facebookmetapixel
नवंबर में भारत से आईफोन का निर्यात 2 अरब डॉलर तक पहुंचा, बना नया रिकार्डएवेरा कैब्स ने 4,000 ब्लू स्मार्ट इलेक्ट्रिक कारें अपने बेड़े में शामिल करने की बनाई योजनाGST बढ़ने के बावजूद भारत में 350 CC से अधिक की प्रीमियम मोटरसाइकल की बढ़ी बिक्रीJPMorgan 30,000 कर्मचारियों के लिए भारत में बनाएगा एशिया का सबसे बड़ा ग्लोबल कैपेसिटी सेंटरIPL Auction 2026: कैमरन ग्रीन बने सबसे महंगे विदेशी खिलाड़ी, KKR ने 25.20 करोड़ रुपये में खरीदानिजी खदानों से कोयला बिक्री पर 50% सीमा हटाने का प्रस्ताव, पुराने स्टॉक को मिलेगा खुला बाजारदूरदराज के हर क्षेत्र को सैटकॉम से जोड़ने का लक्ष्य, वंचित इलाकों तक पहुंचेगी सुविधा: सिंधियारिकॉर्ड निचले स्तर पर रुपया: डॉलर के मुकाबले 91 के पार फिसली भारतीय मुद्रा, निवेशक सतर्कअमेरिका से दूरी का असर: भारत से चीन को होने वाले निर्यात में जबरदस्त तेजी, नवंबर में 90% की हुई बढ़ोतरीICICI Prudential AMC IPO: 39 गुना मिला सब्सक्रिप्शन, निवेशकों ने दिखाया जबरदस्त भरोसा

