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RBI की चुनौतियाँ: तंत्र में कितनी हो नकदी — उपयुक्त, पर्याप्त या बहुत अधिक?

पिछले वित्त वर्ष के अंत तक वित्तीय तंत्र में नकदी की Rs 2.4 लाख करोड़ की कमी थी; अब इसमें लगभग Rs 3 लाख करोड़ का अधिशेष है। बता रहे हैं

Last Updated- July 24, 2025 | 10:19 PM IST
Banks

सैमुअल टेलर कॉलरिज की एक कविता ‘द राइम ऑफ द ऐन्शंट मैरनर’ की कुछ पंक्तियों में नाविकों की व्यथा का जिक्र है कि वे समुद्र के बीच होते हुए भी प्यास से मर रहे हैं क्योंकि उनके चारों ओर खारा पानी है।

आजकल अगर आप देनदारियों का प्रबंधन करने वाले वरिष्ठ बैकरों के केबिन की तरफ से गुजरेंगे तो आप उन्हें भी ठीक ऐसी ही स्थिति का सामना करते हुए पाएंगे। यहां बस एक ही अंतर है यानी पानी की जगह खूब पैसा है। वित्तीय तंत्र में खूब पैसा है लेकिन कम लागत वाले बचत और चालू खाते, हर तिमाही कम हो रहे हैं। बेहतर मार्जिन पर उधार देने के लिए कोई सस्ती पूंजी उपलब्ध नहीं है।

जून के आखिरी हफ्ते में कुछ बड़े सरकारी बैंकों ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को कुछ हजार करोड़ रुपये के ऋण वितरित किए। एक साल के इन ऋणों पर ब्याज दर 5.75 फीसदी और 5.97 फीसदी के बीच थी। जून तिमाही करीब आने के कारण बैंक, ऋण वृद्धि बढ़ाने के दबाव में थे। लेकिन सवाल यह है कि अगर वे इतनी कम दरों पर ऋण देते हैं तो वे फिर पैसे कैसे कमाएंगे?

वित्त वर्ष के अंत (23 मार्च) तक वित्तीय तंत्र में नकदी की 2.4 लाख करोड़ रुपये की कमी थी और अब इसमें करीब 3 लाख करोड़ रुपये का अधिशेष है। 4 जुलाई को अधिशेष 4 लाख करोड़ रुपये के स्तर को पार कर गया। यह बदलाव भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की आक्रामकता से भरी खुले बाजार परिचालन (ओएमओ) वाली नीति के कारण है। आरबीआई ने ओएमओ के माध्यम से 4.95 लाख करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे थे, जिससे वित्तीय तंत्र में पैसा आया। इसके अतिरिक्त, सरकार द्वारा 1.5 लाख करोड़ रुपये के बॉन्ड की पुनर्खरीद भी की गई, जिससे वित्तीय तंत्र में मूल नकदी बढ़ी।

वित्तीय तंत्र में बहुत अधिक पैसा होने के कारण एक रात की दरें, स्थायी जमा सुविधा (एसडीएफ) से कम होने लगीं जो आरबीआई की नकदी समायोजन सुविधा (एलएएफ) फ्रेमवर्क की निचली सीमा है। इसने आरबीआई को वित्तीय तंत्र से अतिरिक्त नकदी निकालने और रात भर के ब्याज दर को एलएएफ के दायरे में लाने के लिए वेरिएबल रेट रिवर्स रीपो (वी-आरआरआर) नीलामी के लिए प्रेरित किया। बैंकिंग तंत्र में अल्पकालिक नकदी के प्रबंधन के लिए रिजर्व बैंक एलएएफ का उपयोग करता है। यह एक ऐसी सीमा है जिसके भीतर मुद्रा बाजार में रातों-रात ब्याज दरों में उतार-चढ़ाव होने की उम्मीद है।

तीन नीतिगत दरों पर विचार करें तो स्थायी जमा सुविधा (एसडीएफ)  निचला स्तर है, रीपो दर मध्य में है जबकि सीमांत स्थायी सुविधा (एमएसएफ) ऊपरी सीमा है। एसडीएफ दर को 2022 में एलएएफ के निचले स्तर के रूप में पेश किया गया था, जिसने फिक्स्ड रेट रिवर्स रीपो (एफ-आरआरआर) की जगह ली। वर्तमान में, रीपो दर 5.5  फीसदी, एसडीएफ 5.25 फीसदी और एमएसएफ 5.75 फीसदी है।

एलएएफ का उद्देश्य रात भर के लिए दिए गए ऋण दर को सीमा में रखना है। आजकल भारित औसत ओवरनाइट ऋण दर लगभग 5.25 फीसदी के आसपास है, जो एलएएफ का निचला स्तर है। कभी-कभी, यह इससे भी नीचे हो जाती है जिसके कारण आरबीआई को वी-आरआरआर की घोषणा करनी पड़ती है। नकदी में इस उतार-चढ़ाव से बैंकिंग तंत्र से जुड़े लोग हैरान हो रहे हैं।

