च वृद्धि दर हासिल करने में पिछड़ गए। भारत के पास औद्योगिक संरक्षण था, लेकिन 1991 तक देश के भीतर प्रतिस्पर्द्धा कमजोर या नहीं के बराबर थी, जिस कारण वह ऊंची वृद्धि दर हासिल करने में पिछड़ गया। चीन ने स्थानीय प्रशासन को बेहद होड़ करने वाला बना दिया मगर भारत ने पिछड़े इलाकों के विकास का न्यायोचित मॉडल अपनाया। भारत ने निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र शुरू तो किए मगर उन्हें उस जोश के साथ रफ्तार नहीं दे पाया, जिस तरह चीन ने उन्हें आगे बढ़ाया। कांग्रेस की सरकार में तो इनमें से कई पूरी तरह जमीन पर कब्जा करने के तरीके साबित हुए। थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया और भारत ने विदेशी प्रौद्योगिकी के लिए अपने दरवाजे तो खोले, लेकिन स्थानीय निर्यात श्रृंखला को मजबूत करने की कोई ठोस नीति नहीं अपनाई गई।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी नीति एकदम सटीक नहीं हो सकती। शुरुआत में कोई न कोई खामी रह ही जाती है। असली जिंदगी में काम करते हुए हमें जवाबदेही, सच्ची प्रतिक्रिया और जरूरत के मुताबिक तेजी से सुधार की आवश्यकता होती है। विजित और पराजित इसी से तय होते हैं। भारत सरकार ने 1950 में इस्पात के कारखाने लगाए, जो सफेद हाथी बन गए। दक्षिण कोरिया ने 1968 में पोहांग आयरन ऐंड स्टील प्लांट लगाया, जिसने आगे चलकर दुनिया भर से होड़ की। भारत की नियोजित अर्थव्यस्था में जब अकुशलता और भ्रष्टाचार घुसने लगा तो सुधार नहीं किया गया, अकुशल को खत्म नहीं किया गया और बढ़िया काम को प्रोत्साहन नहीं दिया गया। दुख की बात यह है कि अब भी हमें इसका कोई हल नहीं मिला है।
(लेखक मनीलाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)