अहम सूचकांक मोदी के लिए चेतावनी

Last Updated- December 12, 2022 | 10:47 AM IST

तमाम दिक्कतों से भरा यह साल समाप्त होने को है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता खत्म होने का नाम नहीं ले रही। कई प्रमुख संकेतकों पर भारत की स्थिति पहले से खराब हो चुकी है जिनके लिए हम महामारी वाले वर्ष को दोष नहीं दे सकते। आप सवाल कर सकते हैं कि ये बातें अब क्यों की जा रही हैं? आखिर किसी सरकार के कार्यकाल के सातवें साल में आकलन की कोई खास वजह नहीं होती। अगले आम चुनाव साढ़े तीन साल दूर हैं। ऐसा भी नहीं लगता कि मतदाताओं के मन में मोदी को लेकर कोई नाखुशी हो। यदि मोदी और उनकी पार्टी हर चुनाव जीत रहे हैं तो हमें शिकायत किस बात की है? जवाब यह है कि नेतृत्व के मायने केवल लोकप्रियता से नहीं निकाले जाने चाहिए और शासन केवल राजनीति से नहीं तय होता। अब सवाल बचा कि अभी क्यों?
समय का चयन हमने नहीं किया है। पिछले कुछ दिनों में लगातार आंकड़े, सर्वे के निष्कर्ष, वैश्विक रेटिंग और रैंकिंग आदि सामने आई हैं। इनसे अंदाजा मिल रहा है कि मौजूदा सरकार ने सात वर्ष में क्या कुछ हासिल किया है या गंवाया है। इनमें ताजा है सरकार का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) 5 के पहले चरण का आंकड़ा। यह लगभग सभी मानकों पर बहुत खराब नजर आ रहा है।
मैंने इस विषय पर अपनी वीडियो शृंखला ‘कट द क्लटर’ का एक भाग तैयार किया है जहां आपको आंकड़े मिल जाएंगे। लेकिन इसके अलावा भी काफी कुछ है। मानव स्वतंत्रता सूचकांक की ताजा रिपोर्ट भी आ चुकी है और भारत वहां 17 स्थान नीचे फिसलकर 94 से 111वें स्थान पर आ गया है। इन्हें मोदी विरोधी, भारत या हिंदू विरोधी और वाम रुझान वाला भी नहीं कहा जा सकता। यह सर्वेक्षण वॉशिंगटन के कैटो इंस्टीट्यूट द्वारा किया गया था जो वाम से उतना ही दूर है जितना मुकेश अंबानी पिनाराई विजयन से होंगे। इस संस्थान से जुड़े शीर्ष विद्वानों में से एक हैं स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर। वह पहले ही कृषि सुधार कानूनों का समर्थन कर चुके हैं। मानव स्वतंत्रता सूचकांक की रैंकिंग जारी करने के पहले 76 मानकों का आकलन किया गया है। इनमें विधि का शासन, सुरक्षा, धार्मिक आजादी, नागरिक समाज की गतिविधियां और संबद्धता, सूचना एवं अभिव्यक्ति, नियमन की गुणवत्ता और सरकार का आकार आदि शामिल हैं। यहां पर न्यूनतम सरकार को याद रखना उचित होगा। किसी को यह अपेक्षा नहीं रही होगी कि भारत रैंकिंग में शीर्ष पर आएगा लेकिन सुधार की आशा तो थी ही। लेकिन इसका उलटा देखने को मिला। स्वतंत्रता सूचकांक (कारोबार करने की स्वतंत्रता समेत) की बात करें तो हम ब्राजील, मैक्सिको, कंबोडिया, बोलिविया, नेपाल (सभी 92वें स्थान पर), श्रीलंका (94वें स्थान पर), जांबिया, हैती, लेबनान, बेलारूस, सेनेगल, मोजांबिक, लेसोतो, यूगांडा, मलावी, मेडागास्कर, भूटान और बुर्किना फासो तक से पीछे हैं। पीवी नरसिंह राव ने बुर्किना फासो की राजधानी ओउगादोउगो से कश्मीर पर शांति प्रस्ताव भी शायद इसीलिए रखा था क्योंकि चंद्रास्वामी के मुताबिक वह दुनिया में सर्वाधिक शुभ स्थान था।
हम भले ही पाकिस्तान और बांग्लादेश से आगे हों लेकिन यह बस सांत्वना भर है। हम अपने पुराने मित्र रूस से एक स्थान आगे हैं। कजाकस्तान 75वें स्थान पर है यानी भारत से 36 स्थान आगे। सन 2020 की रैंकिंग 2018 के लिए इसलिए महामारी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। हमें 2019 में 94वां स्थान मिला था जो 2017 के आंकड़ों पर आधारित था। पुराने आंकड़ों की बात करें तो सन 2008 से 12 तक हम 75वें स्थान पर 2013 में 87वें, 2015 में 102वें और 2016 में 110वें स्थान पर थे। इसे राजनीति के ग्राफ के हिसाब से देखिए। सितंबर में जारी वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 79वें स्थान से खिसकर 105वें स्थान पर आ गया। इसका नेतृत्व कनाडा के फ्रेजर इंस्टीट्यूट ने किया था जो कतई वाम रुझान वाला नहीं है। अक्टूबर में दुनिया भर में लोकतंत्र पर नजर रखने वाली प्रतिष्ठित संस्था फ्रीडम हाउस ने अपनी इंटरनेट स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट जारी की जिसमें भारत लगातार तीसरे वर्ष गिरावट पर नजर आया। यहां दुनिया में सबसे अधिक बार इंटरनेट बंद किया गया।
