भारतीय पूंजी बाजारों में 2020-21 के बाद से खुदरा भागीदारी में इजाफा हुआ है। करीब 15 करोड़ के आंकड़े के साथ डीमैट खाते 1 अप्रैल, 2020 की तुलना में 275 प्रतिशत अधिक हो चुके हैं। शेयर बाजार के नकदी क्षेत्र में कारोबार करने वाले आम लोगों का अनुपात करीब 40 फीसदी है। सूचीबद्ध कंपनियों में ऐसे लोगों के पास 10 फीसदी हिस्सेदारी है।
इसका अर्थ हुआ करीब 40 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति। इसके अलावा लोगों के पास म्युचुअल फंड के माध्यम से भी बहुत अधिक धनराशि है। पूंजी बाजार में अचानक इस प्रकार की रुचि उत्पन्न होने की वजह 2020-22 के बीच ब्याज दरों का अस्वाभाविक रूप से कम होना है जिसकी वजह से बैंक जमा पर वास्तविक प्रतिफल नकारात्मक हो गया और लोगों ने निवेश के अन्य अवसरों की तलाश करनी शुरू कर दी।
इनमें तेजी से बढ़ते पूंजी बाजार, प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण, ई-केवाईसी की मदद से काम में सहजता, रियायती ब्रोकरेज सेवा की पेशकश करने वाले डिजिटल प्लेटफॉर्मों का सामने आना, म्युचुअल फंडों के सफल प्रचार अभियान और नियामकीय ढांचे में निवेशकों का विश्वास शामिल था।
भारतीय शेयर बाजारों में खुदरा भागीदारी बढ़ने का जश्न मनाने की पर्याप्त वजह है। आखिर बड़ी तादाद में लोग भारत की विकास गाथा का हिस्सा बन रहे हैं। घरेलू निवेशकों की बात करें तो आम लोगों और संस्थानों की भागीदारी का बड़ा हिस्सा बाजार को मजबूत बनाता है और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के प्रभाव को कम करता है। लोगों के पूंजी बाजार का रुख करने ने बैंकों को जगा दिया है क्योंकि लोग अब तक बैंक जमा करने के आदी थे।
खुदरा भागीदारी में इजाफा और बाजार की बढ़ती जटिलता बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के लिए नई चुनौती ला रहे हैं। निवेशकों के हितों की रक्षा सेबी की प्राथमिक और सांविधिक जिम्मेदारी है। कई नए प्रतिभागियों में जागरूकता की कमी होती है, उन्हें सही सलाह नहीं मिल पाती है और सूचनाओं की कमी भी उन्हें प्रभावित करती है। जब बाजार में उछाल की स्थिति होती है तब इन पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर तब चालू होता है जब हालात बिगड़ने लगते हैं।
कुछ विशेषज्ञों की आशंका है कि बाजार में बड़ी गिरावट नवागंतुकों को बाजार छोड़ने पर विवश कर सकती है। इसका उभरते पूंजी बाजार पर बुरा असर हो सकता है। सवाल यह है कि खुदरा भागीदारी कैसे बरकरार रखी जाए और चुनौतियों को कैसे हल किया जाए?
