एक समय मैं ऐसी नौकरी में था जहां मुझे अलग-अलग टाइम जोन के लोगों के साथ काम करना होता था। एक बार मुझे अपनी कंपनी के मुख्यालय जाना था, जहां का समय भारत से साढ़े नौ घंटे पीछे था। मुझे अचानक बुलाया गया था और मेरे पास वीजा नहीं था। दुनिया भर से क्षेत्रीय नेतृत्वकर्ता वहां पहुंच रहे थे और इसलिए मुझे बताया गया था कि मेरा वहां पहुंचना जरूरी है।
वीजा नहीं होने के कारण मैंने वीडियो कॉल के जरिये बैठक का हिस्सा बनने की बात कही। भारतीय समय के मुताबिक मैं रात नौ बजे अपने स्क्रीन के आगे बैठा और करीब छह-सात घंटे बैठा रहा। सैंडविच खाते हुए और डाइट कोक पीते हुए मैंने एक-दो बातें कहीं, थोड़ी हां-हूं की और सिर हिलाता रहा।
अगले कुछ दिनों तक वैश्विक टीम की कोई भी ऐसी बैठक नहीं हुई, जिसमें मेरे धैर्य और निष्ठा की परीक्षा न ली गई हो। मैंने उन्हें जताने की कोशिश की कि कभी तो उन्हें मेरी बुद्धि और उससे जुड़ी खासियतों की तारीफ करनी चाहिए मगर उन्हें इसमें दिलचस्पी नहीं थी। मेरे लिए यह खासा दुखद था।
ईमानदारी से कहूं तो रात भर स्क्रीन के आगे बैठने की बात कहने से पहले मुझे कुछ सोचना नहीं पड़ा क्योंकि मैं अपने देश में कामकाज के तरीके का आदी हूं। हम वही करते हैं जो बॉस हमसे चाहते हैं चाहे इसके लिए अपनी देह और आत्मा तक को क्यों न झोंकना पड़े।
देह या शरीर को झोंकने की बात आई है तो संत धौम्य के शिष्य आरुणि की प्रसिद्ध कथा याद आती है। एक बार घनी अंधेरी और तूफानी रात में संत धौम्य ने आरुणि से कहा कि वह जाए और देखे कि भारी बारिश में गुरुकुल के खेतों का क्या हाल है।
आरुणि ने देखा कि खेत की एक मेड़ टूट गई है और उससे पानी भीतर आ रहा है। फसल को पानी के नुकसान से बचाने का कोई भी उपाय जब आरुणि को नहीं सूझा तो वह ही टूटी हुई मेड़ के आगे खुद लेट गए ताकि पानी दूसरी तरफ बह जाए।
धौम्य यह जानकर इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने आरुणि को उद्दालक की उपाधि दी यानी ऐसा व्यक्ति जो मेड़ से उठा हो। यह उद्दालक आगे चलकर भारत के आरंभिक दार्शनिकों में से एक बने। हम उन्हीं उद्दालक की धरती से आते हैं। हम कड़ी मेहनत, समर्पण और निष्ठा को अच्छा मानते हैं और खुद को जितना ज्यादा नुकसान पहुंचाकर आप ये गुण दिखा पाएं उतना अच्छा। अगर आप काम के लिए परिवार को भी ताक पर रख देते हैं तो और भी अच्छा।
अगर आप काम को खुद से भी ज्यादा अहमियत देते हैं तो ज्यादातर लोग इस पर ध्यान नहीं देंगे क्योंकि कायदे में आपको ऐसा ही करना चाहिए। काम करते समय हम बॉस के प्रति अटूट समर्पण दिखाते हैं। चूंकि पारिवारिक और सामाजिक मूल्य कार्य संस्कृति में शामिल हो जाते हैं, इसलिए बॉस हमारे लिए पिता, बड़े भाई, गांव के बुजुर्ग या गुरु सरीखे बन जाते हैं। बॉस दफ्तर में बैठे हों तो हममें से कई लोग घर जाने में हिचकिचाते हैं चाहे बॉस दफ्तर में बैठकर ऑनलाइन बिल चुका रहे हों, निजी फोन कॉल कर रहे हों या घर जाने का मन नहीं होने के कारण यूं ही वक्त काट रहे हों। हममें से कई लोग बॉस का नाम लेने में हिचकते हैं।
