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ट्रंप और हैरिस की नीतियों में होंगे अहम फर्क, अमेरिकी चुनावों का भारत पर कैसे हो सकता है असर?

अमेरिकी चुनाव के बाद भारत के सामने नई और अलग चुनौतियां खड़ी होंगी और ये चुनौती कौन सी होंगी, यह चुनाव का नतीजा ही तय करेगा। बता रहे हैं अजय छिब्बर

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अजय छिब्बर   
Last Updated- October 09, 2024 | 9:35 PM IST

अमेरिका में 5 नवंबर तक नया राष्ट्रपति चुन लिया जाएगा और चुनाव परिणाम का अमेरिका ही नहीं भारत समेत पूरी दुनिया पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। कमला हैरिस जीतीं तो वह कई नए रिकॉर्ड बनाएंगी – इस सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली वह पहली अश्वेत महिला होंगी और अमेरिका की राष्ट्रपति बनने वाली भारतीय मूल की पहली शख्सियत होंगी। उनकी जीत अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के उभार का सबसे बड़ा प्रतीक होगी। वह अपने कार्यकाल में कुछ बदलाव जरूर ला सकती हैं मगर मोटे तौर पर वह अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन की नीतियों को ही आगे बढ़ाएंगी। हां, अगर डॉनल्ड ट्रंप दूसरी दफा राष्ट्रपति बनते हैं तो अमेरिका की नीतियों और रुख में बड़ा बदलाव हो सकता है।

जैसा ट्रंप ने स्वयं कहा है, वह एक समझौता कराएंगे और यूक्रेन में युद्ध खत्म करा देंगे। रूस ने अब तक जितने इलाके पर कब्जा किया है, समझौते के बाद उसमें से ज्यादातर शायद उसी का हो जाएगा। युद्ध की शुरुआत में भारत को तेल और उर्वरकों की बढ़ती कीमतों का झटका लगा था मगर बाद में रूस से सस्ता तेल खरीदकर उसने इस पर काफी हद तक काबू पा लिया।

ट्रंप में दूरअंदेशी की कमी और छोटे फायदों के पीछे भागने की आदत से उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) फिर कमजोर हो जाएगा क्योंकि उसके सदस्य देश पर हमला होने की सूरत में मदद मिलने की गारंटी नहीं होगी। किंतु हैरिस का रुख यूक्रेन और नाटो मामले में बाइडन प्रशासन जैसा ही रहेगा।

पश्चिम एशिया में ट्रंप इजरायल को खुला समर्थन देते हैं और जो भी हो जाए, उसका समर्थन करते रहेंगे। हैरिस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य दो-राष्ट्र समाधान की हिमायती हैं और बाइडन की तुलना में उनका रुख सख्त होगा। लेकिन युद्ध से निपटने में बाइडन का ढुलमुल रवैया चुनाव से पहले ही बड़े युद्ध का कारण बन सकता है।

ट्रंप अमेरिका को एक बार फिर पेरिस समझौते से बाहर कर सकते हैं और ऊर्जा कंपनियों को मनचाहे तरीके से काम करने की छूट दे सकते हैं, जैसा वह कहते रहे हैं। इससे तेल सस्ता होगी और भारत को फायदा मिलेगा किंतु जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया भर में चल रही कोशिशें कमजोर होंगी। वह 2025 में खत्म हो रही कर कटौती को भी आगे बढ़ा सकते हैं, जिससे राजकोषीय घाटा भी बढ जाएगा।

शुल्क में बड़े इजाफे की भी उनकी योजना है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने लगभग 300 अरब डॉलर के आयात पर शुल्क लगाया था, जिसे बाइडन ने भी राष्ट्रपति बनने पर बरकरार रखा था। इस बार उन्होंने चीन पर 60 प्रतिशत शुल्क लगाने और लगभग 3 लाख करोड़ डॉलर के आयात पर 10-20 प्रतिशत शुल्क का प्रस्ताव रखा है। इससे पहले इतना भारी शुल्क 1930 के स्मूट-हॉली टैरिफ एक्ट में देखा गया था। आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने की इन नीतियों ने वैश्विक व्यापार में होड़ बढ़ाई थी और वैश्विक मंदी गहरा गई थी।

अमेरिका अब भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और दोनों देशों के बीच वस्तुओं एवं सेवाओं का द्विपक्षीय व्यापार 200 अरब डॉलर के करीब पहुंच गया है। इसलिए भारत का हित अधिक खुली विश्व व्यापार व्यवस्था में है, व्यापार युद्ध में नहीं। भारत और अमेरिका के करीबी संबंधों के बाद भी ट्रंप की राष्ट्रवादी आर्थिक सोच अमेरिका के साथ व्यापार में भारत को होने वाले मामूली से अधिशेष पर लगी रह सकती है।

ट्रंप ने भारत को ‘टैरिफ किंग’ कहा और भारत से होने वाले स्टील आयात पर 25 प्रतिशत शुल्क तथा एल्युमीनियम पर 10 प्रतिशत शुल्क लगा दिया। मजबूर होकर भारत को भी अमेरिका से आने वाली 28 वस्तुओं पर ऊंचा शुल्क लगाना पड़ा। भारत के शुल्क अब और भी अधिक हैं और दवा एवं सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के लिए वह चीन के मध्यवर्ती उत्पादों पर काफी निर्भर है, जिनमें नया आईफोन भी शामिल है। इसलिए दुनिया में व्यापार युद्ध छिड़ा तो भारत और भी जोखिम में पड़ जाएगा।