भारत में नियामकीय ढांचा कुछ इस तरह का है जिसके तहत माना जाता है कि ग्राहक को स्वयं जागरूक रहना चाहिए। सेबी को महसूस हुआ कि व्यक्तिगत निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए इस सिद्धांत पर नहीं टिका रहा जा सकता है। इसलिए सेबी ने कई सार्थक उपाय अपनाए ताकि बाजार में लोगों का भरोसा मजबूत किया जा सके।
दो क्षेत्र ऐसे हैं जहां हस्तक्षेप की आवश्यकता है। वायदा एवं विकल्प श्रेणी में खुदरा निवेशकों की बड़ी संख्या चिंतित करने वाली है। सेबी समय-समय पर इसे लेकर चेतावनी जारी करता रहा है। उसने बाजार के इस हिस्से की जटिलता को कम करने और संभावित जोखिमों को रेखांकित करने का प्रयास किया है।
उसने गत वर्ष एक रिपोर्ट जारी की और कहा कि शेयरों के वायदा एवं विकल्प क्षेत्र में कारोबार कर रहे 10 में से नौ कारोबारियों को वित्त वर्ष 22 के दौरान औसतन 1.1 लाख रुपये का नुकसान हुआ। परंतु इन प्रयासों का निवेशकों के व्यवहार पर कोई खास असर पड़ता नहीं दिखता।
कुछ माह पहले मीडिया में खबर आई थी कि सेबी खुदरा निवेशकों के वायदा एवं विकल्प कारोबार के मूल्य को उनकी आय और शुद्ध संपत्ति से जोड़ने की योजना बना रहा है और शेयर ब्रोकरों को को यह जिम्मेदारी देने जा रहा है कि वे ऐसे निवेशकों की आय और संपत्ति के बारे में एक्सचेंज को जानकारी प्रदान करें। ऐसे में कारोबारी गतिविधियों को एक खास सीमा तक सीमित किया जा सकता है जो निवेशक की कुल संपत्ति के सापेक्ष हो।
ऐसे प्रयास पहले भी हुए थे। सेबी ने 2017 में एक परिचर्चा पत्र प्रस्तुत किया था जिसका शीर्षक था ‘ग्रोथ ऐंड डेवलपमेंट ऑफ इक्विटी डेरिवेटिव्स मार्केट।’ इसमें कहा गया था कि भारत में निवेशकों के लिए उत्पाद के टिकाऊपन का एक ढांचा पेश करना होगा। इस विचार को त्यागना पड़ा क्योंकि ब्रोकरों ने कहा कि उन्हें अपने क्लाइंट की संपत्ति का आकलन करने में मुश्किल पेश आ रही है।
कुछ लोगों ने इस प्रस्ताव को वायदा एवं विकल्प बाजार को नुकसान पहुंचाने वाला भी कहा। तब से अब तक समय बदल गया है। बाजार का आकार बढ़ गया है और खुदरा भागीदारी भी काफी बढ़ गई है। ऐसे में शायद 2017 वाले विचार का सही समय अब आया है। ब्रोकरों को साथ लेने की आवश्यकता है। वे क्लाइंट द्वारा कर रिटर्न में दी गई जानकारी का इस्तेमाल कर सकते हैं। एक अन्य अहम मसला है निवेश सलाहकारों का प्रभावी नियमन।
इस समय सेबी द्वारा पंजीकृत करीब 1,300 निवेश सलाहकार हैं। गैर पंजीकृत सलाहकारों के बारे में अनुमान लगाना भी मुश्किल है। इनमें सोशल मीडिया के दौर के फाइनैंशियल इन्फ्लूएंसर भी शामिल हैं। सेबी उन पर लगाम नहीं लगा सका है। इसकी एक वजह भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में नियामकों की सीमित पहुंच भी है।
इस समस्या को हल करने के लिए सबसे पहले सेबी के नीचे प्राथमिक स्तर के निवेशक को निवेश सलाहकारों को विनियमित करना चाहिए। इसके लिए सेबी अधिनियम में संशोधन करना होगा। प्राथमिक स्तर के नियामक की अवधारणा शेयर ब्रोकरों के लिए पहले से है स्टॉक एक्सचेंज प्रतिभूति अनुबंध (नियमन) अधिनियम, 1956 के तहत विनियमित किया जाता है।
डिजिटल समय में और सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न होती चुनौतियों के बीच एक स्थायी समिति की आवश्यकता है जो बाजार नियामक, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण तथा मीडिया की स्वनियमित संस्थाओं के बीच समन्वय कायम करे।
सरकार को सेबी को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 (3)बी के तहत अधिसूचित करना चाहिए कि वह मध्यवर्तियों को निर्देश दे ताकि वे अपनी साइट से आपत्तिजनक सामग्री को हटाएं। यह कार्रवाई सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्तियों के लिए निर्देशन और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 के नियम 3(1)(डी) के तहत करेगी। सेबी इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के साथ मशविरा करके ऐसा कर सकता है।
कुल मिलाकर भारत के पूंजी बाजार में खुदरा भागीदारी को निरंतर सुविधा प्रदान करने, बढ़ावा देने तथा पोषित करने की आवश्यकता है। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि लोग नियामकीय ढांचे में कितनी आस्था रखते हैं।
(लेखक ओआरएफ के विशिष्ट फेलो और सेबी के पूर्व चेयरमैन हैं)