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अप्रत्याशित समय में अपारंपरिक उपाय

Last Updated- December 15, 2022 | 7:58 AM IST

वैश्विक वित्तीय संकट ने मौद्रिक नीति के एक नए युग का मार्ग प्रशस्त किया जहां नीतिगत दरों केे पारंपरिक तौर तरीकों के बजाय केंद्रीय बैंक के परिसंपत्ति खरीद कार्यक्रम, अग्रगामी दिशानिर्देश, कॉर्पोरेट डेट और वाणिज्यिक पत्र समेत निजी परिसंपत्ति खरीद जैसे गैर पारंपरिक तौर तरीके अपनाए जाने लगे। क्वांटिटेटिव ईजिंग के कार्यक्रम ने जोखिम अवधि और इस अपेक्षा को कम किया कि अल्पावधि की नीतिगत दरें लंबे समय तक कमतर बनी रहेंगी। इससे वित्तीय परिस्थितियां आसान हुईं और इन उपायों को पारंपरिक मौद्रिक शिथिलता का स्थानापन्न माना जाने लगा।
व्यापक क्वांटिटेटिव ईजिंग की यह कहकर आलोचना की गई कि यह बाजार की गतिविधियों को पंगु करता है, उच्च मुद्रास्फीति को और अधिक भड़काता है तथा बचतकर्ताओं और कर्जदाताओं के लिए वितरण प्रभाव उत्पन्न करता है। बहरहाल, बीते एक दशक का अनुभव बताता है कि इनमेंं से अधिकांश आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं। इससे मौजूदा महामारी के दौरान इतने भारी-भरकम नीतिगत प्रोत्साहन की घोषणा करने की राह आसान हुई।
भारत में भी केंद्रीय बैंक संकट से निपटने के लिए हरसंभव उपाय कर रहा है। इस दौरान वह रीपो दर कटौती जैसे पारंपरिक मौद्रिक उपायों से दूर होकर अपारंपरिक उपाय कर रहा है जिसमें लंबी अवधि के रीपो परिचालन और दीर्घावधि के लिए लक्षित रीपो परिचालन, परिचालन में बदलाव, रिवर्स रीपो दर आदि में असमान कटौती जैसे उपाय शामिल हैं। इससे व्यवस्था में नकदी बढ़ी है।
बहरहाल, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भी व्यापक ऋण कार्यक्रमों की घोषणा की गई है, हालांकि उनसे पूर्व निर्धारित परिस्थितियां जुड़ी हुई हैं। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि व्यापक आपूर्ति के अन्य उपाय बाजार अनुमानों को पूरा करेंगे। बाजार द्वारा अभी भी चुनिंदा नाजुक उपायों को अपनाए जाने की संभावना है। इनमें बाजार खुला बाजार परिचालन खरीद कैलेंडर, बैंकों की धारणा से परिपक्वता सीमा में इजाफा, स्थायी जमा सुविधा की शुरुआत और घाटे को मौद्रिक समर्थन आदि शामिल हैं। भारत जैसे उभरते देश के लिए शायद घाटे को मौद्रिक समर्थन की हिमायत न की जाए लेकिन हमारी दृष्टि में यह अप्रत्याशित सफलता दिला सकता है।
मौजूदा आरक्षित नकदी और मौद्रिक आपूर्ति वृद्धि पर ध्यान दें तो कुछ दिलचस्प रुझान नजर आते हैं। एक ओर जहां मौद्रिक प्रोत्साहन और मुद्रा की मांग के कारण आरक्षित नकदी बढ़ी है, वहीं यह अनुमान से कम भी रही है। बैंकिंग क्षेत्र में जोखिम से बचने की प्रवृत्ति और आर्थिक वृद्धि की कमजोर दशा को देखते हुए व्यवस्था में उच्च नकदी की उपलब्धता भी ऋण की मांग तैयार नहीं कर सकी। इससे हुआ यह कि बैंकों ने अपनी नकदी का बहुत बड़ा हिस्सा रिजर्व बैंक के पास जमा कर दिया है। उन्होंने ऐसा नकदी समायोजन सुविधा का लाभ लेकर किया। इसके साथ ही बैंकों के पास जमा आवक में कमी आई है। धीमी वृद्धि और उच्च अनिश्चितता के दौर में अक्सर ऐसा होता है। इन तमाम कारकों के आंतरिक प्रभाव से मौद्रिक गुणन कम हुआ है। भविष्य में इसमें और कमी आएगी।