हैरिस का पूरा जोर लघु कारोबारों की मदद करने और रोजगार तैयार करने के लिए प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने पर होगा। वह चाइल्ड टैक्स क्रेडिट (17 साल से कम उम्र का बच्चा होने पर परिवार को कर में छूट) जैसे सामाजिक कार्यक्रमों पर ध्यान देंगी, जिसने गरीबी में तेजी से कमी की है। वह कॉरपोरेशन करों को 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 28 प्रतिशत करेंगी, अमीरों के लिए आयकर दर बढ़ाकर करीब 40 प्रतिशत करेंगी (जितनी बिल क्लिंटन के कार्यकाल में थी) और पूंजीगत लाभ कर भी बढ़ाएंगी।

निवेश को बढ़ावा देने के लिए 2018 में जब ट्रंप ने कॉरपोरेशन कर घटाकर 21 प्रतिशत किया था तब भारत ने भी इस कर की दर घटाकर 25 प्रतिशत कर दी थी। मगर अमेरिका में इस कटौती से निवेश तो नहीं बढ़ा बल्कि शेयर बायबैक में बहुत तेजी आ गई। उम्मीद करते हैं कि भारत में इसका परिणाम बेहतर रहेगा।

इन सबको मिलाकर देखें तो ट्रंप के आर्थिक प्रस्तावों से अमेरिका पर चढ़े कर्ज में 4-5 लाख करोड़ डॉलर की वृद्धि हो सकती है। लेकिन हैरिस चुनी गईं तो कर्ज 1 से 2 लाख करोड़ डॉलर ही बढ़ेगा। ट्रंप फेडरल रिजर्व की ब्याज दर नीति में हस्तक्षेप कर सकते हैं और डॉलर को कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं, जिससे भारत जैसे विकासशील देशों में वृहद अर्थव्यवस्था का प्रबंधन जटिल हो जाएगा।

हैरिस चीन पर सख्त रुख अपना सकती हैं जहां सैन्य तकनीकों के निर्यात पर बाइडन प्रशासन के प्रतिबंध ने चीन को अल्पावधि में तो नुकसान पहुंचाया ही है और यह नुकसान ट्रंप के शुल्कों से हुए नुकसान की तुलना में ज्यादा है। उनकी अगुआई में जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका का पुराना रुख बना रहेगा और स्वच्छ ऊर्जा तकनीक को बढ़ावा मिलेगा। वह चिप निर्माण आदि को भी बढ़ावा दे सकती हैं, जिनसे भारत को फायदा हुआ है। हैरिस चीन पर शुल्क और भी बढ़ा सकती हैं, जैसा हाल में देखा गया, जब चीन की इलेक्ट्रिक कारों पर 100 प्रतिशत और सोलर पैनल पर 50 प्रतिशत शुल्क लगाया गया।

ट्रंप आव्रजन पर सख्त रुख अपना सकते हैं, जिससे एच1-बी वीजा पर प्रतिबंध और सख्त हो जाएंगे। इनमें से 70 प्रतिशत से अधिक वीजा भारतीयों को ही जारी किए जाते हैं। भारत को 2,000 ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर स्थापित करने से फायदा हुआ है। अब ये शोध एवं नवाचार का केंद्र बन गए हैं और इनमें करीब 15 लाख लोगों को रोजगार मिला है। लेकिन विनिर्माण चीन में पहुंचने और उसकी वजह से रोजगार खत्म होने के जैसे विरोध ने 2016 में ट्रंप को व्हाइट हाउस पहुंचा दिया था, भारत में आउटसोर्स किए गए रोजगार पर भी वैसा ही विरोध हो सकता है, चाहे सत्ता में कोई भी आए।

चीन का मुकाबला करने के लिए दोनों ही भारत के साथ द्विपक्षीय रक्षा एवं प्रौद्योगिकी संबंध बढ़ा सकते हैं। भारत को भी इन अवसरों का लाभ उठाना चाहिए और जापान तथा ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड में अमेरिका का अधिक सहयोग करना चाहिए। क्वाड जापान के दिवंगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे की पहल थी, जिसे ट्रंप ने 2017 में फिर जीवित कर दिया था।

भारत को बाइडन प्रशासन की पहल वाले 14 देशों के इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पेरिटी (आईपीईएफ) और अफ्रीका समेत दूसरे हिस्सों के साथ गठजोड़ पर भी जोर देना चाहिए। चीन के साथ सीमा समझौते की कोई संभावना नहीं होने के कारण भारत ने पिछले महीने क्वाड की बैठक मे विभिन्न पक्षों के साथ अपना संपर्क बढ़ाया और आईपीईएफ के चार में से तीन स्तंभों पर हस्ताक्षर किए, लेकिन व्यापार स्तंभ से जुड़ा कोई समझौता नहीं किया।

व्यापार समझौता न होने पर भी भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार और आर्थिक संबंधों में अकूत संभावनाएं हैं तथा वर्ष 2030 तक यह 500-600 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। इसमें आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और आईटी सेवाओं, प्रसंस्कृत खाद्य, स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ ऊर्जा तकनीक और रक्षा उत्पादन की बड़ी हिस्सेदारी होगी।

वर्ष 2047 तक आधुनिक देश बनने की भारत की महत्त्वाकांक्षा अमेरिका के साथ घनिष्ठ आर्थिक, तकनीक और रक्षा सहयोग पर निर्भर है चाहे सत्ता में कोई भी आए। लेकिन राष्ट्रपति कौन बनता है, इसके आधार पर नई और अलग किस्म की चुनौतियां होंगी, जिनसे निपटने के लिए भारत को तैयार रहना चाहिए।

(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में अतिथि शिक्षक हैं और हार्पर-कॉलिंस इंडिया से 2021 में प्रकाशित ‘अनशैकलिंग इंडिया’ के सह लेखक भी हैं)

First Published : October 9, 2024 | 9:32 PM IST