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विधि निर्माण में तय हो नागरिकों की भूमिका

प्रभावी नीति निर्माण के लिए जरूरी है कि आम मशविरे के बिना बने कानून खत्म कर दिए जाएं। विस्तार से बता रहे हैं

Last Updated- March 11, 2025 | 10:05 PM IST
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इस वर्ष की आर्थिक समीक्षा और केंद्रीय बजट विनियमन पर खूब जोर रहा है। सरकार पहले लागू कई कानूनों और नियम-कायदों को वापस लेने पर विचार कर रही है। कायदे-कानून बनाते समय अगर सार्वजनिक सलाह-मशविरे पर जोर दिया गया होता तो यह कवायद नहीं करनी पड़ती। ढंग से मशविरा किया जाए तो नियमन न कम रहता है और न ही उसकी अति हो पाती है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि तार्किक, जरूरी और संतुलित उपाय ही लागू हों।

लोकतंत्र में नागरिक सर्वोपरि होते हैं और उनके पास महत्त्वपूर्ण अधिकार तथा दायित्व होते हैं। इनमें सबसे ऊपर हैं: मतदान का अधिकार तथा सार्वजनिक पदों के लिए होड़ करने का अधिकार। इसी से वे अपनी पसंद की सरकार बना पाते हैं। दूसरा, सरकार के निर्णयों और नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता ताकि सरकार नागरिकों की सामूहिक इच्छा के अनुसार ही काम करे। यदि सरकार तुरंत काम करने वाली होती है तो दूसरा अधिकार सुरक्षित रहता है और ऐसा नहीं करती है तो नागरिक पहले अधिकार का प्रयोग कर उसे हटा देते हैं।

कानून निर्माण में सार्वजनिक चर्चा दूसरे अधिकार का उदाहरण है। इससे पता चलता है कि सरकार नीति निर्माण में नागरिकों की भागीदारी के लिए प्रतिबद्ध है और इस प्रक्रिया में योगदान का नागरिक कर्त्तव्य भी इससे पुख्ता होता है। ऐसी भागीदारी कानून की वैधता बढ़ाती है, पारदर्शिता बढ़ाती है और सरकार तथा नागरिकों के बीच भरोसा भी बढ़ाती है। भागीदारों से शुरू में ही राय ले ली जाए और उनके हितों का ध्यान रखा जाए तो कानून वापस लेने, उसके लटकने या लागू होने में बाधा आने का खतरा बहुत कम हो जाता है। नागरिक भागीदारी की अहमियत समझते हुए कई लोकतंत्रों ने सार्वजनिक सलाह-मशविरे को विधायी प्रक्रिया का आवश्यक अंग बना दिया है।

भारत में जन भागीदारी का इतिहास बहुत समृद्ध रहा है, जो संविधान निर्माण के समय भी दिखा था। कई कानून कहते हैं कि उनके तहत बनने वाले नियम-कायदों को पहले प्रकाशित कर अंशधारकों की राय ली जानी चाहिए। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने 2002 में ही देश की विधायी व्यवस्था में सार्वजनिक मशविरा शुरू किया था। डिजिटल प्लेटफॉर्म आने से यह काम बहुत आसान हो गया है और अधिक संख्या में लोग जल्दी से भागीदारी कर लेते हैं। सरकार ने 2014 की अपनी नीति के जरिये इसे औपचारिक जामा पहना दिया और अब सभी नियम-कायदों के मसौदे पर सार्वजनिक चर्चा जरूरी हो गई है। 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कानून निर्माण में अंशधारकों की भागीदारी सुनिश्चित करने की बात दोहराई।

तब से सार्वजनिक मशविरे का महत्व बढ़ा है। 2023-24 के बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्तीय क्षेत्र के जरूरी नियमन के लिए सार्वजनिक मशविरे का महत्त्व समझाया। प्रतिस्पर्द्धा (संशोधन) अधिनियम 2023 कहता है कि नियमन तैयार करते समय नियामकों को अंशधारकों से मशविराक करना ही होगा और इसका तरीका भी बताया गया है। कई नियामकों ने स्वेच्छा से ऐसा ढांचा अपनाया है जहां उन्हें कानून बनाने के लिए सार्वजनिक मशविरा करना ही पड़ता है।

अच्छी मंशा के बाद भी ऐसा ज्यादा होता नहीं दिखता। कई प्राथमिक और उप विधान सार्वजनिक चर्चा के बगैर बनाए जा रहे हैं। जब निर्वाचन के बगैर बने नियामक आम मशविरे के बगैर कायदे बनाने लगते हैं तो चिंता बढ़ जाती है। मशविरा किया जाता है तब भी कुछ अपवादों को छोड़कर उनकी सार्थक भागीदारी, आर्थिक विश्लेषण आदि नहीं होने दिया जाता।

