सरकार के सांख्यिकीविद चालू कैलेंडर वर्ष की तीसरी तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर का अनुमान जारी करने वाले हैं। दूसरी तिमाही में देश की अर्थव्यवस्था में करीब 24 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। कोविड-19 महामारी पर अंकुश लगाने के लिए मार्च के अंत में लॉकडाउन की घोषणा के बाद देश में आर्थिक गतिविधियां थम गई थीं, जिसका सीधा प्रभाव दूसरी तिमाही के आंकड़ों पर दिखा था। ब्लूमबर्ग के एक सर्वेक्षण में अर्थशास्त्रियों ने तीसरी तिमाही में भी अर्थव्यवस्था में गिरावट आने का अंदेशा जताया है, लेकिन इस बार इसकी दर 8 से 9 प्रतिशत के बीच रह सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो तीसरी तिमाही में जीडीपी में गिरावट दूसरी तिमाही की तुलना में कम रह सकती है। अर्थव्यवस्था ने दोबारा तेजी दिखाने की कोशिश तो की है, लेकिन कुछ खास खंडों में कोविड-19 की वजह से कई तरह की पाबंदियां लगी होने के कारण पूरी रफ्तार हासिल नहीं हो पा रही है।
वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद देश की अर्थव्यवस्था में कई उतार-चढ़ाव दिखे हैं। इनके लिए आंतरिक और बाह्य दोनों कारण जिम्मेदार रहे हैं। जब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में नई सरकार आई तो शुरुआत में काफी उत्साह दिखा था और आर्थिक के साथ ही प्रशासनिक सुधारों की उम्मीदें भी बढ़ गई थीं। कच्चे तेल की कीमतें लंबे समय तक निचले स्तर पर रहने से सरकार को महंगाई के साथ ही आयात मद में बचत करने में भी मदद मिली थी। लेकिन दो वर्ष बाद छोटे एवं मझोले तथा अंसगठित क्षेत्र पर उस वक्त गहरा आघात हुआ जब सरकार ने बिना व्यापक सोच-विचार के नोटबंदी की घोषणा कर दी। रही सही कसर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ने पूरी कर दी। जीएसटी प्रणाली का क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं होने से छोटे कारोबारों को नुकसान हुआ। देश इन झटकों से उबर भी नहीं पाया था कि कोविड-19 महामारी ने तूफान खड़ा कर दिया।
जीडीपी के तीसरी तिमाही के आंकड़ों की समीक्षा तीन अलग-अलग पैमानों पर किए जाने की जरूरत है। जो भी आंकड़े आएंगे उनके लघु, मध्यम एवं दीर्घ अवधि में होने वाले असर का आकलन किया जाना चाहिए। ये तीन पैमाने हैं – महामारी के समय विपरीत परिस्थितियों से लडऩे की अर्थव्यवस्था की क्षमता, महामारी समाप्त होने के बाद सुधार और आने वाले वर्षों में वृद्धि दर में निरंतरता।
लघु अवधि के हालात की बात करें तो अर्थव्यवस्था में सुधार के शुरुआती संकेतों और उत्पादन व्यवस्था सामान्य होने के बावजूद अर्थव्यवस्था में मांग की स्थिति को लेकर चिंता बनी हुई है। निस्संदेह दीवाली से पहले खुदरा क्षेत्र से अलग-अलग मगर उत्साह जगाने वाले संकेत मिले थे। पिछले वर्ष के मुकाबले इलेक्ट्रॉनिक सामान की बिक्री अधिक रही, लेकिन खुदरा परिधान कारोबार बदतर रहा। ई-कॉमर्स के कारोबार में 50 प्रतिशत से अधिक तेजी जरूर आई। अच्छे मॉनसून से अब तक ग्रामीण क्षेत्रों में मांग जरूर अच्छी रही है, लेकिन सख्त श्रम बाजार और वेतन वृद्धि की पर्याप्त गुंजाइश नहीं होने से भविष्य को लेकर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं। अगले वित्त वर्ष के बजट में मांग बढ़ाने के उपाय करने के लिए सरकार पर दबाव भी लगातार बढ़ता रहेगा।
मध्यम अवधि को लेकर उम्मीदें और धुंधली हैं। इसकी वजह यह है कि अगले दो वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था की चाल इस बात पर निर्भर करेगी कि कोविड-19 महामारी कितने समय तक जारी रहती है। टीका आने की उम्मीदें जरूर बढ़ गई हैं, लेकिन इनमें दो कंपनियों फाइजर एवं मॉडर्ना के टीके भारत की परिस्थितियों के अनुरूप नहीं हैं। इनके टीके की खुराक महंगी होगी और भंडारण एवं वितरण पर भी अधिक खर्च आएगा। भारत की उम्मीदें दूसरी कंपनियों खासकर एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफर्ड के टीके पर लगी हैं। अगर टीका कारगर रहा तो भी सबको तुरंत इसकी खुराक मिलनी मुश्किल है।
अंत में एक अहम प्रश्न हालात पटरी पर लौटने से जुड़ा है। क्या यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कोविड-19 महामारी समाप्त होने और सभी लोगों को टीका मिल जाने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था 8 से 10 प्रतिशत की वृद्धि दर दोबारा हासिल कर लेगी? सरकार ने हाल में श्रम सुधार से लेकर कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। हाल में ही दिवाला एवं ऋण शोधन अक्षमता (आईबीसी) और निगमित करों में कटौती जैसे सुधार भी किए गए हैं। इन तमाम उपायों से आर्थिक सुधार के लिए आवश्यक जमीन तैयार हो गई है। हालांकि निजी क्षेत्र से कम निवेश चिंता का कारण बना हुआ है और सरकार इस लिहाज से जो कदम उठा रही है उससे फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। सरकार सार्वजनिक बैंकों पर अपनी पकड़ कम करने में विफल रही है और बैंकिंग प्रणाली की खामियां दूर नहीं कर पाई है। अति राष्ट्रवादी विचारों ने भी विदेशी पूंजी के लिए हालात प्रतिकूल बना दिए हैं। इन बातों से निवेश एवं कारोबार दोनों के लिए माहौल बिगड़ा है। संरक्षणवादी रवैया अपनाकर सरकार ने वैश्विक बाजारों से देसी बाजार का जुड़ाव कम कर दिया है। वैश्विक बाजारों से जुड़ाव निवेश एवं वृद्धि के लिए सही मायने में प्रोत्साहन होता है। जब तक धारणा नहीं बदलती है तब तक सरकार अर्थव्यवस्था में लचीलेपन और इसमें सुधार का श्रेय ले सकती है, लेकिन अर्थव्यवस्था दोबारा पटरी पर लाने के मोर्चे पर इसे विफलता ही हाथ लगेगी।