सालाना यूएनडीपी मानव विकास रिपोर्ट भी भारत के लिए अच्छी खबर नहीं लाई। यहां हम दो स्थान खिसककर 131वें स्थान पर आ गए हैं। सात साल के बहुमत के शासन में हमारा प्रदर्शन इससे बेहतर रहना चाहिए था। क्या हम चुनिंदा आंकड़े सामने रख रहे हैं? नहीं, ये सभी वैश्विक प्रतिष्ठा वाले सर्वेक्षण और रैंकिंग हैं। मैं उन सर्वे की गिनती भी नहीं कर रहा जिन्हें मैं गंभीरता से नहीं लेता। प्रेस स्वतंत्रता की आरएसएफ रैंकिंग में भारत दो स्थान नीचे 142वें स्थान पर है। भारत में प्रेस के समक्ष चुनौतियां हैं लेकिन जो सर्वे म्यांमार, दक्षिणी सूडान, यूएई, श्रीलंका, तंजानिया और अफगानिस्तान को भारत से ऊपर रखता है उस पर क्या भरोसा किया जाए। गौरतलब है कि इन देशों में औसतन हर सप्ताह एक पत्रकार की हत्या हो जाती है। इस विषय को यहीं छोड़ते हैं और वैश्विक भूख सूचकांक की बात करते हैं। यह भी वैज्ञानिक शोध पर आधारित है। इस वर्ष भारत इसमें 94वें स्थान पर है जबकि गत वर्ष वह 102 स्थान पर था। लेकिन ध्यान रहे इस वर्ष इसके अध्ययन में 117 के बजाय 107 देश ही शामिल थे। 10 देशों के हटने के बावजूद आठ स्थानों का सुधार यही बताता है कि आप या तो पहले की स्थिति में हैं या थोड़ा नीचे। क्योंकि इसका संबंध भूखे पेट रहने से नहीं बल्कि पोषण से है। हमने बात एनएफएचएस के सर्वेक्षण से शुरू की थी। दुनिया के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के बावजूद भारत वैश्विक भूख सूचकांक पर नियंत्रण संघर्ष करता रहा है। परंतु यहां मसला खाद्यान्न, रोटी-चावल का नहीं बल्कि पोषण का है। यहां एनएफएचएस हमें आईना दिखाता है और उसमें जो नजर आता है वह काफी बदसूरत है।
यह बताता है कि सन 1998-99 के बाद पहली बार भारत में बाल कुपोषण के घटने का सिलसिला उलट गया है। यह सर्वे का पहला चरण है और दूसरे चरण में कई बड़े राज्य नजर आएंगे। परंतु जो तस्वीर नजर आ रही है वह काफी बुरी है। केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगााल आदि में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की शारीरिक वृद्धि में कमी देखी गई है। उनका वजन भी औसत से कम है। बुरी बात यह है कि औसत से अधिक वजन वाले बच्चों की तादाद बढ़ी है। हमारे बच्चे एक साथ कमजोर और मोटे दोनों कैसे हो रहे हैं? मोदी के आलोचकों को शायद यह बात रास आए। आखिरकार मोदी स्वच्छ भारत अभियान, राष्ट्रीय पोषण अभियान आदि पर गलत आंकड़े पेश करते रहे हैं। लेकिन निराश होने के लिए तैयार हो जाइए। सर्वे बताता है कि स्वच्छता के क्षेत्र में सुधार हुआ है। एकीकृत बाल विकास योजना का दायरा भी सुधरा है। तो गलती कहां हो रही है?
बीते पांच वर्ष में हमारी आर्थिक वृद्धि धीमी पड़ी है। आबादी का गरीब तबका इससे सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। परिवारों के पास दूध, अंडे, मांस, दाल, सब्जी और फलों की आपूर्ति कम हुई है। ऐसे में एनएफएचएस के नतीजों को भूख सूचकांक के साथ पढि़ए तो चीजें स्पष्ट होंगी। हमें देखना होगा कि यह विरोधाभास कैसे उत्पन्न हुआ। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि मोदी-भाजपा लगातार चुनावी जीत हासिल करते जा रहे हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि मोदी और भाजपा ने वोट जुटाने को आर्थिक वृद्धि से अलग कर दिया है। राष्ट्रवाद, धर्म, मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता और शिथिल पड़ा विपक्ष उनकी जीत की वजह हैं। अब आंकड़े चेतावनी दे रहे हैं। इसलिए क्योंकि किसी न किसी स्तर पर जीवन की गुणवत्ता में कमी किसी की भी लोकप्रियता को नुकसान पहुंचा सकती है। याद रहे कि आप हर बात को पूर्वग्रह ठहराते हुए या कांग्रेस के 70 साल को दोष देते हुए खारिज कर सकते हैं लेकिन एनएफएचएस के सर्वे में शामिल बच्चे पांच साल से कम उम्र के थे। यानी ये सभी मोदी के कार्यकाल में पैदा हुए और यह सर्वे कोरोना के आने के पहले पूरा हो चुका था। यहां छिपने की कोई गुंजाइश नहीं है।

First Published - December 20, 2020 | 11:14 PM IST

संबंधित पोस्ट