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निर्यात की सफलता के लिए MSME की मजबूती

सुधारों और ई-कॉमर्स संबंधी नवाचार की मदद से भारत को अपने MSME क्षेत्र को गति प्रदान करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। बता रहे हैं रवि वेंकटेशन और राहुल आहलूवालिया

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रवि वेंकटेशन   
राहुल आहलूवालिया   
Last Updated- September 22, 2023 | 9:20 PM IST

सूक्ष्म लघु और मझोले उपक्रम (एमएसएमई) को अक्सर भारतीय अर्थव्यवस्था का पावर हाउस कहकर पुकारा जाता है। कुछ अनुमानों के मुताबिक वे देश के सकल घरेलू उत्पाद में 27 फीसदी का योगदान करते हैं और रोजगार में उनका योगदान 1.1 करोड़ का है। बहरहाल, थोड़ा गहराई में जाएं तो एक अलग तस्वीर उभरती है।

एमएसएमई भारत के नियामकीय ढांचे की अदृश्य बाधाओं के एक लक्षण का प्रदर्शन करता है। इनमें से 85 फीसदी 10 वर्ष से अधिक पुराने हैं लेकिन अभी भी उनमें कर्मचारियों की संख्या 100 से कम है। यानी अर्थव्यवस्था में उनका योगदान बहुत अधिक नहीं है। दोनों में से कौन सा कथानक सही है?

ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों सही हैं। हमारे यहां बड़ी तादाद में एमएसएमई हैं लेकिन वे फलने-फूलने के लिए संघर्ष कर रही हैं क्योंकि छोटे पैमाने पर होने के कारण उनके सामने कई चुनौतियां हैं। जब भी वे बड़े पैमाने पर काम करने का प्रयास करते हैं तो नियामकीय बाधाएं राह रोक लेती हैं। हम उन्हें दुनिया में अग्रणी कैसे बना सकते हैं?

सबसे पहले हमें समझना होगा कि एमएसएमई के लिए सबसे बड़ा अवसर कहां है और कौन सी बात उन्हें उस अवसर का लाभ लेने से रोक रही है? कुछ उद्योग एमएसएमई के लिए स्वाभाविक तौर पर उचित प्रतीत होते हैं, मसलन वे उद्योग जहां बहुत अधिक श्रम लगता है और निवेश की आवश्यकता कम होती है।

उदाहरण के लिए लकड़ी से बनने वाले उत्पाद, आयुर्वेद और हर्बल सप्लीमेंट, खिलौने, हथकरघा वस्त्र, हस्तकला, चमड़े के उत्पाद और आभूषण आदि। बहरहाल इन उद्योगों के लिए भारत का घरेलू बाजार वैश्विक बाजार के केवल दो फीसदी के बराबर है।

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उदाहरण के लिए ​खिलौनों के भारतीय बाजार का आकार एक अरब डॉलर के करीब है जबकि वैश्विक बाजार 300 अरब डॉलर का है। रेडीमेड वस्त्रों का भारतीय बाजार करीब 55 अरब डॉलर का है जबकि वैश्विक बाजार एक लाख करोड़ डॉलर का है।

दुनिया में अपनी सही जगह हासिल करने के लिए हमें वैश्विक व्यापार में कम से कम 10 फीसदी हिस्सेदारी का लक्ष्य रखना चाहिए। दुनिया की कुल श्रम योग्य आबादी का 20 फीसदी हमारे देश में है।

आज वैश्विक वस्तु निर्यात में भारत दो फीसदी का हिस्सेदार है। अगर हम सरकारी पोर्टल के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भारतीय निर्यात में एमएसएमई की हिस्सेदारी 6 फीसदी है। इनमें एक फीसदी से भी कम एमएसएमई निर्यात से जुड़े हैं। आश्चर्य नहीं कि एमएसएमई क्षेत्र में काम कर रहे 11 करोड़ लोग संघर्षरत हैं।

छोटे पैमाने पर काम करने के कारण निर्यात की उनकी क्षमता प्रभावित हुई है। किसी छोटे उपक्रम के लिए विदेश में ग्राहक तलाश करना ही मुश्किल है। उसके बाद लॉजिस्टिक्स, वित्तीय तथा अनुपालन की जटिलताएं भी वस्तु निर्यात की राह को बाधित करती हैं। इस दौरान कारोबार के संचालन की समस्या तो रहती ही है। अगर बड़े पैमाने पर काम की सुरक्षा नहीं मिली तो सफलता मिलना मुश्किल है। ऐसे में अधिकांश निर्यातक बड़ी कंपनियां हैं।