तब से अब तक सार्वजनिक मशविरे की कला और विज्ञान बदल गए हैं। जनता तक पहुंचने के लिए अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, ऑफलाइन चर्चा और आपसी संवाद जैसे तरीके अपनाए जाते हैं। सलाहकार समिति, कार्य समूह, राउंडटेबल, सेमिनार, कार्यशाला या परिचर्चा पत्र जैसे उपाय आजमाए जाते हैं। नागरिक समाज के बनाए मंच भी हैं, जहां से जनता को किसी भी मसौदे पर अपने सुझाव सार्वजनिक तौर पर देने का मौका मिल जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो नियम निर्माण में हितधारकों को शामिल करने के लिए ओईसीडी की निर्देशक नियामक प्रक्रिया में सारे तरीके बताए गए हैं। यूएनडीपी का सार्वजनिक परामर्श सूचकांक देखता है कि सार्वजनिक मशविरे के प्रयास कितने अच्छे और कारगर रहे।

मशविरे की मजबूत प्रक्रिया में स्पष्टता, समावेशन, और जवाबदेही कारगर रहनी चाहिए। सबसे पहले सार्थक भागीदारी की शुरुआत मशविरे के लिए व्यवस्थित सामग्री प्रदान करने से होती है, जिससे भागीदारों को जरूरी संदर्भ, कानून की जरूरत, अनुभव के आधार पर आकलन, आर्थिक विश्लेषण और नियम-नीतियों का मसौदा मिलना चाहिए। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर मशविरे के दौरान ऐसा ही किया गया। एक पोर्टल बनाया गया जहां नागरिक जरूरी सरकारी रिपोर्ट और दस्तावेज देख सकते थे। इससे वे अतीत के घटनाक्रम और नीति का नजरिया समझकर बेहतर प्रतिक्रिया दे पाते हैं।

दूसरा, मशविरा कामयाब तभी होता है, जब उसमें सही लोगों की भागीदारी हो। कानून बनाने वाले इसके लिए औपचारिक सूचना, डिजिटल मंच सीधे संपर्क जैसे कई तरीके अपनाते हैं। दिव्यांगों से संबंधित नई राष्ट्रीय नीति पर सामाजिक न्याय मंत्रालय का मशविरा एक उदाहरण है। इसमें ब्रेल तथा भारतीय संकेत भाषा का प्रयोग किया गया ताकि दिव्यांग आराम से उसमें भागीदारी कर सकें। पूरी नीति का अनुवाद करके मंत्रालय तथा राज्य सरकारों की वेबसाइटों के जरिये बांटा भी गया।

तीसरा, पारदर्शिता से प्रक्रिया की विश्वसनीयता और भरोसा बढ़ते हैं। भागीदारों के सुझावों और उन सुझावों पर विभागों या नियामकों की चर्चा का संक्षिप्त ब्योरा एवं प्रतिक्रिया प्रकाशित करना सबसे अच्छा रहता है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के पास केंद्रीकृत डिजिटल पोर्टल है, जहां सभी टिप्पणियां और उनके जवाब सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं।

चौथा, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं स्वतंत्रत निगरानी की हिमायत करती हैं ताकि मशविरा प्रक्रिया पर नजर रखी जा सके। मगर विधि निर्माण संस्थाएं क्रियान्वयन को प्राथमिकता देती हैं। इससे व्यवस्थित आकलन की गुंजाइश कम रह जाती है। इसे हल करने के लिए सार्वजनिक मशविरा प्रक्रिया के मानक बनाना जरूरी है। कानून बनाने वालों को कहा जाना चाहिए कि वे मशविरे के व्यवस्थित तरीके अपनाएं और मानक सूचकांक के जरिये गुणवत्ता तथा प्रभाव को सामने लाएं।

आखिर में, शासन की बढ़ती जटिलताओं के बीच सक्रिय भागीदारी को बढ़ावा मिलता दिख रहा है। अधिकारी माईगॉव जैसे प्लेटफॉर्म की मदद से विचार जुटा रहे हैं। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड जैसे नियामक हितधारकों को किसी भी समय नए नियम सुझाने या संशोधन सुझाने का अवसर देते हैं। यह तरीका सभी मंत्रालयों और नियामकीय संस्थाओं में अपनाए जाने की जरूरत है। इससे जनता को साल भर कानूनों पर सुझाव देने का मौका मिलेगा और सरकारी एजेंसियों को उन पर विचार करने का अवसर मिलेगा। इससे भागीदारी भी बढ़ेगी और कानून भी बेहतर होंगे।

इन तरीकों को संहिताबद्ध करने से पक्का हो जाएगा कि कानून निर्माता उन्हीं मानकों और जवाबदेही का पालन करें, जिनकी वे हितधारकों से अपेक्षा करते हैं। सार्वजनिक मशविरा नहीं करने पर जिम्मेदार लोगों पर जुर्माना लगना चाहिए और वह कानून निरस्त कर दिया जाना चाहिए। साथ ही क्षमता निर्माण और प्रोत्साहन ढांचा तैयार करने की कोशिश होनी चाहिए ताकि सार्वजनिक मशविरे के लिए उचित माहौल बन सके।

(साथ में मल्लिका दांडेकर) 

First Published - March 11, 2025 | 9:54 PM IST

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