लेख

तकनीकी उन्नति और रोजगार का संकट

क्या अब वक्त आ गया है कि हम उन तकनीकों को सीमित करें जिनके कारण रोजगार सीमित हो रहे हैं यानी जो रोजगारों की स्थानापन्न बन रही हैं? अपनी राय रख रहे हैं आर जगन्नाथन

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आर जगन्नाथन
Last Updated- January 10, 2023 | 10:12 PM IST

भारत को जी 20 देशों के समूह की अध्यक्षता मिलने के बाद जो प्रमुख लक्ष्य तय किए गए थे उनमें से एक यह भी था कि तकनीक में मानवकेंद्रित रुख अपनाया जाएगा और डिजिटल सार्वजनिक अधोसंरचना, वित्तीय समावेशन तथा तकनीक सक्षम विकास वाले क्षेत्रों मसलन कृ​षि से लेकर ​शिक्षा जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में ज्ञान की साझेदारी को बढ़ाया जाएगा। यह सराहनीय है लेकिन अभी भी एक बड़ी समस्या जिसकी अनदेखी की जा रही है वह है कि तकनीकी प्रगति के रोजगार पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव।

भारत अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के अंत से ही रोजगार के संकट का सामना कर रहा है लेकिन 2003-2008 की उच्च वृद्धि के कारण हम इसे महसूस नहीं कर सके। ब​ल्कि उसका असर 2012 तक बरकरार रहा। परंतु 2012 के बाद भी जब यह स्पष्ट हो चुका था कि हम रोजगार संकट के ​शिकार हैं, यह स्वीकार करने की इच्छा नहीं नजर आ रही थी क्योंकि इसे आ​र्थिक मंदी का परिणाम माना जा रहा था। जब हालात आ​​र्थिक पूर्वानुमान लगाने वालों के अनुकूल नहीं जाते तब आम प्रवृ​त्ति यही रहती है कि मूल ढांचागत वजहों के बजाय तात्कालिक कारणों पर इसका ठीकरा फोड़ दिया जाए।

यही वजह है ​कि हमने नोटबंदी या वस्तु एवं सेवा कर के गड़बड़ क्रियान्वयन को रोजगार की बढ़ती समस्या की वजह बताया। अर्थशास्त्री भी हालात को जस का तस नहीं कहते हैं: रोजगार का संकट वै​श्विक है और इसका सीधा संबंध तकनीक की मानव श्रम के स्थानापन्न बनने की क्षमता से है। रोबोट और स्वचालन इसका उदाहरण हैं। माना तो यही जाता रहा है कि तकनीकी नवाचार और उससे हुई उथलपुथल ने देरसबेर कई ऐसे रोजगार दोबारा तैयार किए जो उन्होंने नष्ट किए थे।

यह अनुमान अब सही नहीं है। सन 1990 के दशक से ही अमेरिका और यूरोप में तथा वाजपेयी के कार्यकाल के बाद से भारत में पूंजी ने निरंतर मानव श्रम का स्थान लिया। ऐसा इंटरनेट और डिजिटल तकनीक की उन्नति की वजह से हुआ। वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के समय समस्या गंभीर हुई क्योंकि पूंजी लगभग शून्य लागत पर ली जा सकती थी और श्रम को प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया लगभग हर जगह तेज हुई। अतीत के तकनीकी बदलावों और वर्तमान में अहम अंतर यह है कि इस बार गति तेज है और बड़ी तादाद में श्रमिकों को समायोजित नहीं किया जा सकता है।

भारत में रोजगार वृद्धि की लचीलापन शायद 0.1 से 0.2 के बीच होगा यानी अगर हमारा सकल घरेलू उत्पाद 10 फीसदी की दर से भी बढ़े तो भी रोजगार केवल 1-2 फीसदी ही बढ़ेंगे। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी रोजगार और बेरोजगारी को लेकर चार महीने का अनुमान पेश करता है। इसके मुताबिक जनवरी-अप्रैल 2016 से मई-अगस्त 2022 के बीच रोजगार के आंकड़े 39.5-40.5 करोड़ के बीच ​स्थिर रहे।

सस्ती पूंजी के साथ श्रम का प्रतिस्थापन अल्पाव​धि में खासतौर पर पलटा जा सकता है या धीमा किया जा सकता है क्योंकि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति से निपटने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन मध्यम से दीर्घाव​धि में रुझान को बदला नहीं जा सकता है। हमें यह समझना होगा कि श्रमिकों का स्थान लेने वाली तकनीक हर वर्ष बेहतर होती जा रही है और हर देश को रोजगार संकट का सामना करना ही होगा।

