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  लेख  खयाली पुलाव भर है विस्तारवाद का विचार
लेख

खयाली पुलाव भर है विस्तारवाद का विचार

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —July 5, 2020 11:01 PM IST0
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गत शुक्रवार सुबह अचानक लद्दाख पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवानों को संबोधित करते वक्त यह ध्यान रखा कि वह चीन का नाम न लें। लेकिन जब उन्होंने कहा कि विस्तारवाद का युग समाप्त हो चुका है और अब विकास का वक्त है तो उनका इशारा बिल्कुल साफ था।
वह स्पष्ट रूप से चीन की ओर संकेत कर रहे थे। परंतु यह ऐसी समझदारी की बात है जिसे चीन पर और शायद हम पर भी लागू किया जा सकता है। मुझे पता है कि यह कहने के जोखिम हैं लेकिन इस बात को आगे बढ़ाते हैं।
शी चिनफिंग के अधीन चीन का विस्तारवाद वैश्विक मसला है। यह बड़ी शक्तियों का नया सरदर्द और चीन के पड़ोसियों के लिए क्षेत्रीय और समुद्री क्षेत्र में विकट दबाव का सबब है। केवल वे देश इससे बचे हैं जो उसके शरणागत हैं।
भारतीयों की तरह चीनी भी एक सभ्यता वाले देश के नागरिक हैं और गौरवशाली अतीत की यादों का बोझ उन पर भी है। हमारे मामले में बात मौर्यों के अखंड भारत या गुप्त शासकों के स्वर्ण युग की हो सकती है। चीन की सोच में छिंग साम्राज्य की विस्तारवादी सीमाओं की वापसी है। चलिए इसे हम उनकी अखंड चीन की परिकल्पना मान लेते हैं।
अंतर यह है कि भारत में यह विचारधारा केवल एक दल (जो अब दबदबे वाला है) के संस्थापकों की विचारधारा है जबकि लोकतांत्रिक देश होने के नाते यहां सत्ता बदलती रहती है। चीन में यह हमेशा सत्ता के लिए अहम रहा है। हम देख चुके हैं कि तानाशाही शासन व्यवस्था वाले इस देश के हाथों में यह कितना गलत और अस्थिर करने वाला हो सकता है।
लद्दाख का मसला तो बहुत छोटा है। उनके लिए अरुणाचल प्रदेश का 83,000 वर्ग किलोमीटर का इलाका अधिक अहम है। क्या उनको लगता है कि वे इनमें से कोई भी जगह ताकत से हथिया लेंगे? इक्कीसवीं सदी में अगर कोई ऐसे विचार पाल रहा है तो उसे अपनी मानसिक स्थिति की जांच करानी चाहिए क्योंकि यह संभव नहीं है। परंतु राष्ट्रवाद की ताकत का आकर्षण बहुत अधिक है। खासकर उस समय जब इसे वह विचार बढ़ावा दे रहा हो जिसे राजनीति विज्ञानी पुन:संयोजन का विचार कहते हैं। यानी यह मानना कि आप अपने देश को भौगोलिक रूप से दोबारा वैसा बना सकते हैं जैसा कि वह किसी जमाने में था। यह बात तानाशाही और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों या थोड़ा-थोड़ा दोनों व्यवस्था वाले देशों पर भी लागू होता है।
चीन ने प्रधानमंत्री की विस्तारवाद के खिलाफ की गई टिप्पणी पर तत्काल प्रतिवाद करके साबित किया कि यह उसके खिलाफ की गई है। परंतु इसके साथ ही यह सलाह पाकिस्तान के लिए भी हो सकती है। पाकिस्तान ने अस्तित्व में आने के बाद पूरे सात दशक यही मानते हुए बिता दिए कि वह समूचे जम्मू कश्मीर को भारत से छीन सकता है। इस कवायद में उसके ही दो टुकड़े हो गए। फिर भी वह बाज नहीं आया।
इसके विपरीत पाकिस्तान अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए और व्यग्र हो गया। इस प्रक्रिया में उसने पूंजी, वित्त और बौद्धिक संपदा भी गंवाई और एक सैन्य शासित देश बनकर रह गया। आईएमएफ ने 30 वर्ष में उसे 13 बार उबारा और उसे जल्द ही दोबारा उसकी जरूरत पडऩे वाली है।
मेरे पुराने मित्र और पाकिस्तानी शायर मरहूम हबीब जालिब ने सन 1990 में मई दिवस पर एक खास नज्म में इसे बहुत खूबसूरत और सख्त तरीके से पेश किया था। उस वक्त एक बार फिर जंग का माहौल बन रहा था। जालिब ने लिखा था- नशीली आंखों, सुनहरी जुल्फों के देश को खोकर/ मैं हैरान हूं वो जिक्र वादी ए कश्मीर करते हैं। एक विचारधारा पर निर्मित और तय एजेंडे पर चलने वाले देश के लिए ऐसा वामपंथी कवि कुछ ज्यादा ही आदर्शवादी दुनिया में जीने वाला व्यक्ति था।