अक्सर मुद्रा के वेग के बारे में बात नहीं की जाती लेकिन यह मुद्रास्फीतिक भावनाओं का अच्छा संकेतक है। मुद्रा, उत्पादन और मूल्य के पारंपरिक मौद्रिक रिश्ते में अक्सर यह मान लिया जाता है कि मुद्रा का वेग स्थिर है। ऐसे में अगर मुद्रा आपूर्ति में बदलाव होगा तो मुद्रा की मांग पर उसका प्रत्यक्ष असर होगा और मुद्रास्फीति आएगी। बहरहाल, वित्तीय संकट के दौर के अनुभव ने हमें दिखाया कि अल्पावधि में यह दर अस्थिर उतार-चढ़ाव की शिकार हो सकती है। यह सब अर्थव्यवस्था की अपेक्षाओं और बाजार के रुझान से संचालित होता है। इतना ही नहीं, मुद्रा की गति कारण नहीं बल्कि प्रभाव है और मुद्रा की गति में तेज गिरावट को रोकने के लिए अगर मुद्रा निर्माण नहीं किया गया तो इससे मंदी का माहौल बन सकता है जैसा हमने महामंदी के दौरान अमेरिका में देखा। ये सारी बातें उस मौजूदा बहस से कैसे संबद्ध हैं जो इस बात पर केंद्रित है कि आरबीआई घाटे के हिस्से को पाटने के लिए मौद्रिक समथ्र्थन कैसे करेगा? साधारण शब्दों में कहें तो राजस्व घाटे को पाटने के लिए मौद्रिक समर्थन करने की स्थिति में आरबीआई सीधे सरकारी ऋण की खरीदारी कर सकेगा, बजाय इसके कि सरकार बाजार से ऋण ले। बदले में केंद्रीय बैंक अधिक नकदी छाप कर घाटे की भरपाई करता है। यह ऐसे काम करता है कि जब सरकार आरबीआई से उधारी लेती है तो केंद्रीय बैंक की सरकारी प्रतिभूति धारिता में इजाफा होता है। जब सरकार इन फंड का इस्तेमाल करती है तो वे एक वाणिज्यिक बैंक जमा खाते में स्थानांतरित हो जाते हैं। उसके पश्चात वे आरबीआई के साथ वाणिज्यिक बैंक खाते में आ जाते हैं। सरकार के विशुद्ध ऋण में इजाफा करते हुए वे आरक्षित नकदी में बढ़ोतरी करते हैं। इससे आरक्षित नकदी में हुआ इजाफा मौद्रिक आपूर्ति में बढ़ोतरी करता है और अन्य चरों साथ-साथ ऋण और जमा की मांग बढऩे की वजह बनता है।
जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया गया घटते मौद्रिक चर के कारण यह रूपांतरण कमजोर होगा। इतना ही नहीं मौजूदा आर्थिक मंदी को देखते हुए मुद्रा की गति में तेजी से गिरावट आ सकती है। ऐसे में मौद्रिक आपूर्ति में इजाफा नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद में अहम वृद्धि नहीं दिला सकेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो मौद्रिक आपूर्ति में इजाफा अगर निरंतरता के साथ इस्तेमाल हो तो वह मुद्रास्फीतिक होता है लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता। इतना ही नहीं, घाटे के लिए मौद्रिक समर्थन करते हुए अगर फंड के इस्तेमाल का बचाव मुहैया कराया जाए और निर्गम नीति अपनाई जाए तो केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता बरकरार रखेंगे। इससे फंड के सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर भरोसा उत्पन्न होगा।
लब्बोलुआब यह है कि 21वीं सदी में प्रवेश के साथ हमने विकसित देशों के बाजारों में उच्च और अस्थिर मुद्रास्फीति से कम मुद्रास्फीति तक का सफर देखा और मुद्रास्फीतिक अनुमानों पर लगाम लगती भी देखी। इस दौरान नीतिगत समर्थन, जनांकीय, तकनीकी उन्नयन आदि ने भी योगदान किया।
वैश्विक वित्तीय संकट ने अपारंपरिक मौद्रिक नीति उपायों को जन्म दिया और मौद्रिक वृद्धि और मुद्रास्फीति के बीच के रिश्ते पर बहस पर बल दिया। एक उभरते बाजार के रूप में भारत आपूर्ति क्षेत्र के झटकों का शिकार है जो मुद्रास्फीति को प्रभावित करते हैं। देश के मुद्रास्फीतिक अनुमान अनुकूल हैं और इसे उच्च घाटे और ऋण अनुपात का सामना करना पड़ता है। ऐसे में विदेशी निवेशक इस पर कड़ी निगरानी रखते हैं। बहरहाल मौजूदा महामारी एक अप्रत्याशित नीतिगत हस्तक्षेप की मांग कर रही है और हमारा शोध दर्शाता है कि उचित हस्तक्षेप ऐसा होना चाहिए जिसमें इस्तेमाल के बाद निर्गम की व्यवस्था और जो वृहद आर्थिक स्थिति पर न्यूनतम असर डाले। मौद्रिक समर्थन जैसे उपाय सरकार और आरबीआई के वित्तीय स्थिति सहज करने के मौजूदा प्रयासों में मददगार हो सकते हैं। इससे पूंजी की लागत भी कम हो सकती है।
(लेखक आईसीआईसीआई बैंक में ग्रुप एग्जीक्यूटिव, हेड-ग्लोबल मार्केट्स ऐंड प्रोप्राइटरी ट्रेडिंग ग्रुप हैं)

First Published - June 27, 2020 | 12:09 AM IST

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