भारत का रोजगार संकट अ​धिक खराब इसलिए नजर आता है कि हम प्रति व्य​क्ति आय के निचले स्तर पर इस समस्या का सामना कर रहे हैं। इसके अलावा भी जनांकीय दृ​ष्टि से हम अ​धिक संवेदनशील ​स्थिति में हैं क्योंकि हमारा श्रम बाजार अगले 20 वर्षों तक विस्तारित होगा जबकि शेष विश्व (अफ्रीका और प​श्चिम ए​शिया के अलावा) में अमीर होने के बाद संकट उत्पन्न हो गया है।

अमीर होने पर उच्च कराधान के जरिये कल्याण योजनाओं की वित्तीय सहायता कर पाना आसान होता है। इसके अलावा अगर आप थोड़ी देरी से सुधार को अपनाते हैं तो आपके लाभ बहुत कम होते हैं। अगर हमने श्रम और भूमि बाजारों में 1991 में सुधार किया होता तो हमें अगले दो दशक में उसका लाभ मिला होता क्योंकि उसी बीत समूची आपूर्ति श्रृंखला ए​शिया में स्थानांतरित हो गई। चीन ने इसका लाभ लिया। रोजगार संकट की ​स्थिति दूर करने का एक तरीका यह है कि लोगों को तेजी से कौशल संपन्न बनाया जाए।

बहरहाल, यह प्रक्रिया नि​श्चित रूप से कुछ लोगों में बेहतरी लाएगी लेकिन श्रमयोग्य आयु वाले 90 करोड़ लोगों के लिए ऐसा करना मु​श्किल है। खासतौर पर इसलिए कि कामगार तबके का बड़ा हिस्सा कम ​शि​​​क्षित है और इसे इसमें और देर हो सकती है। इस सलाह में एक तथ्य की अनदेखी की जाती है और वह यह कि तकनीकी सुधार से बाजार के निचले स्तर पर कौशल की जरूरत कम होती है। यह वह स्थान होता है जहां के रोजगार में कौशल उन्नयन की गुंजाइश बहुत कम होती है।

रोजगार संकट का इकलौता हल है रोजगार बढ़ाने वाले क्षेत्रों में सीधा तकनीकी नवाचार और रोजगार को प्रतिस्थापित करने वाली तकनीक को हतोत्साहित करना। परंतु यह बिना वै​श्विक सहमति के नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए कि वि​भिन्न देश जनांकीय बदलाव तथा तकनीकी क्षमता के अलग-अलग चरण में हैं।
इस अंतर्संबं​धित दुनिया में किसी एक देश के लिए अपने दम पर स्वायत्त नीति बना लेना संभव नहीं है। अगर कोई बड़ी अर्थव्यवस्था यह निर्णय लेती है कि वह विकास को सीमित करेगी या किसी खास तरह की तकनीक के इस्तेमाल को सीमित करेगी तो दूसरी अर्थव्यवस्था इसका उलटा भी कर सकती है।

अगर प्रतिबंध भी लगा दिया गया तो भी ज्ञान किसी न किसी तरह तो पहुंच ही जाएगा। उदाहरण के लिए अगर चीन यह तय करता है कि उसकी आबादी की उम्र बढ़ने के कारण वह रोजगार को प्रतिस्थापित करने वाली तकनीक की पैरोकारी करेगा तो उसे प्रतिस्पर्धी बढ़त मिलेगी जिसे अन्य देश इस्तेमाल करने से नकार नहीं सकते। यानी किस तकनीक को बढ़ाना है और किसे सीमित करना है यह निर्णय केवल वै​श्विक सहमति होने पर ही किया जा सकता है। यह जलवायु परिवर्तन जैसा मामला है। यहां भी हम सभी को एक साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।

सबसे बेहतर नतीजे आपसी सहयोग से ही हासिल हो सकते हैं न कि स्वार्थ आधारित निर्णय प्रक्रिया से। रोजगार संकट वै​श्विक है और असली अंतर आय और विकास के अलग-अलग स्तर पर मौजूद देशों पर अलग-अलग असर के रूप में दिख रहा है। इस समस्या से वै​श्विक स्तर पर ही निपटा जा सकता है। जी20 देशों के समूह को कम से कम एक अध्ययन शुरू करना चाहिए कि कैसे तकनीक रोजगारों को प्रभावित कर रही है। रोजगार को प्रतिस्थापित करने वाली तकनीकों को लेकर गहरी समझ के बिना हम कभी इस संकट से निपट नहीं पाएंगे।

(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)

First Published : January 10, 2023 | 10:11 PM IST