facebookmetapixel
BYD के सीनियर अधिकारी करेंगे भारत का दौरा, देश में पकड़ मजबूत करने पर नजर90% डिविडेंड + ₹644 करोड़ के नए ऑर्डर: Navratna PSU के शेयरों में तेजी, जानें रिकॉर्ड डेट और अन्य डिटेल्समद्रास HC ने EPFO सर्कुलर रद्द किया, लाखों कर्मचारियों की पेंशन बढ़ने का रास्ता साफFY26 में भारत की GDP 6.5 फीसदी से बढ़ाकर 6.9 फीसदी हो सकती है: FitchIncome Tax Refund: टैक्स रिफंड अटका हुआ है? बैंक अकाउंट वैलिडेशन करना तो नहीं भूल गए! जानें क्या करें2 साल के हाई पर पहुंची बॉन्ड यील्ड, एक्सपर्ट ने बताया- किन बॉन्ड में बन रहा निवेश का मौकाCBIC ने दी चेतावनी, GST के फायदों की अफवाहों में न फंसे व्यापारी…वरना हो सकता है नुकसान‘Bullet’ के दीवानों के लिए खुशखबरी! Royal Enfield ने 350 cc बाइक की कीमतें घटाईUrban Company IPO: ₹1,900 करोड़ जुटाने के लिए खुला आईपीओ, लंबी अवधि के लिए निवेशक करें सब्सक्रिप्शनबर्नस्टीन ने स्टॉक पोर्टफोलियो में किया बड़ा फेरबदल: HDFC Bank समेत 5 नए जोड़े, 6 बड़े स्टॉक बाहर