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बहरहाल ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों के उभार का अर्थ यह है कि अब हम उस दुनिया में नहीं हैं। ये प्लेटफॉर्म ग्राहकों वाले छोटे कारोबारों की बराबरी कर सकते हैं और लॉजिस्टिक्स और अनुपालन के मोर्चे पर भी बेहतर हैं। जबकि एमएसएमई का ध्यान अपने काम को बेहतर तरीके से करने पर है। ऐसा करने से एमएसएमई सही मायनों में विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।

बहरहाल भारत का मौजूदा ई-कॉमर्स निर्यात महज दो अरब डॉलर यानी कुल वस्तु निर्यात का 0.5 फीसदी है। तुलनात्मक रूप से देखे तो चीन अपने कुल निर्यात में आठ फीसदी ई-कॉमर्स के जरिये करता है। 2030 तक एक लाख करोड़ डॉलर के निर्यात लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ई-कॉमर्स और एमएसएमई को 100 अरब डॉलर का योगदान करना होगा।

वहां तक पहुंचना आसान नहीं है लेकिन इस दिशा में चार कदम हैं- तीन सुधार और ए​क क्रियान्वयन संबंधी उपाय। इससे काफी मदद मिल सकती है। पहला, हमें निर्यातकों और उत्पाद मालिकों को अलग-अलग होने की इजाजत देनी होगी। फिलहाल ऐसा संभव नहीं है। ऐसा करने से एग्रीगेटर्स को छोटे कारोबारियों के साथ काम करने में आसानी होगी और वे उनकी ओर से बड़े पैमाने पर अनुपालन का काम भी संभाल सकेंगे।

दूसरा, हमें निर्यात के वित्तीय नियमन के नियम कायदों को सुसंगत बनाना होगा। मौजूदा नियम उस समय बनाए गए थे जब हम विदेशी विनिमय को लेकर चिंतित रहते थे और एक-एक डॉलर पर नियंत्रण रखना चाहते थे। आज हमारा देश सुरक्षित है। हम मुक्त व्यापार की दिशा में काफी आगे बढ़े हैं। इस दिशा में आगे बढ़ते हैं। ये नियम और व्यवस्थाएं एमएसएमई पर अनावश्यक बोझ डालती हैं।

उनके हर लेनदेन पर अनुपालन का महंगा बोझ डालती हैं। इतना ही नहीं वे पहले ही देश से बाहर हो चुकी वस्तुओं की कीमत को सीमित करके भारतीय उत्पादकों को भी नुकसान पहुंचाती हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका के किसी भंडारगृह में रखा कालीन मांग कम होने पर भी घोषित मूल्य के 75 फीसदी से नीचे और मांग अधिक होने पर 125 से अधिक कीमत पर ही बेचा जा सकता है।

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तीसरा, हमें एक ई-कॉमर्स निर्यात के लिए एक ग्रीन चैनल बनाना होगा ताकि सीमा पर मंजूरी तेज की जा सके। चीन 2014 से ही इस रुख को लागू कर रहा है और परिणामस्वरूप उसे ई-कॉमर्स निर्यात में काफी सफलता मिली है। आखिर में, हमें ऐसे ट्रेड पोर्टल का इस्तेमाल करना होगा जहां निर्यात से जुड़ी सभी सूचनाएं एक स्थान पर और एकल सुसंगत व्यवस्था के अधीन हों।

फिलहाल निर्यातक और खासकर एमएसएमई के पास सूचनाओं का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है और अनुपालन प्रक्रिया के लिए उन्हें सरकार के साथ कई स्तरों पर बातचीत करनी होती है। जी20 बैठक के बाद एक पोर्टल बनाने की घोषणा की गई ताकि सूचनाओं को व्यवस्थित करने के लिए अनुपालन की सभी प्रक्रियाओं को पोर्टल पर एकजुट करना जरूरी है।

ये जरूरी सुधार अनुशंसाएं हैं जिनकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को कोई खास कीमत नहीं चुकानी है। इस समय जबकि हम व्यापक सुधारों की बाट जोह रहे हैं, हमें एकजुट होकर ऐसे उपाय अपनाने होंगे जो हमारे विशाल एमएसएमई क्षेत्र को लाभ पहुंचा सकें। वास्तविक चुनौती मानसिकता में बदलाव की है। सरकार को भारतीय उद्यमियों पर विश्वास करना होगा न कि उन्हें शंका की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। बहरहाल, अगर हम यह बदलाव कर सके तो ये सुधार एमएसएमई क्षेत्र के लिए बड़ा बदलाव लाने वाले साबित हो सकते हैं।

First Published : September 22, 2023 | 9:20 PM IST