जून के पहले सप्ताह में, आरबीआई ने लगातार तीसरी बार नीतिगत रीपो दर में कमी की। फरवरी से तीन बार दरों में कटौती की गई जिसमें ताजा कटौती 50 आधार अंकों की है और इसके कारण चार महीने में रीपो दर 6.5 फीसदी से घटकर 5.5 फीसदी हो गया है।

जनवरी से जून की शुरुआत तक, आरबीआई ने बाजार में करीब 9.5 लाख करोड़ रुपये की नकदी डाली थी। लेकिन अब, वह बाजार से पैसा वापस ले रहा है। जुलाई के दूसरे हफ्ते में, इसने 2.5 लाख करोड़ रुपये की सात-दिवसीय वी-आरआरआर नीलामी की घोषणा की जो अब तक सबसे अधिक थी। वहीं बैंकों ने 1.5 लाख करोड़ रुपये की बोली लगाई। आरबीआई के मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप का भी नकदी पर असर पड़ता है। जब आरबीआई डॉलर खरीदता है, तब वित्तीय तंत्र में उतनी ही स्थानीय मुद्रा (रुपया) आती है और जब वह डॉलर बेचता है, तब रुपये वित्तीय तंत्र से बाहर चले जाते हैं।

आरबीआई ने रीपो दर और सीआरआर (नकद आरक्षित अनुपात) में कटौती की है ताकि बैंकों को ऋण देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और ऋण लेने वालों के लिए पूंजी की लागत कम हो सके। हर कोई चाहता है कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में वृद्धि को गति देने के लिए बैंक ऋण बढ़े। वित्त वर्ष 2025 में, भारतीय अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी की दर से बढ़ी जो वित्त वर्ष 2021 के बाद इसकी सबसे धीमी गति थी। आरबीआई ने चालू वर्ष के लिए भी इसी तरह की वृद्धि का अनुमान लगाया है।

क्या सिर्फ बहुत सारी नकदी और कम ब्याज दरें ही ऋण वृद्धि को बढ़ावा दे सकती हैं? या फिर वृद्धि के लिए मांग ही अहम है? इस दशक में, ऋण वृद्धि का सबसे बेहतर चरण, वित्त वर्ष 2006 और 2008 के बीच तीन साल की अवधि थी। वित्त वर्ष 2006 में ऋण वृद्धि 25.2 फीसदी थी। वित्त वर्ष 2008 में 21.6  फीसदी तक गिरने से पहले के साल यानी 2007  में यह और भी मजबूत होकर 28.1 फीसदी हो गई। उन तीन वर्षों के दौरान गैर-खाद्य ऋण का औसत विस्तार लगभग 27 फीसदी था।

अब आपको जिज्ञासा होगी कि उस समय नीतिगत दर क्या थी?  तो रीपो दर, जो 2006 में 6.75 फीसदी थी, साल के अंत तक बढ़कर 7.75 फीसदी हो गई और फिर जुलाई 2008 तक बढ़कर 9 फीसदी हो गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि कम ब्याज दरों और ऋण वृद्धि के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। वास्तव में मांग ही अहम है। हाल के समय में, वित्त वर्ष 2023 में भारत का बैंक ऋण 15 फीसदी बढ़ा जो वित्त वर्ष 2012 के बाद सबसे अधिक था।

आईसीआईसीआई बैंक की एक ताजा शोध रिपोर्ट बताती है कि अगर बाजार में अधिक पूंजी हो तब शेयर बाजार में कीमतें बढ़ जाती हैं और कंपनियों के बॉन्ड पर ब्याज दरें, सरकारी बॉन्ड के मुकाबले कम हो जाती हैं। इसके मुताबिक अधिक पूंजी से तीन तिमाही बाद लोगों का उपभोग बढ़ता है और खुदरा महंगाई भी बढ़ती है। अभी, जून में खुदरा महंगाई कम होकर 2.1 फीसदी पर आ गई है। इससे वित्त वर्ष 2026 की पहली तिमाही की औसत महंगाई 2.69  फीसदी हो गई, जो आरबीआई के 2.9 फीसदी के अनुमान से कम है।

जब बाजार में बहुत नकदी होती है तब नियामक के पास उसे कम करने के कई तरीके होते हैं। अहम सवाल यह है कि आखिर तंत्र में कितनी नकदी चाहिए? क्या यह उचित, पर्याप्त हो या बहुत अधिक होना चाहिए?  इस पर ही यह निर्भर करेगा कि हमें परिसंपत्तियों की कीमतें बहुत  ज्यादा दिखेंगी, महंगाई में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी या फिर अर्थव्यवस्था में वृद्धि की तेज गति बिना किसी रुकावट के फिर से बरकरार होगी।

 

First Published - July 24, 2025 | 9:57 PM IST

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