डॉलर के बंपर भंडार को संभालने के गुर

Last Updated- December 15, 2022 | 3:40 AM IST

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की बैलेंस शीट का आकार जुलाई के प्रारंभ में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 27 फीसदी हो गया था जबकि कुछ ही महीने पहले फरवरी के अंत में यह 22 फीसदी पर था। इससे पहले यह इस स्तर पर 2006-08 के दौरान देखा गया था। स्वतंत्र रूप में यह 8.3 लाख करोड़ रुपये बढ़ा है जो चार महीनों के भीतर 18 फीसदी की वृद्धि दर्शाता है। इस अवधि में विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों की बैलेंस शीट का आकार भी बढ़ा है लेकिन वह सरकारी उधारी को फंड देने की वजह से हुआ है। इसके उलट आरबीआई की बैलेंस शीट में वृद्धि अनैच्छिक है और ‘असंभव तिकड़ी’ का नतीजा है। भारत का भुगतान संतुलन अधिशेष तेजी से बढऩे से आरबीआई रुपये का भाव बढऩे से रोकने के लिए डॉलर की खरीद के लिए बाध्य हुआ है और उसे न चाहते हुए भी कुछ मौद्रिक कदम उठाने पड़े हैं। यह समस्या अगली कुछ तिमाहियों तक दूर होने के आसार नहीं हैं और आगे चलकर इसके बढऩे का ही खतरा है।
पिछले वित्त वर्ष में भारत का भुगतान संतुलन अधिशेष 59 अरब डॉलर था जो जीडीपी का करीब 2 फीसदी था। पूंजी प्रवाह के माध्यम से डॉलर की आवक बनी रही। अमूमन पूंजी प्रवाह को निगल जाने वाला व्यापार घाटा भी घरेलू अर्थव्यवस्था में कमजोरी के चलते आयात घटने और तेल की कम कीमतों के कारण घटकर 159 अरब डॉलर पर आ गया। डॉलर की अधिक आवक होने से आरबीआई के विदेशी मुद्रा भंडार में चार महीनों के ही भीतर 48 अरब डॉलर की वृद्धि हो गई है। इस दौरान हुए कुछ बड़े एकबारगी पूंजी लेनदेन और व्यापार-भारित डॉलर में कमजोरी से मुद्रा भंडार को बल मिला। हालांकि ऐसा नहीं होने पर भी भुगतान संतुलन अधिशेष में वृद्धि ही हुई रहती।
जून में दर्ज मासिक उत्पाद व्यापार अधिशेष की दुर्लभ स्थिति बरकरार रहने की संभावना कम ही है लेकिन अगले साल में व्यापार घाटा 80 अरब डॉलर से ऊपर जाने की आशंका नहीं है। विदेश से प्रेषित  धन के खासा कम रहने की संभावना के बावजूद सॉफ्टवेयर निर्यात सापेक्षिक तौर पर स्थिर रहने से चालू खाता अधिशेष की दुर्लभ स्थिति पैदा हो रही है। उसके साथ बढ़े हुए पूंजी प्रवाह को भी जोड़ लें तो भुगतान संतुलन अधिशेष पिछले किसी भी मौके की तुलना में काफी अधिक रह सकता है। पहले की भुगतान संतुलन अधिशेष स्थितियां पूंजी प्रवाह बढऩे से पैदा हुई थीं लेकिन हालिया वृद्धि व्यापार घाटे में गिरावट की वजह से हुई है। सोने के आयात में अस्थायी तौर पर काफी गिरावट आई है और कच्चे तेल के दाम भी कम हैं। इसी के साथ घरेलू स्तर पर तेल एवं सोने से इतर उत्पादों की मांग भी कम है।
यह परिघटना केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। कोविड महामारी के मामलों में बढ़ोतरी वाले देशों में घरेलू मांग एवं आयात बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और सरकारों की तरफ से बड़ा राहत पैकेज नहीं दिए जाने से व्यापार घाटे में कमी या व्यापार अधिशेष में तेजी की स्थितियां देखने को मिली हैं। इसकी वजह यह है कि निर्यात के मोर्चे पर प्रदर्शन बेहतर रहा है। असल में अधिकांश बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सरकारों के राजकोषीय दखल से मांग पहले ही पुराने स्तर पर पहुंच चुकी है (चीन) या फिर तेजी से सुधार की राह पर है  (अमेरिका एवं ब्रिटेन)। इससे निर्यात में तेजी आई है। लेकिन जीडीपी के एक अंश के तौर पर भुगतान संतुलन अधिशेष के आकार के संदर्भ में देखें तो भारत इस प्रवृत्ति से एकदम अलग नजर आता है।
बाह्य खाते पर भारत के स्थायित्व को लेकर लंबे समय से जताई जा रही (रेटिंग में कटौती के डर जैसी) चिंताओं को देखें तो भुगतान संतुलन अधिशेष का आम तौर पर एक समस्या होना अच्छा ही है। लेकिन इस अधिशेष का आकार मुश्किल पैदा करता है: यह पहले ही अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रवाह बढ़ाने के आरबीआई के रवैये को बाधित कर चुका है। कई वर्षों तक मुद्रा आपूर्ति वृद्धि के नॉमिनल जीडीपी वृद्धि से पीछे रहने और सुस्ती में योगदान देने के बाद आरबीआई को नॉमिनल जीडीपी वृद्धि के शून्य पर लुढ़कने के बावजूद यह रफ्तार तेज करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। मुद्रा आपूर्ति बढऩे और नॉमिनल जीडीपी वृद्धि के फर्क को अक्सर इस तरह आंका जाता है कि ‘अतिरिक्त मुद्रा से वृद्धि को बल मिलता है’। इस समय यह सर्वकालिक उच्च स्तर पर है।
कमजोर मांग वाली अर्थव्यवस्था में इससे उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति शायद न बढ़े लेकिन वित्तीय परिसंपत्तियां महंगी होने की आशंका होती है। फंडों की लागत में परिणामी कटौती मददगार हो सकती है, खासकर जब कंपनियों की बैलेंस शीट को मदद की दरकार हो। शेयर बाजारों में कीमत एवं कमाई का उच्च अनुपात होने का मतलब इक्विटी पूंजी की लागत का कम होना है। फर्मों एवं उपभोक्ताओं के लिए फंड की कम लागत होने से घरेलू मांग बढ़ेगी जिससे आयात में तेजी आएगी और अतिरिक्त डॉलर की खपत हो सकेगी।
हालांकि इस तरह वास्तविक अर्थव्यवस्था की मदद तभी हो पाती है जब कंपनियां शेयरों की बिक्री कर फंड जुटाएं। लेकिन अभी तक केवल गिनती की निजी वित्तीय फर्में ही ऐसा कर रही हैं। बॉन्ड के बढ़े दाम होने का मतलब कर्जदारों के लिए कम ब्याज दर होता है। लेकिन केवल मु_ी भर कंपनियों के लिए हुआ है। बॉन्ड प्रतिफल एवं आरबीआई की रीपो दर में फासला काफी अधिक होने के साथ ही बैंकों की भारित औसत उधारी दर एवं रीपो दर के बीच का अंतर भी रिकॉर्ड ऊंचाई पर है।
यह वित्तीय प्रणाली में व्याप्त खामियों को दर्शाता है और इसके तत्काल समाधान की जरूरत है। हालांकि पूंजी की लागत में कटौती जरूरी होते हुए भी वह उपभोक्ताओं एवं निजी उद्यमियों के भरोसा कम होने से नाकाफी हो सकती है।
भुगतान संतुलन के समायोजन के लिए रुपये के भाव में बढ़ोतरी (आयात सस्ता होगा और निर्यात महंगा हो जाएगा) और पूंजी आवक पर बंदिशें लगाने जैसे कदमों के सुझाव इस समय नहीं दिए जा सकते हैं। वर्तमान अधिशेष मुख्यत: कमजोर स्थानीय मांग का परिणाम है और इसके अस्थायी होने की उम्मीद ही की जा सकती है। घरेलू मुद्रा आपूर्ति बढ़ाए बगैर आरबीआई का सोना खरीदने का कदम ऐसा तरीका नहीं है कि अतिरिक्त विदेशी मुद्रा खपाई जा सके।
इस तरह केवल एक अस्थायी लेकिन सार्थक राजकोषीय प्रोत्साहन ही कारगर हो सकता है। इससे घरेलू आर्थिक गतिविधियों को तेजी मिलने से घरेलू मांग में वृद्धि होगी और आयात भी बढ़ेगा। इस तरह भुगतान संतुलन अधिशेष को समायोजित किया जा सकेगा। अगर अतिरिक्त पूंजी को निवेश बढ़ाने या खपत मांग तेज करने वाले तरीके में नहीं लगाया गया तो यह आखिर में ऐसे ‘परिसंपत्ति बुलबुले’ ही पैदा करेगी जिनके फूटने पर चोट पहुंचती है।
ये चुनौतियां मध्यम अवधि में भी बनी रह सकती हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह स्थिर बने रहने की अपेक्षा है और सरकार विशेष श्रेणी के सरकारी बॉन्ड जारी कर पूंजी खाते को खोलने जा रही है। जिस समय आयात प्रतिस्थापन और निर्यात वृद्धि को तवज्जो देना है, उस समय ऐसा कदम उठाने के लिए एक नई रणनीति अपनाने की जरूरत है ताकि वृहद-आर्थिक स्थायित्व एवं मुद्रा प्रबंधन किया जा सके।
(लेखक क्रेडिट सुइस के एशिया-प्रशांत रणनीति सह-प्रमुख एवं भारत रणनीतिकार हैं)

First Published - August 7, 2020 | 11:29 PM IST

संबंधित पोस्ट