विश्वयुद्ध के बाद दुनिया ने लगभग एक ही समय दो वैचारिक राष्ट्रों का उदय देखा: इजरायल और पाकिस्तान। उनमें से एक तो यहूदियों की भूमि थी जो उन्हें दी गई थी और दूसरा उपमहाद्वीप के मुस्लिमों का स्वाभाविक घर था। इजरायल किसी दृष्टि से परिपूर्ण नहीं है लेकिन इसकी पाकिस्तान के साथ तुलना करते हैं। दोनों ने एक साथ लोकतांत्रिक शुरुआत की। दोनों अमेरिका के सहयोगी और आरंभ में पश्चिमी देशों के पसंदीदा बने। परंतु दोनों का सामना ऐसे विरोधियों से था जिन्हें सोवियत समर्थन था। अब देखिए दोनों राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से कहां हैं।
इजरायल केवल एक क्षेत्र में लक्ष्य से पीछे रहा है और वह है पश्चिमी तट पर जमीन हासिल करना। परंतु उसका मामला पाकिस्तान या कश्मीर से अलग है। पश्चिमी तट को शामिल करने को लेकर इजरायल के भीतर भी धु्रवीकरण है और वह राष्ट्रवाद के केंद्र में नहीं है। पाकिस्तान का मामला अलग है। पाकिस्तान पूरी तरह चीन के संरक्षण में है और आर्थिक उपनिवेश बनने की ओर अग्रसर है। वह अभी भी भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों का इस्तेमाल करता है। उसका काफी पराभव हुआ है। आज उसके पास उस कश्मीर से भी छोटा कश्मीर है जो सन 1947 में उसके पास था।
सन 1985 में पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत से 18 फीसदी अधिक थी लेकिन आज यह 30 फीसदी कम है और अंतर बढ़ता ही जा रहा है। वह तमाम संकेतकों पर बांग्लादेश से पिछड़ चुका है और जल्दी ही प्रति व्यक्तिआय में भी वह पिछड़ जाएगा। यह अंतर कैसे आया? दरअसल जब तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान ने खुद को पश्चिमी पाकिस्तान से मुक्तकिया तो वह कश्मीर के पागलपन से भी आजाद हो गया। भारत की बात करें तो हम न केवल दार्शनिक, वैचारिक और संवैधानिक रूप से अपनी सीमाओं की रक्षा को प्रतिबद्ध हैं बल्कि हम उस जमीन पर भी दावा करते हैं जो हमारे मानचित्र में दर्शाई गई है। आजादी के बाद 70 वर्ष में हम उसमें एक इंच का इजाफा करने में नाकाम रहे हैं। जबकि इस बीच हमने चार बड़े और कई छोटे युद्ध लड़े।
हमने सन 1965 और 1971 की जंग में जो जमीन हथियाई वह लौटानी पड़ी। भविष्य में भी ऐसा हो सकता है। यहां तक कि सन 1962 में चीन भी पूर्व में कब्जा की हुई सारी जमीन छोड़कर वापस लौटा और पश्चिम यानी लद्दाख में भी कुछ छिटपुट जगहों के अलावा उसे लौटना पड़ा। भारतीय संसद पाकिस्तान या चीन के कब्जे वाली जमीन वापस लेने के लिए दो प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस इरादे को गाहेबगाहे दोहराया जाता है। तीनों पड़ोसी मुल्क एक दूसरे से वह जमीन चाहते हैं जिसे वे अपनी समझते हैं। क्या चीन सैन्य तरीके से अरुणाचल प्रदेश ले सकता है या कम से कम तवांग जिला छीन सकता है? क्या पाकिस्तान श्रीनगर के राजभवन में अपना झंडा लहरा सकता है? और क्या भारत अक्साई चिन मुजफ्फराबाद, गिलगित-बाल्टिस्तान को वापस ले सकता है? इनमें से कुछ भी असंभव नहीं है लेकिन परमाणु हथियार संपन्न ये बड़े देश इतनी ज्यादा जमीन केवल तभी गंवाएंगे जब वे पूरी तरह नष्ट हो जाएं। क्या सामने वाले के नष्ट हुए बिना ऐसा संभव है?
यही कारण है कि हर देश जो सपना देखता है वह हकीकत में संभव नहीं। पूर्व नौसेनाध्यक्ष और जानेमाने युद्ध नायक एडमिरल अरुण प्रकाश (वीर चक्र, 1971) ने हाल ही में द इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखकर चेताया है कि एक देश के रूप में हमें यह समझना होगा कि 21वीं सदी में किसी जमीन को न तो जंग करके जीता जा सकता है, न दोबारा हासिल किया जा सकता है। वह लिखते हैं कि संसद को भी सरकार से मांग करनी चाहिए कि वह गंभीरता पूर्वक चौतरफा सीमाओं पर शांति, स्थिरता और सुरक्षा कायम करे ताकि देश के विकास के काम को अबाध ढंग से आगे बढ़ाया जा सके।
पुन: संयोजनवाद 19वीं सदी के आखिर में इटली में उभरा। इसका उद्देश्य पड़ोसी यूरोपीय देशों के इतालवी बोलने वाले इलाकों को वापस इटली में शामिल करना था। इसके बाद का इतिहास यही बताता है कि ऐसा विचार रखने वाले देशों को नुकसान ही हुआ है। समय आ गया है कि भारत, चीन और पाकिस्तान भी इस विषय पर गहराई से विचार विमर्श करें।

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