पश्चिमी तरीके से सुश्री या श्री लगाकर नाम तक नहीं लेते। हमारे यहां बॉस का नाम लेकर पीछे ‘सर’ या ‘मैडम’ लगाने की परंपरा है। राजनीति में आमतौर पर नाम के पहले ‘माननीय’ और नाम के बाद ‘जी’ लगाने का चलन है। बॉस छुट्टी पर नहीं जाता तो उसके अधीन काम करने वालों के लिए भी छुट्टी मांगना बहुत मुश्किल काम हो जाता है।
बॉस को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि आपके भीतर काम के लिए पूरी निष्ठा नहीं है। इससे बुरा तब हो सकता है, जब आप आप छुट्टियां मना रहे हों और दफ्तर में आपसे खुन्नस रखने वाले सहकर्मी इस बात का पूरा बंदोबस्त कर रहे हों कि आपकी गैर-मौजूदगी जगजाहिर हो जाए।
इसलिए आपका सशरीर मौजूद रहना ही आपके कामकाज और निष्ठा का पैमाना बन जाता है। दफ्तर में देर तक बैठना ही कड़ी मेहनत माना जाता है चाहे उसका नतीजा कुछ भी न निकल रहा हो।
इसकी शुरुआत स्कूल से होती है। जो बच्चा परीक्षा जल्दी खत्म कर दूसरा काम करने लगता है उसे लापरवाह माना जाता है। जो बच्चे देर रात तक जगते हैं और पाठ रटते रहते हैं उन्हें गंभीर और बेहतर माना जाता है। कोई यह देखने की जहमत नहीं उठाता है कि दोनों बच्चों में से कौन घोड़ा यानी काबिल है और कौन खच्चर यानी नाकाबिल। अक्सर नाकाबिल को ही योग्य मान लिया जाता है।
दफ्तरों में काम करने वालों से अक्सर क्लर्क की तरह काम करने की उम्मीद की जाती है चाहे उन्हें क्लर्क के मुकाबले कितना भी ज्यादा वेतन मिल रहा हो। थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले ने 1835 में ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था तैयार की थी, जो किसी न किसी रूप में आज तक चल रही है। यह रचनात्मकता, नवाचार, आविष्कार, सरलता आदि को प्रोत्साहन नहीं देती। यह लोगों को कौशल वाले पेशों में जाने के लिए भी प्रोत्साहन नहीं देती है।
स्टार्टअप्स के उदय के बाद इसमें बदलाव आ सकता था। परंतु कुछ संस्थापकों को लगता है कि वे अपने लोगों की क्षमताओं का पूरी तरह दोहन करके ही स्टीव जॉब्स बन सकते हैं। जॉब्स अपनी टीम को असंभव को संभव करने के लिए प्रेरित करते थे। परंतु नतीजें में गौरव करने वाली कोई बात नहीं दिखती बल्कि एक तरह की विषाक्तता आ जाती है।
अक्सर हम हालात से समझौता कर लेते हैं। हममें से कई लोग कोई काम या नौकरी पकड़ लेते हैं, जबकि हमें पता होता है कि इसे करने में हम पूरी तरह निचोड़ लिए जाएंगे। हममें तनख्वाह, भत्ते और समाज में रुतबा चाहिए। इसके बाद घर वाले भी बार-बार नहीं कहते कि घर लौट आओ और ‘सेटल हो जाओ’ यानी शादी कर लो।
हममें से कई आगे चलकर बॉस बन जाते हैं और चाहते हैं कि उनके जैसे और लोग आगे बढ़ें। कुछ लोग इससे निपट लेते हैं। बहुत कम लोग होते हैं, जो अपनी मर्जी की राह पर चल देते हैं चाहे वहां पैसा न हो और समाज की दुत्कार मिले। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो 26 साल की छोटी उम्र में ही हार मान लेते हैं।